विवाह एक उत्सव है. विवाह एक परम्परा, एक संस्कार है. उच्च हिमालय के रहवासी शौका समाज या जोहारी समाज की शुभ विवाह की कुछ यादें भूली-विसरी स्मृतियों से. (Wedding Customs and Traditions in the Himalayan Regions)
बात 1980 से 1995 के दौर की है. तब अधिकतर ग्रामीण इलाकों में सड़क मार्ग का अभाव था. बारात एक गाँव से दूसरे गाँव तक पैदल संकरी पहाड़ी पगडंडियों से ही जाया करती थी. कभी-कभी यह दूरी सात-आठ किलोमीटर या उससे ज्यादा भी हुआ करती थी.
दूल्हे, पण्डित और बुजुर्ग बारातियों के लिए घोड़े-खच्चर की व्यवस्था की जाती थी जबकि दुल्हन के लिये डोली व कहारों का बंदोबस्त हुआ करता था. पतले संकरे रास्तों में कई दफा दुल्हन को पीठ पर लादकर भी लाया जाता था, उस दौर में विवाह की उम्र में भी उतनी पाबंदियां नहीं थीं.
तब रास्ते में पड़ने वाले गाँवों से गुजरती बारात का मुख्य आकर्षण दूल्हा ओर बाजे वाले हुआ करते थे. जिनको देखने हम भी अगल-बगल के गाँवों में धमक जाते थे. हमारे गाँव की ऊपरी छोर में ग्राम सुरिंग आता है, जो मर्तोलिया लोगो का गाँव है. पहले इसी गाँव के बाएं छोर पर एसपीएफ की छावनी हुआ करती थी. वहीं से हमारे पड़ोसी व दूर-दराज के गांव सिन्नर, पयंगती, धापा, क्वीरी, जिमी, साई, पोलू जाने का मार्ग है. हमारे बचपन में इस मार्ग से अनगिनत बारातें गुजरा करती थीं. हमारी माताजी, दादी जानकारी दिया करतीं थी— कि आज फलाने की शादी है. इस शादी में बढ़ढ़ गार के ढोली है या पुंगरु के ढोली है क्योंकि अलग अलग घाटी नगर जोहार के ढोली बाजों की चाल अलग-अलग तरह से बजाते हैं. बारात में शामिल ढोली जैसे ही किसी गाँव की सीमा में प्रवेश करते हैं अपनी आमद की सूचना देने के लिए 12 धुनों में एक अलग प्रकार की धुन अपने बाध्य यंत्रों से बजाते हैं. जिसे सुनकर दूर-दूर तक के ग्रामीण बच्चे महिलाएं, सयाने बारात गुजरने वाले मार्ग की ओर आ जाते हैं और बारात में शामिल अपने परिचितों ,रिश्तेदारों के हाल-चाल मालूम कर लेते हैं. वे पैदल व जगली रास्तों से सुरक्षित यात्रा पूर्ण करने के आशीष वचन भी देते हैं. वे युवाओं से विशेष अनृरोध करते हैं कि— जंगल का रास्ता है, खड़ी चट्टानों के बीच से बने रास्तों से गुजरना है इसलिए शराब न पीयें और दूसरे गांवों के लोगों से झगड़ा न करें. गाँव की सीमा से शादी में शामिल यह लोग आँखों से ओझल हो जाने तक बारात को निहारते रहते हैं.
उन दिनों एक ओर परम्परा भी थी, जिसे हमारी भाषा में ‘जान च्योंच’ कहते हैं. इसमें पहाड़ी सिल्दु/फाफर का आता गूंधकर उसे शिवलिंग जैसी आकृति दी जाती है और फिर उसमें दूब घास लगाकर नयी नवेली दुल्हन के सामने रखा जाता है. इन दो आकृतियों, जिनको च्योंच कहते है, को दूल्हा, दुल्हन द्वारा गिराया जाता है और हिमालय के देवी-देवताओ का स्मरण कर अपने शुभ कार्य को सफल बनाने की प्राथना की जाती है. इसका आयोजन दूल्हे पक्ष के ध्यानियों, बुआ, बहनों द्वारा किया जाता है. इसमें ध्यानियों द्वारा अपने आर्थिक स्थिति के अनुरूप सूक्ष्म जलपान की व्यवस्था भी की जाती है. जलपान में भूमला, कुकला, सुख मिट, पकौड़ी आदि के साथ ही सयाने पुरुषों के लिए हिमालय में बनने वाले जौ का बियरनुमा पेय, जिसे क्षेत्रीय भाषा मे जान तथा चयक्ति कहते हैं, की व्यवस्था की जाती है. सूक्ष्म जलपान समापन पर दूल्हे पक्ष के लोग आयोजक ध्यानियों को भेंट स्वरूप रुपये या अन्य उपहार देते हैं.
फिर देव मायके के ढोली को भेंट स्वरूप दक्षिणा रुपया देकर देव आह्वान मायके के भगवती का स्मरण कर छलिया बाजे में नृत्य करते हुए बारात अपने गंतब्य को प्रस्थान करती है. दास, ढोली गंतव्य मार्ग के सभी देवी मंदिर, देव स्थानों पर धन्यवाद व कृतज्ञता प्रकट करने के लिए विशेष धुनें बजाते हैं.
बारात के दौरान कभी एक ही मार्ग से दो विवाह के दूल्हों के विपरीत दिशा में जाते हुए मिलने के दौरान एक-दूसरे से नजर न मिलाने को कहा जाता था.
विवाह शुभ मुहूर्त में बजने वाले बाजों की चाल इस तरह होती है:
ब्रह्म मुहूर्त में नोमती देव आह्वान.
दूल्हे के हाथ कंगन, हल्दी रस्म चावल पोड़ना, बिदाई के समय मेंबजायी जाने वाले आरती, जिसे क्षेत्रीय भाषा मे बर्रे कहते हैं.
बारात प्रस्थान की ख़ुशी के मौके में नृत्य वादन के लिए नचो बाज बजाया जाता है.
खुले मैदान में क्षणिक विश्राम के बाद छल्यो काटा जाता है, जिसमें क्षत्रिय नृत्य, रणभेरी युद्ध नृत्य किया जाता है.
वीरान जगह में तेज चाल चलने के लिये हिटो बाज बजाया जाता है, जिसे सुनकर बाराती व दूल्हा तेज चाल चलते हैं और दूरी को कम समय में तय किया जाता है. उस जमाने मे लग्न घड़ी को काफी महत्व दिया जाता था जो अब सिर्फ औपचारिकता भर रह गयी है.
किसी अन्य ग्राम या दुल्हन के गाँव में प्रवेश करने पर अलग बाजा बजाया जाता है जिसमें बारात के नजदीक पहुँचने की सूचना छिपी होती है.
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विवाह की रस्में
बारात के दुल्हन के घर पहुँचने पर स्वागत जलपान के साथ दोनों क्षो के बाजे वाले कलादक्षता का भाव दिखाते हैं. इस दौरान डूनब्योल, मायके पक्ष का बच्चा दुल्हा जो अक्सर दुल्हन का छोटा भाई होता है, तथा दूल्हे की छतरी की अदली-बदली करने की प्रथा थी जो अब शहरों में आयोजित विवाहों से विलुप्त हो रही है.
बारात के शुरुआती दिनों से ही हर एक कार्य में परिवार, गाँव के हर सदस्य की भूमिका रहती है. चाहे वह खाने-पीने की व्यवस्था हो या तंबू-शामियाना लगाना. बारातियों की रहने, सोने की व्यवस्था के लिए धान, व गेंहू की पराली व उपलब्ध संसाधनों से काम चलाया जाता था. तब आज के तरह उतने घर या होटल आदि नहीं होते थे, गांव-घरों के लोग शादी में आये परिचितों, रिश्तेदारों को अपने घर ले जाते थे.
अगले दिन तड़के दुल्हन को जलदेवी की पूजा अर्चना हेतु जलश्रोत ले जाते हैं.
ग्रामीण जीवन मे स्नान-ध्यान के बाद ही अन्य दैनिक दिनचर्या का कार्य किया जाता है
विवाह संपन्न होने के दूसरे दिवस में दुल्हन दुंगौन/पगफेरा जाती है. पुराने समय में पगफेरा में पति नहीं जाया करते थे. तब दुल्हन के साथ देवर या देवर के न होने पर घर के काश्तकार या शिल्पकार के साथ जाने की परम्परा थी जो अब नही रही. अब दूल्हा, उसके मित्र, भतीजे, महिलाएं तक जाने लगे हैं.
इस तरह ग्रामीण जीवन मे विवाह एक ऐसा उत्सव हुआ करता है जिसमें पांच-छह दिन काफी व्यस्तता व आमोद-प्रमोद का माहौल बना रहता है.
कुछ अन्य परम्परायें अभी भी प्रचलित हैं:
ध्यानी, बहनें, बुआ दूल्हे के प्रतिभोज के लिये मांसाहारी व्यंजनों हेतु एक या दो भेड़-बकरी उपहार स्वरूप देती हैं.
दूल्हे पक्ष के लोग दुल्हन पक्ष के ईष्ट देव व ध्यानियों को दक्षिणा भेंट व नारियल देते हैं.
विवाह यात्रा के दौरान किसी भी नाले नदी पुल को पार करते समय चाँवल, मांस, जयूनाल दूल्हा-दुल्हन के सिर पर घुमाये जाते हैं जिससे गलत नजर से उनकी रक्षा हो.
दौरान-ए शुभ कार्य कोई अशुभ घटना न हो इस आशय इष्टदेव ध्यान किया जाता है.
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जोहार घाटी में मिलम के करीबी गांव जलथ के रहने वाले प्रयाग सिंह रावत वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार में सेवारत हैं. हिमालय और प्रकृति के प्रेमी प्रयाग उत्तराखण्ड के उत्पादों और पर्यटन को बढ़ावा देने के कई उपक्रमों के सहयोगी हैं.
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