यूं तो सभी क्षेत्रों में अलग-अलग वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिनका प्रचलन प्राचीन काल से होता आ रहा है. उनका महत्व उस क्षेत्र के परिवेश, संस्कृति एवं विरासत पर आधारित होता है और सदियों से चली आ रही यह क्षेत्रीय हुनरबाजी, कला के क्षेत्र में एक विशेष महत्व रखती है.
(Dhol Damau Uttarakhand)
अगर हम देवभूमि उत्तराखण्ड के वाद्य-यंत्रों का वर्णन करें तो उनमें मुख्य है “ढोल- दमाऊं”. यह वाद्य यंत्र उत्तराखण्ड के पहाड़ी समाज की लोककला को संजोए रखे हुए हैं और उनकी आत्मा से जुड़े हैं. इस कला का जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से जंगल तक अर्थात् प्रत्येक संस्कार और सामाजिक गतिविधियों में इनका प्रयोग होता आ रहा है. इनकी गूंज के बिना यहाँ का कोई भी शुभकार्य पूरा नहीं माना जाता है इसीलिए कहा जाता है कि पहाड़ों में विशेषकर उत्तराखण्ड में त्यौहारों का आरंभ ढोल-दमाऊं के साथ ही होता है.
यह उत्तराखण्ड के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय वाद्ययंत्रों में शामिल हैं, इन्हें मंगल वाद्य के नाम से भी जाना जाता है. जनश्रुति है की प्रारम्भ में युद्ध के मैदानों में सैनिकों के कुशल नेतृत्व एवं उनके उत्साह को पैदा करने के लिए इनका उपयोग किया जाता था और फिर यह कला युद्ध के मैदानों से लोगों के सामाजिक जीवन में प्रवेश करते चली गई, अंततः यह शुभ कार्यों के आगमन का प्रतीक बन गई. इसी के साथ पहाड़ों में शुरूआत हुई लोककला की जिसमें इन वाद्य-यंत्रों ने अपनी जगह स्थापित कर ली और आज भी जनमानस के द्वारा इन कलाओं को महत्वपूर्ण दर्जा दिया जा रहा है क्योंकि किसी भी क्षेत्र की पहचान वहां की लोककला,परंपरा,संस्कृति पर निर्भर करती है.
ढोल-दमाऊं के माध्यम से कई प्रकार की विशेष तालों को बजाया जाता हैं. विभिन्न तालों के समूह को ढोल सागर भी कहा जाता है. ढोल सागर में लगभग 1200 श्लोकों का वर्णन किया गया है. इन तालों के माध्यम से वार्तालाप व विशेष सन्देश का आदान-प्रदान भी किया जाता है. अलग समय पर अलग-अलग ताल बजायी जाती है जिसके माध्यम से इस बात का पता चलता है की कौन-सा संस्कार या अवसर है.
इन्हीं तालों में देवी-देवताओं के रूप को जागृत करने के लिए सबसे पहले बजाई जाने वाली ताल, ‘मंगल बधाई ताल’ है. जिसके माध्यम से उनका आवाहन किया जाता है. इसके अतिरिक्त सभी मंगल कार्य, शादी, हल्दी हाथ, बारात प्रस्थान, विभिन्न संस्कारों तथा पूजा-अनुष्ठानों आदि कार्यों में विशेष प्रकार की तालों को बजाया जाता है.
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इतिहास
इतिहासकारों ने माना है कि ढोल पश्चिम एशियाई मूल का है जिसे 15वी शताब्दी में भारत में लाया गया था. आईन-ए-अकबरी में पहली बार ढोल के संदर्भ में वर्णन मिलता है अर्थात् यह कहा जा सकता हैं कि 16वी शताब्दी के आसपास ढोल की शुरुआत गढ़वाल में पहली बार की गई थी. इतिहास में अनेकों वाद्य यंत्रों में इन्हें भी महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त हुआ, जिन्होंने सम्पूर्ण क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की.
महत्व
ढोल-दमाऊ को प्रमुख वाद्य यंत्रों में इसीलिए शामिल किया गया क्योंकि इनके माध्यम से ही देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है और दंतकथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति शिव जी के डमरू से हुई है. जिसे सर्वप्रथम भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाया था और वहां मौजूद एक गण द्वारा इन्हें सुनकर याद कर लिया गया और तब से लेकर आज तक यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही है, जिनमें हर कार्यक्रम के लिए विशेष धुनों का प्रयोग किया जाता है.
ढोल दमाऊं वादक को औजी, ढोली, दास या बाजगी आदि पारंपरिक नामों से भी जाना जाता है, जिसमें स्वयं सरस्वती का वास होता है. औजी वास्तव में भगवान शिव का ही नाम है. यह वाद्ययंत्र बहुत ही शुभ माना जाता है. प्रत्येक भारतीय महिनों के प्रारम्भ में औजी (ढोल बजाने वाला) गांवों के प्रत्येक घर में यह वाद्ययंत्र बजाते है, जिससे वह यह सूचना देते हैं कि भारतीय वर्ष का नया महिना प्रारम्भ हो गया है.
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जिस प्रकार आजकल की दुनिया आधुनिक होती जा रही है. वे शादी व पार्टी आदि में डीजे अथवा बैण्ड (आधुनिक वाद्य यंत्र) का प्रयोग करते है, किन्तु उत्तराखण्ड की गढ़वाली संस्कृति में आज भी गढ़वाली लोग ढोल-दमाऊं का ही प्रयोग कर, इसके ताल का आनन्द लेकर नृत्य करते हैं और जिस क्षेत्र को करोड़ो देवी- देवताओं का निवास स्थान माना गया है, वहां प्रचलित कथाओं में दमाऊं को भगवान शिव का और ढोल को ऊर्जा का स्वरूप माना जाता है. ऊर्जा के अंदर शक्ति विद्यमान में अतः ढोल और दमाऊं का रिश्ता पति-पत्नि के रिश्ते की तरह अर्थात शिव-शक्ति जैसा माना गया है.
संरक्षण
उत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति में विभिन्न अवसरों पर ताल और सुर में ढोल और दमाऊं का वादन किया जाता है. आज उत्तराखंड की पर्वतीय संस्कृति पर पाश्चात्य देशों की संस्कृति का खासा असर पड़ा है, इसलिए आधुनिकता के दौर में पहाड़ के ही अधिकतर लोग ढोल-दमाऊं को भूलते जा रहे हैं और नई पीढ़ी इसे बजाना नहीं चाहती है.
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ढोल-दमाऊं के हुनरबाज इस कला के क्षेत्र में रोजगार के अवसर न के बराबर होने की वजह से खासे परेशान है और इसीलिए इन हुनरबाजों की अगली पीढ़ी ढोल-दमाऊं की कला को अपनाने को तैयार नहीं है. सदियों पुरानी यह कला विलुप्ति की कगार पर है, जिनका संरक्षण ही मुख्य उपाय है, इस हेतु राज्य सरकार और क्षेत्रीय स्तर पर इनके लिए जागरूकता संबधित कार्यक्रम प्रसारित करने चाहिए क्योंकि उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य होने के नाते नाना प्रकार की संस्कृति, संगीत, कला और परंपराओं से समृद्ध राज्य है. महत्वपूर्ण बात है तो यह है कि इन पुरातन कलाओं तथा परंपराओं का संरक्षण किया जाए और इन्हें विलुप्त होने से बचाया जाए. किसी सामाजिक और सरकारी उपेक्षा के कारण यह कला भी दम न तोड़े.
किसी तरह इन वाद्य-यंत्रों और इनके वादकों का संरक्षण करना आवश्यक है अन्यथा हम अपनी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो देंगे और आने वाली पीढ़ियाँ इनके अस्तित्व से पूर्णतः अनभिज्ञ तथा उपेक्षित हो जाएगी.
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मूल रूप से टिहरी गढ़वाल की रहने वाली निधि सजवान डेनियलसन डिग्री कॉलेज के इतिहास विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं. निधि वर्तमान में छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश में रहती हैं.
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1 Comments
Mohan sargwan
य़ह ढोल की परंपरा कभी खत्म नहीं होगी अगर
इसमे बजाने वालों को लोग अपनी छोटी नजरो से नहीं
देखे तो उनको उतना ही आदर और सम्मान मिलना चाहिए जितना
वो आपके शुभ अवसरों पर आकर आप सभी को देते है
किन्तु एसा हो नहीं सकता इसी लिय आज की पीढ़ी इसे स्वीकार नहीं करती (यहां हर किसी को ऊँचा रहना है तो (औजी -शिव)क्या है इनके लिय)जय बाबा की 🔱