हमारी धरती में नायकों की कभी कमी नहीं रही. चाहे जितने गिना लीजिए. आजादी से पहले भी, और बाद में भी. इन नायकों का समर्पण भी याद करने लायक रहा है. मगर आजादी के तिहत्तर सालों के बाद उन्हें नाम से याद करते हैं तो वे या तो सुदूर अतीत के लोक नायक होंगे.
(Column by Batrohi)
विस्तार में फैले चरागाहों में पशु-पक्षियों, पेड़-पौंधों, नदी-घाटियों और इन्द्रधनुषी क्षितिज के साथ मौज-मस्ती करते पशुचारक, पूरी तरह समर्पण के बावजूद आत्मीयता और प्रेम के लिए वन-वन भटकती विवाहिताओं को सहारा देने वाले राज-पाट त्यागकर जोगी बने अवधूत, अभावग्रस्त लोगों की यथा-समय मदद न कर सकी अतृप्त आत्माएं और पशुओं, कीट-फतिंगों के मानवीकृत रूप लोक देवता, ये सब तो आभासी संसार के प्राणी थे, जो पता नहीं कभी वास्तविक थे या नहीं, लेकिन सदियों से पहाड़ी लोग इन्हें वास्तविक मानते रहे थे.
शायद ये लोग कठिन पहाड़ी जीवन में विकल्पहीनता के बीच पैदा हुए नायक थे, अपनी अमूर्तता के बावजूद यहाँ के लोगों को खुशहाल जिंदगी का संबल देते रहे थे.
इस आभासी दुनिया के समानांतर छोटी-छोटी ठकुराइयों में अपनी सीमित लालसाओं के लिए एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते सामंत थे, जिनमें संयोगवश कोई उदार-हृदय निकल आता था तो लोग उसे हाथों-हाथ लेकर पूजने लगते थे. अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में आधुनिकता की नयी लहर के साथ ब्रिटिश प्रशासकों के साथ नायकों के एक नयी खेप आई, जो परम्परागत शासकों से उलट आम जनता के बीच, उनकी भाषा-बोली को अपनाकर, सामाजिक भेदभाव को धता बताते हुए एक नए अहसास के साथ सामने आये. हालाँकि इनमें ज्यादातर लोग यहाँ की प्रकृतिक संपदा को समेटकर अपने देश भेज रहे, अपनी स्वार्थसिद्धि करने वाले ही थे, मगर कुछ लोग सच्चे नायकों की तरह उभरे भी.
मेरा इशारा फिरंगी रैमजे को अपने भगवान रामजी और जिम कॉर्बेट को अपना आधार ‘कारपेट’ साब के रूप में पुकारे जाने वाले नामों की ओर है. दूसरी ओर अपनी धरती में पैदा हुए जो लोग राजनीतिक नेतृत्व के रूप में उभरे, उनमें बिरले ही ऐसे थे जिनकी चिंता अपनी धरती के लोगों और उनके सपनों को लेकर थीं. ऐसे लगभग सभी लोगों ने अपने नेतृत्व को राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने की कूद की तरह इस्तेमाल किया.
शुरू में भले ही वो अपने लोगों को नायक होने का आभास देते रहे मगर पता नहीं कब वो राष्ट्रीय नेतृत्व का ही हिस्सा बन गए, पता ही नहीं चला. कम-से-कम उनकी आकांक्षा स्थानीयता तो कभी नहीं रही. शायद उनका सपना खुद की स्थानीयता को राष्ट्रीयता में विलय करना रहा हो.
(Column by Batrohi)
आजादी के बाद का परिदृश्य तो भयावह है. किसी भी क्षेत्र में ऐसा व्यक्ति सामने नहीं आया जो आम जन की आकांक्षाओं को अपनी जड़ों के साथ जोड़ते हुए राष्ट्रीय नेतृत्व पर दबाव डालने की भूमिका निभा सका हो. क्या यह सही नहीं है कि सभी क्षेत्रों में उभरे नायक राष्ट्रीय नायकों के पिछलग्गू बने रहे. कम-से-कम ऐसा व्यक्ति तो कोई नहीं उभरा जिसने अपनी स्थानीयता के मूल्यों के सामने राष्ट्र-स्तरीय नेतृत्व को झुकने के लिए मजबूर किया हो.
यदा-कदा कुछ नाम जरूर उभरे, मगर सभी ने बिना किसी अपवाद के अपना पाला बदला और बिना राष्ट्रीय बैसाखी के अपनी रीढ़ सीधी रखने की कूबत नहीं पाई. कहने के लिए पर्यावरण, शिक्षा, राजनीति के क्षेत्र में छुटपुट चिंगारियों की तरह लोग सामने आये भी, मगर कितने लोग अपना अस्तित्व बचाए रख पाए?
आजादी के आसपास पैदा हुई पीढ़ी में से तो कोई भी व्यक्ति ऐसा उदाहरण सामने नहीं रख पाया जिसमें नेतृत्व-जनित गंभीरता और शालीनता दिखाई दी हो. स्वाभाविक था कि इन लोगों की अगली पीढ़ी खलनायकों के रूप में उभरती. पुराने मूल्यों के दरकने की परिणति उनके खंड-खंड होने के के रूप में सामने आना ही हो सकता था और जाहिर है वही होकर रहा.
दरारें तो धीमी गति से पड़ती हैं, भू-स्खलन और ज्वालामुखी के विस्फोटों में कोई वक़्त नहीं लगता. खलनायकों का जो सिलसिला सामने आया, मैं इसे मूल्यों का पतन नहीं कहूँगा क्योंकि कोई जरूरी नहीं है कि जो बीत गया है वह मूल्यहीन और नया मूल्यवान ही हो मगर मूल्य की सार्थकता आदमी और प्रकृति के अस्तित्व की सुरक्षा के आधार पर ही तो निर्धारित होगी.
(Column by Batrohi)
क्या खलनायकों का यह दौर ऐसे ही आगे बढ़ता रहेगा और अगले दौर के खलनायक इसी तरह रक्तबीजी आकार में बढ़ते रहेंगे? जिन आभासी नायकों का मैंने शुरू में जिक्र किया, क्या हमारे भावी खलनायक उनके उलट होंगे या उनका विस्तार? कैसे होंगे हमारे आभासी खलनायक?
आजादी की चौहत्तरवीं वर्षगाँठ के इस आभासी मंच पर हम आज नहीं सोचेंगे तो कब सोचेंगे? कैसा होगा वह समाज जिसे हमारे खलनायक संचालित करेंगे.
काश! हम अनुमान लगा सकते!
(Column by Batrohi)
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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