उत्तराखंड में वर्ष 2019 को रोजगार वर्ष के रूप में मनाने की राज्य सरकार ने घोषणा की है. ‘रोजगार वर्ष’ – नाम से तो ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराखंड में साल भर नौकरियों की बरसात होने वाली है. लेकिन यथार्थ के धरातल पर देखें तो नयी नौकरियों के सृजन की बात छोड़ दीजिये, पहले से रिक्त पदों के भरने की प्रक्रिया में जो ढिलाई है, उससे रोजगार वर्ष के दावे की कलई खुद ही खुल जाती है. Article by Indresh Maikhuri
रोजगार वर्ष में रिक्त पदों को भरने के प्रति सरकारी गंभीरता की बानगी देखिये. 18 सितंबर 2019 को संयुक्त सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, प्रमुख सचिव, प्रभारी सचिवों को पत्र भेज कर कहा कि उत्तराखंड में पी.सी.एस. से लेकर जे.ई तक के पदों के लिए जो अधियाचन लोकसेवा आयोग को भेजे जाने हैं, उन पदों पर नए रोस्टर के अनुसार रिक्ततियों का ब्यौरा कार्मिक विभाग को भेजा जाये ताकि लोकसेवा आयोग को भेज कर इन पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू हो सके. काम इसमें कुल जमा इतना था कि आर्थिक रूप से कमजोर
वर्ग वाला 10 प्रतिशत आरक्षण, पूर्व के ब्यौरे में लगा कर भेज देना था.
लेकिन इतना मामूली काम भी सामान्य गति से कर दिया तो वह सरकारी विभाग काहे बात का ! तो दो महीने बाद 7 नवंबर 2019 को पुनः अपर सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के आला अफसरों को पत्र भेज कर पुरानी चिट्ठी की याद दिलाते हुए लिखा कि अधिकांश विभागों ने अधियाचन नहीं भेजे हैं. इतना सा काम यदि दो महीने तक भी नहीं होता है तो यह प्रशासनिक दक्षता कहा जाएगा या प्रशासनिक अक्षमता?
रोजगार वर्ष में रोजगार देने के प्रति यह सचिवालय में बैठे हुए आला अफसरों की गंभीरता का नमूना है कि वे रिक्त पदों का ब्यौरा तक देने को तैयार नहीं हैं. इसका एक पहलू यह भी है कि जिस सचिवालय में एक सरकारी विभाग, दूसरे सरकारी विभाग की चिट्ठी पर कान नहीं देता, वहाँ आम जन की बात सुने जाने की आस भी कैसे की जा सकती है.
हालत यह है कि राज्य में पी.सी.एस. के रिक्त पदों हेतु विज्ञापन निकले हुए भी दो साल से अधिक होने को हैं. जो युवा राज्य में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, इस तरह की हीलाहवाली से सिविल सेवा के पदों पर बैठे हुए अफ़सरान ही उनके भविष्य के साथ खुला खिलवाड़ कर रहे हैं. प्रश्न यह भी है कि जब बरसों-बरस न भर्ती परीक्षा होनी है, न उनका विज्ञापन निकलना है तो राज्य में लोक सेवा आयोग, अधीनस्थ सेवा चयन आयोग जैसे आयोगों का औचित्य क्या रह जाएगा? क्या वे सिर्फ सत्ताधीशों द्वारा अपने चहेतों को रेवड़ियाँ बांटने के लिए हैं?
अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक राज्य में 24 हजार से अधिक सरकारी पद रिक्त होने तथा उन पर भर्ती न होने पर मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने हैरानी जताई है. हालांकि अखबार की ही खबर कहती है कि मुख्यमंत्री 29 नवंबर को दूसरी बार सचिवों और भर्ती आयोगों के अधिकारियों के साथ रिक्त पदों पर भर्ती प्रक्रिया की समीक्षा कर रहे थे. मुख्यमंत्री की समीक्षा और नाराजगी के बावजूद भी यदि रिक्त पदों पर भर्ती की प्रक्रिया गति नहीं पकड़ रही है तो फिर राज्य के बेरोजगारों के भविष्य के साथ किए जा रहे खिलवाड़ को कौन रोकेगा ?
उत्तराखंड सरकार द्वारा तैयार कारवाई गयी मानव संसाधन विकास रिपोर्ट कहती है कि राज्य में माध्यमिक स्तर से ऊपर के पढे लिखे युवाओं में बेरोजगारी की दर 2004-05 में 9.8 प्रतिशत थी और 2017 में यह दर बढ़ कर 17.4 प्रतिशत हो गयी. उत्तराखंड राज्य निर्माण के आंदोलन में रोजगार का सवाल एक अहम सवाल था पर हजारों की तादाद में रिक्त पद और बढ़ती बेरोजगारी की दर तो यही इंगित कर रहे हैं कि राज्य निर्माण के उद्देश्यों पर नेताओं-नौकरशाहों के गठजोड़ द्वारा पलीता लगाया जा चुका है. Article by Indresh Maikhuri
(इन्द्रेश मैखुरी की फेसबुक वॉल से साभार)
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