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अम्मा और शीला के बेटे के जन्मदिन का केक

इस बार कई सालों बाद गाँव जाना हुआ कुछ अलग नहीं लगा, वही जैसा 3 साल पहले देखा था वैसा ही. बस जो एक पुल था उसकी बाउंड्री पर लगे पाइप टूट के बाहर लटक रहे थे और घर को जाता खड़नचा नया पड़ा था. इसके अलावा सब वैसा ही था, यह दर्शाता है हमारे गांव तेजी से रेंगते विकास को, जो औंधे मुंह गिरा पड़ा है. गांव में अपने घर पर पहुंचा तो जैसा सोचा था वैसा ही मिला, घर पर कोई नहीं था. जनाब जिसे मैं घर कहता हूँ वह घर नहीं पूरा मोहल्ला है. दिल्ली में माचिस के डब्बे जैसे घर, जिन्हें फ्लैट कहते है, वैसे 4 तो आ ही जाएंगे. इसके अलावा गाय, भैंस और बैल की पार्किंग के लिए गोठ अलग से. उसके बाद आंगन इतना बड़ा कि कबड्डी का खेल तो हो ही जाएगा, ऊपर से खेल देखने के लिए आए लोगों के बैठने के लिए भिड़ भी बना है. यही सब सोच रहा था खड़े होकर तभी अम्मा आ गई. कमर थोड़ी झुक गई है अब पर स्वाभिमान नहीं. अभी भी अकेले रहती है खुद के बनाए हुए इतने बड़े घर में.

मुझे देखते ही कहा “आज्ञे हे ईजा, तेरी बल्या लयुं ” मैंने पैरों में झुककर प्रणाम किया और कहा “अम्मा पेलाग.”

” जियू जाग इज्जा बची रीए ” कहकर उन्होंने गले से लगा के मुझे अपने सीने से दबा लिया और रोने लगी. ये आंसू किसी गम या खुशी के नहीं थे, ये आंसू थे इस बदलते जमाने के लिए, जिसने हमें ऐसी जगह खड़ा कर दिया है. जो जगह हमारे नौजवानों को संभालनी थी वो अभी भी हमारे बुजुर्गो को संभालनी पड़ रही है, अब कांपते हुए कंधे कब तक यह बोझ झेल पाएंगे देखने और समझने वाली बात है. 

अम्मा अब अकेले नहीं रहती अब वो चाची के साथ रहती है क्योंकि चाची के बच्चे भी बाहर हैं और वे भी अकेले रहती हैं, तो दोनों एक दूसरे का सहारा बन के जिंदगी काट रहे है.

रात का खाना खाने के बाद अम्मा से गप्प मारने लगे तो अम्मा वहां के किस्से सुनाने लगी, कुछ चीजें काफी हैरान करने वाली थी. मालूम पड़ा अब हल जोतने वाले नहीं मिल रहे, सबने अपने बैल बेच दिए. खेत बंजर पड़े है कोई कमाने वाला ही नहीं है. विद्यालयों की हालत ख़स्ता है, सभी विषयों के मास्टर ही नही है. जो मास्टर हैं भी वे बेमन से अपने दिन काट रहे हैं और ट्रांसफर का इन्तजार कर रहे हैं.

बच्चों के भविष्य की खातिर ज्यादातर लोगों ने अपने बच्चे बाहर ही भेज दिए हैं. जो बच्चे यहां बचे हैं भी उनको भविष्य का मार्गदर्शन देने वाला कोई नहीं है. वे बस किसी तरह 12वीं पास होने का इन्तजार कर रहे हैं. उसके बाद फ़ौज के लिए दौड़ेंगे वर्ना दिल्ली जाकर किसी होटल में काम करेंगे.

गाँव में जो नौजवान हैं उन्हें शाम होते ही दारू की सुरबराट लग जाती है. जो दिन भर कमाया उसे पानी में मिलाकर पी जाते है.

अम्मा ने बताया कि पिछले महीने टिल्लू की ब्वारी घास काटने जंगल गई थी. वहां उसका पैर फिसल गया और पैर की हड्डी टूट गयी. गाँव के लोग डोली में बिठाकर किसी तरह रोड तक ले गये और वहां से बस में बिठाकर अस्पताल.

अम्मा ने एक लंबी सांस भरी ओर बोली की बेटा ह्मारा को आखरी समय चल रहा है अब बस मौत का इन्तजार है. पर चिंता लगती है आने वाले भविष्य का सोच कर. हमारे पुरखों की ज़मीन सब बेकार हो रही है.

मैं उनकी आँखो में बंज़र पहाड़ का खौफनाक दृश्य देख पा रहा था. मेंरे पास इन बातों का कोई जवाब नही था. मैं चुप रहा. कमरे में अजीब सा सन्नाटा पसर गया. लोग सरकार को इसका जिम्मेदार मानते हैं. पर किसी भी सरकार को चलाने के लिए राजस्व का स्रोत होना ज़रूरी है, जिसकी हमारे प्रदेश में कमी है. चाहे रोड हो, अस्पताल हो या स्कूल, यहां जो भी चीज़ बनती है उसकी लागत भी ज़्यादा है और देख-रेख का खर्च भी. तो सरकार के पास आमदनी कम और खर्च ज़्यादा है. सोने पे सुहागा तो तब हो जाता है जब हर साल प्राकृतिक आपदाओं से राज्य को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.

तो ये तो पक्का है की यहां जो भी होगा बहुत धीमी गति से होगा. सरकार अपना काम कर रही है और अगर उसमें हमें कुछ ग़लत लगता है तो हमारे पास उसे बदलने के लिए वोट की ताक़त है. लेकिन एक आम नागरिक होने के नाते हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारियां होनी चाहिए.

एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते कोई क्या कर सकता है? मेंरे ख्याल से बहुत नहीं तो कुछ तो हम कर ही सकते हैं. जितना हो सके छुट्टियों पर गाँव जाया जाए. अपने गाँव के स्कूल के बच्चों के लिए बुक्स, स्टेशनरी और खेलने का सामान ले जाया जाए. अगर हो सके तो स्कूल को कंप्यूटर और फर्नीचर का दान दिया जाए. स्कूल में बच्चों से मिल कर उनसे बात की जाए. गाँव के पास कोई एन. जी. ओ. सक्रिय रूप से काम कर रहा है तो उसकी मदद की जाए. दोस्तों के साथ घूमने का प्लान हो तो उत्तराखंड के ही किसी पर्यटक स्थल को चुना जाये.

मैं ये सब सोच ही रहा था की अम्मा ने कहा “आ पोथि आज शीला च्योल्क जनमदिन हु हिट केक खाभे आले”, मैं भी चल दिया अम्मा के साथ. वहा सब आपस में बात करके हंस रहे थे कि ब्वारी अपने लड़के का केक डलिया में रख कर घर तक लाई. उस मज़ाक में मैं भी शामिल हो गया.

मुझे खुशी थी की आज घर की दहलीज तक केक आया है कल ट्रेन भी आयेगी. समय लगेगा पर होगा ज़रूर और ये संभव है आपके, हमारे, हम-सबके सहयोग से. 

मूल रूप से बागेश्वर के रहने वाले आशीष भंडारी फिलहाल गाजियाबाद में रहते हैं.

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Sudhir Kumar

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