पहाड़ जाना उन दिनों सबसे प्रिय दिनों में होता था. कब स्कूली छुट्टियां मिले कब गांव जायें, यह बहुत बड़ा मन में प्रश्न होता था. गांव जाना सब कुछ था उस वक़्त मेरे लिए और सबसे खुशियों का पल भी. प्राइमरी पाठशाला खिरमाण्डे, गंगोलीहाट के वे दिन कभी भूले नहीं भूल सकता जहां से मैंने कक्षा एक से पांचवी तक की पढाई पूरी की थी. उस वर्ष बोर्ड था पांचवी का, नान दाजू अपनी छुट्टियों में घर आये होंगे. बाबूजी ने शायद उनको ही उस दिन खिरमाण्डे बाजार में रहने को कहा होगा, परीक्षा के बीच में ब्रेक भी होता था उस वक़्त में घर के लोग अपने-अपने पांचवी के बोर्ड परीक्षाथियों को जलपान करवाने स्कूल के आस पास ही थे.
(Village Memoir by Mohan Joshi)
खिरमाण्डे के उस स्कूल में पांचवी परीक्षा पास करने के बाद बाबूजी ने दीदी के पास गाजियाबाद भेज दिया. मई में छुट्टियाँ होते ही गांव की ओर आना बहुत बड़ा उत्सव ही तो था मेरे लिए. कश्मीरी गेट बस अड्डा खचाखच भरा रहता था. दिल्ली से हल्द्वानी को उत्तर प्रदेश रोडवेज की बसें चला करती थी. चंपक, बाल हँस, नंदन, चंदामामा जैसे खजानों से मेरा हाथ भरा रखता था. रात का सफ़र अंधेरों में पार कर पंहुच जाते थे हल्द्वानी और केमू स्टेशन से मिलती थी मिर्थी, धारचूला, बेरीनाग वाली केमू की गोल मटोल छोटी-छोटी बसें.
लाइन लगा टिकट मिलता था केमू के स्टेशन के कार्यालय से, कार्यालय भी लम्बे-लम्बे तख्तों से पटा होता था. सीट नंबर के साथ टिकेट मिल गया तो सन्तुष्टि हो जाती थी चलो गन्तव्य स्टेशन तक का टेंशन खत्म हुई. हल्द्वानी से चलकर काठगोदाम से ऊपर चढ़ते की केमू हांफना शुरू कर देती थी. केमू की आफत तो ड्राईवर दाज्जू जानते होंगे पर हमारा सफ़र तो बहुत ही मनोरम होने लगता था.
काठगोदाम के आगे केमू में दिखते ऊंचे-ऊंचे गगनचुंबी मुकुट से पहाड़ रोमांच पैदा कर देते थे. डीजल की गाड़ी का सफ़र बहुत से यात्रियों को सताने लगता था. उल्टियों का दौर भी दोगाव, महरा गांव तक आते-आते बहुत सताने लगता था सिबो! सबसे ज्यादा स्त्रियाँ और छोटे बच्चे उल्टियों से पस्त हो जाते थे. कई बार तो ड्राईवर को गाड़ी रोकने का अनुरोध होने पर गाड़ी साइड लगानी पड़ती थी. द… वे रे रमुली आज बच जुल तो फिर कभे नि मरनी बोलती आमा, आब कभे खुट भैर नि निकालू घर भे बोल सर पकड़ उवाक-उवाक शुरू हो जाती.
(Village Memoir by Mohan Joshi)
ड्राईवर कंडक्टर सैब जगह-जगह होटल आते ही मजे से चाय पकोड़ी का आनंद लेते रहते पर उल्टी वालों की दशा बहुत दयनीय हुई रहती. केमू तब आगे बोनेट वाली हुआ करती थी. पांच लीटर सरसों के खाली डिब्बा ड्राईवर सैब साथ ही रखते जहां पानी का धारा देखा गाड़ी रोक पानी डालने को रुक जाते. जैसे-तैसे गाड़ी माँठू-माँठू आगे बढती धारानौला पहुचती.
अल्मोड़ी बाल की खुशबू से नथुने भी खिल उठते. अलसाये लोग भी उठ-उठ अल्मोड़ी सौगात लेने फटाफट बाहर निकल आते, लाल डिब्बा आज भी वैसे ही आखों के सामने आ जाता जब-जब अल्मोड़ा याद आता. खैर सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की जितनी तारीफ़ हो कम ही होगी. केमू माठू-माठ, पौं-पौं हौरन देती अल्मोड़ा से आगे बड़ गाड़ी फल्सीमा, चितई गोलज्यू मंदिर होते हुये पेटशाल से एक और चढ़ाई की शुरुआत करती और केमू बेहिसाब धुँआ छोड़ती, बाड़ेछीना तक पहुंचती-पहुंचती हाफ़ने लगती.
सड़क किनारे सफ़ेद टोपी कुर्ता पैजामा पहने लोग चलते-मिलते रहते. कहीं ग्वाले भी दिखते जो पहले तो बस को निहारते रहते, बस के पास आते ही नीचे-ऊपर नजरें कर लेते. ड्राईवर दाज्यू की छवि कभी भूलने वाली नहीं ठैरि बाबा रे. कितना परिश्रम करना पड़ता था जब मोड़ आते थे. मोड़ों पर गाड़ी का स्टेरिंग घुमाते-घुमाते वो खुद घूम सा जाते थे बैठे-बैठे.
बाड़ेछीना से रोड पनुवानौला, दन्या होते हुए पनार सरयू तट तक एक शानदार रोड का सफ़र यहीं से शुरू होता था. पर हमारा रास्ता धौलछीना होते हुए आगे बढता था. जैसे-तैसे गाड़ी धौलछीना पहुंच ही गई. कंडक्टर सैब ऐलान कर देते- दिन का भोजन पानी कर लो आगे कहीं नहीं कुछ भी सेराघाट से पहले. पहाड़ी घी से भरपूर दाल-भात की गारंटी वाले होटल बड़े याद रहते हैं. जहां संतुष्टि से खाने का आनंद ही अलग था.
(Village Memoir by Mohan Joshi)
होटल वाले एक पुराने से घी के डिब्बे में रखे घी-दाल में दाल जाते थे. पंचामित्र जैसा, कुछ-कुछ ख्व्व्ये होटल वाले से दो बार भी घी डालने की दरख्वास्त कर ही देते थे और दुखी मन से दांत दिखता हो हो… कर हंसते हुए एक दो चम्मच और छिड़क ही जाता. फुल प्लेट की जगह हाफ वाले ज्यादा दिखते थे ग्राहक. खाना पीना खा सौंप-सुपारी का पान कर ड्राईवर, कंडक्टर सैब भी अपनी सीट पर आकर यात्रियों को गिनती कर आगे की और बढते थे. आखिरी बार जरुर हिदायत देते अपने अगल-बगल वाले देख लेना कहीं कोई यहीं न रह जाय और मिश्री सौप का स्वाद ले बस दरवाजे की कुंडी लगा, सिग्नल देते चलो हो. कान मे लगा पैन निकाल टिकटों का जोड़ घटा शुरू कर लेते.
सेराघाट भी आ गया गाड़ी वहां कम रूकती थी तब. सरयू का मोटर पुल और कलकल बहती नदी का पानी तन-मन को शांत कर देता था. सरयू का शांत बहता पानी और लम्बा चौड़ा बगड़ गोल-मटोल गंगलोड़ से पटा रहता. फिर आता था गोनियागाड़ गणाई और हमारा स्टेशन तपोवन.
तपोवन के भट्टज्यू की दुकान की चाय पीकर थकान मिट ही जाती थी. बस से उतरने पर लगता जैसे अभी भी बस में ही हिचकोले खा रहे हों. सुनसान तपोवन में कान सुन्न से पड़ जाते. भट्टज्यू की दुकान से पैदल सफ़र कूलर नदी-नदी होते हुये बहुत सारे गावों को पार कर रात को अपने घर पहुंचते थककर चूर शरीर बस सो जाने को मन करता.
(Village Memoir by Mohan Joshi)
रास्ते भर लोग मिलते, आशीष कुशल लेते. उम्र में छोटा होने पर भी ठाकुर लोग मेरे को ब्राह्मण का बेटा हैं जान पैलाग कह देते तो मैं झेप कर दोनों हाथ जोड़ देता. घर पहुंच ईजा बाबू बड़ी बेसब्री से हमारा इन्तजार करते थे. ईजा सबसे पहले मिलती थी पाँव छूते ही पूरे सिर की मलासने लगती थी. बाबूजी सदा की तरहा बाहर वाले अपने कमरे में चारपाई में बैठे मिलते थे.
कुशल बात पूछने ईजा साथ बैठती तो बाबूजी साथ साथ ईजा को डाँटते, थककर आया है चाय दे इसे ईजा झटपट जाती खाना गरम करने और मैं ईजा के साथ रिस्यान में बैठ खाना खाते-खाते बहुत सारी बातें कर लेता. बाबूजी ज्यादा बातें नहीं करते थे, मैं बचपन से ही ईजा से ज्यादा घुले मिला रहता था सारे रस्ते भर की बातें साल भर की बातें उसी रात बताने को बेकरार रहता. और ईजा भी बड़े चाँव से मेरी बातें सुनती. खैर वो समय भी समय था आज बस यादों का पुलिंदा मात्र मेरे पास…
(Village Memoir by Mohan Joshi)
मदन मोहन जोशी “शैल शिखर”
मूलरूप से गंगोलीहाट के रहने मदन मोहन जोशी वर्तमान में बदरपुर, नई दिल्ली रहते हैं. मदन मोहन जोशी से उनके नम्बर 9990993069 पर संपर्क किया जा सकता है.
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बचपन की यादें ताजा कर दी आंखों को गीला कर दिया
मैं पहाड़ी नहीं हूं फिर भी पहाड़ और पहाड़ी संस्कृति से लगाव अप्रतिम है। पहाड़ जब भी बुलाते हैं भाग जाता हूं उनके पास । काफल ट्री पर रचनाएं बहुत उम्दा और हृदयस्पर्शी हैं।