दिनांक 29 सितंबर 23 को राष्ट्रीय दृष्टि बाधित संस्थान देहरादून में विद्यासागर नौटियाल पुरस्कार सम्मान समारोह का आयोजन किया गया. यह कार्यक्रम सेव हिमालय मुवमेंट और संवेदना ग्रुप देहरादून के संयुक्त प्रयास से संभव हुआ. (Vidyasagar Nautiyal Award Ceremony)
इस बार यह पुरस्कार साहित्य के अतिरिक्त समाजिक कार्य के क्षेत्र में श्रीनगर के सामाजिक कार्यकर्ता अनिल स्वामी थपलियाल को दिया गया. साहित्य के लिए यह पुरस्कार गंभीर और जनपक्ष में लिखे गए सामाजिक, राजनीतिक पुस्तकों व भाषा पर आधारित शोध आदि पर देहरादून में रहने वाले शोभा राम शर्मा को प्रदान किया गया.
इस दौरान उनकी कुछ रचनाओं पर चंद्रकला की टिप्पणी
मंच पर आसीन विद्वतजनों एवं सभा में उपस्थित आदरणीयों का मैं अभिवादन करती हूं. विद्यासागर नौटियाल पुरस्कार से संबधित इस कार्यक्रम में मेरी उपस्थिति सुनिश्चित होने पर मैं इसलिए खुशी व्यक्त कर रही हूं कि उत्तराखंड में समांतशाही की खिलाफत करने वाले और जनांदोलनों को अपनी धार देने वाले विद्यासागर नौटियाल के लेखन ने मुझे बहुत प्रभावित किया और टिहरी गढ़वाल के साथ ही उत्तराखंड को कई आयामों से देखने की नज़र प्रदान की. और मैं जब शोभाराम जी के लेखन से रुबरु हुई तो उनकी लेखनी ने मुझे जन की आवाज़ को समाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर भिन्न नजरिए से पहचानने का सलीका दिया. विशेषकर उत्तराखंडी समाज के दलितों, जनजातियों व स्त्रियों की आवाज़ को.
मैंने वर्षों पूर्व उनकी पुस्तक” क्रांतिदूत चेग्वेरा” पढ़ी थी जो एक राजनीतिक कार्यकर्ता के बतौर मुझे अच्छी लगी थी. उनके द्वारा चीनी क्रांति का वहां के समाज पर और उनके जीवन में हो रहे वैचारिक और वस्तुगत प्रभाव आदि पर आधारित उपन्यास हरिकेन का हिंदी अनुवाद “अंधड़” से भी मेरा बहुत नजदीक वास्ता रहा.
लेकिन एक सचेत पाठक के बतौर मैं शोभा राम के लेखन से 2022 में आए उनके उपन्यास “काली वार काली पार” पढ़ते हुए ही परिचित हो पाई. इस पुस्तक को पढ़ते हुए ही मुझे गहराई से उनकी जनप्रतिबद्धता और राजनीतिक पक्षधरता को समझने का अवसर मिला. बहुत ही कम संख्या में बच गई उत्तराखंड की राजी जनजाति के इतिहास, भूगोल, अतीत-वर्तमान, भाषा, परंपराओं को भी मैंने इस पुस्तक से कुछ हद तक समझा. इसके साथ ही उत्तराखंड की राजी जनजाति की नेपाली समाज से जो पारिवारिक घनिष्ठता है उसकी जानकारी भी मिली. लेखक द्वारा तत्कालीन नेपाली क्रांति में जनभागीदारी और इसकी रोशनी में भारत और नेपाल के एकता और संघर्ष के बिंदुओं के बारीक अध्ययन की मैं कायल हुई. शोभाराम जी द्वारा इस उपन्यास में किया गया बारीक विश्लेषण उन्हें मेरी नज़र में तमाम साहित्यकारों में अलग स्थान प्रदान करता है. उनकी लेखकीय जनपक्षधरता में दुनिया के क्लासकीय साहित्य का प्रभाव दिखता है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी सत्ता से टकराता है और जनता के बुनियादी हकों और उनकी आवाज़ के विरुद्ध किसी प्रकार का समझौता नहीं करता है. अभी तक कितना उनके द्वारा लिखा गया वह कम और देर से ही समाज के सामने आ पाया है. मंचीय चकाचौंध से दूर यह लेखक एक प्रतिबद्ध सिपाही के रूप में अपने कर्म में तत्परता से लगे रहे यही उनकी खासियत भी कही जा सकती है.
मुझे यहां यह कहते हुए भी किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि शोभाराम के लेखन की बेबाक राजनीतिक प्रतिबद्धता एवं शोषित वंचितों की आवाज बनी उनकी लेखनी की तीखी धार के कारण ही संभवत उनको उत्तराखंड के साहित्य जगत ने वह स्थान नहीं दिया जिसके कि वह योग्य रहे हैं.
अब एक पाठक के रूप में उनके लेखन पर कुछ बोलना चाहती हूं. मैंने उनके लेखन का बहुत छोटा सा हिस्सा पढ़ा है, उस पर ही मैं अपनी बात रखूंगी.
हाल में ही उनकी पुस्तक “अमरीका परदे के पीछे परदे के बाहर” मैंने पढ़ी. यह पुस्तक मुझे इसलिए महत्वपूर्ण लगी कि इसमें अमरीका के 400वर्षों के सफर पर केंद्रित किया है. तमाम उतार-चढ़ावों को प्रदर्शित करती इस पुस्तक में गोरी अंग्रेज जाति के कुकृत्यों का लेखा जोखा भी सरल और सहज भाषा में पाठकों को समझने का प्रयास किया गया है. कोई भी पाठक जिस कि दुनिया जहान को जानने में थोड़ी भी रुचि होगी तो वह इस किताब को पढ़ते हुए समझ सकता है कि चंद ब्रितानी व्यापारियों की अमरीका की खोज के बाद किस तरह अपने बाजार और मुनाफे के लिए वहां के मूल निवासियों को अपना गुलाम बनाया और फिर उनको दोयम पर धकेलकर समस्त संपदा पर कब्जा कर लिया. जब उनकी बाजार की भूख शांत नहीं हुई तो दुनिया के विनाश के हथियारों की प्रतिस्पर्धा में पूरी दुनिया को युद्ध में झोंक देने से परहेज नहीं किया गया. हिरोशिमा, नागासाकी, वियतनाम,क्यूबा अफगानिस्तान, ईराक के आवाम के स्वाभाविक जनजीवन का विनाश कर आज वह महाशक्ति बनकर बाज़ार का नया मुखौटा ओढ़कर पिछड़े मुल्कों की संपदा पर नज़र गड़ाए हुए है. परदे के पीछे और परदे के बाहर अपनी मुनाफे की बढ़ती भूख को शांत करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है यह किसी से छुपा नहीं है. यह पुस्तक पढ़ते हुए दुनिया में युद्धों का कारण तथा विभिन्न राष्ट्रों के आर्थिक राजनीतिक अंतर्विरोधों को काफी हद तक समझा जा सकता है. इसके साथ ही विश्व शक्तियों की आपसी टकराहट और साम्राज्यवादी पूंजी के चरित्र को समझने में भी मदद मिलती है.
पुनः कहूं तो शोभाराम जी के उपन्यास “काली वार काली पार” ने मुझे यह सिखाया कि जनपक्षीय लेखन में जहां विषय का चयन महत्वपूर्ण होता है वहीं कथ्य का कहन तथा भाषा की स्थानीयता और तरलता के साथ ही पात्रों, घटनाएं और संवाद भी पाठक को प्रभावित करते हैं.
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लेखक की कलम विश्वव्यापी है तो स्थानीय जनजीवन पर भी अपनी गहरी पकड़ को बनाए रखती है. इस कलम का केंद्र अधिकांशतः समाज का शोषित, वंचित और सांस्कृतिक तौर पर हाशिए पर धकेल दिया गया उत्पीड़ित तबका ही दिखता है. इसके साथ ही जब उनकी दृष्टि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को देखती है तो वे हुतात्मा महाकाव्य में उनके विद्रोह और साहस की व्यापक गाथा लिखते हैं और जिया रानी जैसी साहसी स्त्री किरदार के इर्द गिर्द उस दौर के व्यापक समाज का चित्र खींचते हुए जियारानी नाटक की रचना करते हैं. स्त्री नायिका को मुख्य भूमिका में रखते हुए लेखक उसके इर्द गिर्द कुमाऊं में चंद राजाओं के समय की सामंतशाही के अत्याचारों और अय्याशी के साथ ही आमजन के उत्पीड़न और उस दौर के सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों को सामने लाने का साहस करते हैं.
उनके कहानी संग्रह “तीले धारो बोला” की जितनी कहानियां मैंने पढ़ी हैं उनके मुख्य पात्र पितृसत्ता, सामंतीसत्ता तथा ब्राह्मणीय सत्ता के भीतर मौजूद क्रूरता और शोषण के विरुद्ध विद्रोह को स्थापित करते दिखते हैं.
तीले धारो बोला कहानी सामंतों के डोला पालकी उठाते मजदूरों का अपनी जान की बाजी लगाकर राजा विरमशाह समेत खाई में कूद जाने और उसके आसपास के तमाम दृश्य भीतर तक उस दौर के विभेदपूर्ण समाज की वास्तविकता को सामने लाती है. डोला पालकी विद्रोह की पृष्ठभूमि से नई पीढ़ी को अवगत करवाती है.
उनकी कहानी ‘रैणीदास का जनेऊ,’ ‘सामान्या ठाकुरो सामान्य साहब’ और ‘स्या स्या’ कहानियों को मैं साहित्य की महत्वपूर्ण कृति मानती हूं. जब उत्तराखंड के अधिकांश विद्वान यहां पर गहरी जड़ें जमाए जाति विभेद, स्त्री उत्पीड़न और कई स्तर के वर्गीय शोषण से आंख मूंद कर उत्तराखंड की संस्कृति का महिमा मंडन करते हैं तब रेणीदास जैसे जातिगत और वर्गीय स्तर पर हाशिए के पात्र ब्रह्मणीय प्रतीक जनेऊ की प्रासंगिकता को नकारकर बेबाकी से अपना प्रतिरोध दर्ज करती है. यह कहानी किसी भी संवेदनशील पाठक को भीतर तक उद्वेलित कर सकती है. ‘सामन्या ठाकुरों सामान्या साहब’ में ठाकुरी दंभ के उस रूप को उजागर किया गया है जो भारतीय समाज की नग्न सच्चाई है. यही वह समाज है जहां दलित स्त्री के शरीर को तो संपत्ति माना जाता है लेकिन उसकी संतान को गाली में तब्दील कर दिया जाता है. इस कहानी में लेखक ने अपनी दलित स्त्री पात्र को वह साहस प्रदान किया कि वह भरी सभा में ठाकुरी दंभ को चुनौती देती है.
“स्या स्या” कहानी की मुख्य पात्र ‘डमसा’ के माध्यम से लेखक जनजातीय समाज, जो अन्य समाजों को अपेक्षा स्त्री स्वतंत्रता का पक्षधर माना जाता है में स्त्री जीवन किस तरह से परंपराओं और रूढ़ियों की मजबूत जकड़नन में रहने को मजबूर है को उजागर किया है.
उत्तराखंड में मौजूद सवर्ण वर्चस्व पर तीव्र व बेबाक प्रश्न करती शोभाराम जी की लेखनी अपने पाठक को पक्ष तय करने और स्त्री उत्पीड़न, जातीय भेदभाव तथा ब्राहमणीय मानसिकता पर आधारित सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और वर्गीय स्वरूप को समझने के लिए प्रेरित करती है.
अंत में एक कार्यकर्ता और पाठक के रूप में मैं यही सोचती हूं कि कोई भी साहित्य जो लिखा गया है, वह भले ही वह साहित्यिक विधा की परंपरागत परिभाषाओं के भीतर समाहित न होता हो. लेकिन कोई भी ईमानदार लेखनी जब शोषित वंचितों के इंसाफ की बात करते हुए अंतिम छोर पर खड़े कर दिए गए इंसानों की आवाज़ को बुलंद करती है और उसको विद्रोह में तब्दील होने की ज़मीन तैयार करती हो तो उससे बेहतरीन कोई भी साहित्य नहीं हो सकता है.
शोभाराम जी ने अपने समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर वास्तविकता को सामने लाने का जो साहस किया है और हाशिए के जन की जो नुमाइंदगी की है वह प्रशंसा की मोहताज नहीं है. उनकी भाषा की सहजता और सरलता भी उम्दा है.
मैं व्यक्तिगत स्तर पर कभी शोभाराम जी से नहीं मिली लेकिन उनके लेखन से जो भी मैंने सीखा समझा उसके लिए मैं उन्हें एक प्रतिबद्ध लेखक और खामोश कार्यकर्ता मानती हुए पाठक के बतौर अपने सलाम करती हूं. (Vidyasagar Nautiyal Award Ceremony)
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : [email protected] +91-7830491584
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