हमारे पहाड़ की एक चीज ऐसी है जिसे पहाड़ी सस्कृति का ही एक अभिन्न अंग कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी और वो है हमारे पहाड़ के फौजी. पहाड़ का शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जिससे एक फौजी न निकला हो. यह तो मानना पड़ेगा कि पहाड़ की पहाड़ जैसी चुनौतियों से टकराकर पहाड़ी आदमी पहाड़ सरीखा ही बन जाता है. आज भले ही यह चलन कम हो गया हो पर कुछ समय पहले तक पहाड़ का हर युवा हाईस्कूल पास करने के बाद फौज के सपने देखने लग जाता था. इसे शुद्ध खानपान का असर कहें या पहाड़ का कठिन जीवन जीकर आयी जीवटता, अधिकांश पहाड़ी लड़के मजबूत शरीर के होते थे. दिन भर कठिन रास्तों पर चलने से, खेत खलिहानो में ईजा-बाबू के साथ काम करने से उनकी भुजाएं बलिष्ठ हो जाया करती थी तो फौज की भर्ती हमारे लोग आसानी से निकाल लिया करते थे तब आज की तरह शराब आदि नशों का प्रचलन भी नहीं था.
(Uttarakhand Soldiers in Army)
फौज में जाने की सबसे बड़ी प्रेरणा तो पहाड़ी युवा को अपने बड़ों को देखकर मिलती थी. किसी के पिता फौजी तो किसी के जेठबाज्यू, किसी के बुबू तो किसी के पड़ोसी. उन सभी से फौज के किस्से वीरता की कहानियां सुनकर बालपन से ही मन में फौज में जाकर देशसेवा का जज्बा पैदा हो जाता था. तब गांव में या फौजी या मास्टर यही बहुतायत में मिलते थे.
जब रानीखेत, अल्मोड़ा या मिर्थी में भर्ती खुलती तो युवाओं का एक हुजूम उस तरफ चल पड़ता था. बकायदा अपने परिचित लड़कों को खबर भिजवा दी जाती कि फलां तारीक भर्ती छ बल दगडै जूल हिटिये.
और यहीं से जब लड़का घर से चलता तो उसका संघर्ष शुरू हो जाता. मान लो मिर्थी में भर्ती रैली है तो उधर जाने वाली गाड़ियों में कोचाकोच हो जाती. लड़के गाड़ी के पाख् में बैठकर भी किसी तरह भर्ती स्थल तक पहुंचने को लालायित रहते. वहां पहुचकर भी न ठौर न ठिकाना. जिसको जहां जगह मिली रुक गया. ये जगह बस स्टेशन, किसी मैदान, पार्क, दुकान के बाहर खुले आकाश के नीचे कहीं भी हो सकती थी. खाना मिला तो खाया नहीं तो भूखे ही सो गये. घर के बने कुछ चांण-चपैण से गुजारा कर लिया.
रात भर के भूखे प्यासे थके थकाए होते थे लड़के. अगले दिन भर्ती की कठिन प्रक्रियाएं होती थी. पर फौज में जाने की लालसा और उमंग इन लड़कों के हौसलों को बड़ा देती और थकान भूख प्यास की क्या मजाल कि इनके इरादों को डिगा दे.
कुछ लड़के भर्ती हो जाते कुछ जो इस बार नहीं निकल पाये अगली बार के लिए यहां से अनुभव बटोरकर कमर कसना शुरू कर देते. जो दौड़ में नहीं निकला वो दौड़ की तैयारी करता. जिसका वजन कम होता वो बजन बढाने की सलाहें लेता, जो दण्ड नहीं पेल पाये वो दण्ड पेलने लगते. इस काम में उनके मार्गदर्शक बनते अड़ोसी-पड़ोसी या परिवार के रिटायर्ड जवान.
जब भर्ती रैली सम्पन्न होती तो पूरे गांव में चर्चा होती कि को-को हैगेईन बल भर्ती… यहां तक कि अड़ोस-पड़ोस के गांव का जो युवा भर्ती होता उसकी भी चर्चा होती. मुझे तो लगता है कि फौज में भर्ती होने पर जितनी चर्चा तब होती थी उतनी आजकल आईएएस बनने पर भी नहीं होती होगी.
परिवारजनों को बधाई मिलती. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता और मां को एक हर्षमिश्रित आशंका भी रहती कि मेर च्योल तदुक कस्ट कसिके करौल. घर बटी दूर न्हैगो…
ईजा का दिल ठहरा उसके लिए तो अपना लड़का हमेशा नानू भौ ही होने वाला ठहरा. जब से लड़के का चयन फौज के लिए होता उसकी प्रार्थनाओं में एक पंक्ति और जुड़ जाती –
हे ईष्टौ… मेर च्यालैकि रक्ष करिया
पिता भी चिन्ता तो करते पर उनको तो पिता की जिम्मेवारियां भी निभानी होती.
कोई भी फौजी जब वापस छुट्टियों में घर आता तो अपने लाडले को फौज की वर्दी में देखकर न केवल परिवार बल्कि पूरा गांव गौरवान्वित होता. उससे फौज के किस्से पूछे जाते, यार-दोस्त आकर हालचाल पूछते.
(Uttarakhand Soldiers in Army)
फौजी जब घर आते थे तो गाड़ी देखकर ही पता लग जाता कि कितने फौजी हैं. कारण बस की छत पर काले रंग से पेन्ट एक टिन् का सन्दूक हर फौजी के साथ होता. पहले होलडोल भी लेकर चलते थे. जब फौजी बक्सा लेकर जिस पर फौजी का नाम, पदनाम और बटालियन का नाम सफेद अक्षरों में अंकित होता था, कन्धे पर रखकर आता तो कुछ पुराने शौकीन लोग मजाक करने लग जाते- यार असल भारि हैरौ शैद, थ्वाड़ दि जाये हां. फौजी भी ऐसे लोगों को निरास नहीं करते. हालांकि ये थ्वाड़ दि जाये वाले तब ज्यादा नहीं थे. इसका चलन न के बराबर था.
कुछ लोग इस चीज को दवाई के लिए भी फौजियों से मांगकर रखा करते थे. बच्चों की मालिस, पानी में डालकर नहलाने के लिए और कुछ प्रसूता महिलाओं के इलाज के लिए ब्रान्डी जिसे बरन्डी कहते थे लोग फौजियों से मांगकर रखते थे. पीने के शौकीन तो कम ही हुए तब.
फौजियों की एक विशेषता होती थी वह गांव आकर भी फौज की ड्यूटी की तरह ही रहा करता था. पुराने समय में मैंने देखा है फौजी पहाड़ के रास्तों में केमू की गाडियों में सहयात्रियों की सहायता भी करते छत पर सामान चढाना, उतारना किसी को अपनी सीट दे देना. छुट्टी पर गांव में होने पर गांव वालों को दुख-बीमारी में मदद करना. किसी रोगी को पीठ पर बोककर रोड हैड तक पहुंचाना आदि.
रिटायरमेन्ट के बाद भी गांव में फौजियों को उनके नाम की जगह बड़े अदब से – कप्तान सैप (कैप्टेन), सुबदार सैप, हवालदार सैप कहकर ही संबोधित करते थे. जिस गांव में जितने अधिक कैप्टन-सुबेदार उस गांव का उतना ही ज्यादा रुतबा.
जब फौजी की छुट्टियां ख़त्म होती और जाने का समय आता तो माहौल ग़मगीन हो जाता परिवार के लोग आस-पड़ोसी अपनी-अपनी तरफ से दुलार करते थे – च्याला आपुण खयाल करिये, भलीकै खाये.
ईजा की आखों को तो अपना फौजी जवान बेटा भी दुबला ही लगता था. अगर ऐसा न लगे तो वो मां का दिल ही कहां. फौजियों की कहानी का सबसे भावुक पक्ष होती थी उनकी जीवन संगिनियां. इनका मिलन कितने दिन का होता था, कुछ दिन की छुट्टी और फिर लम्बी जुदाई. वो बेचारी तो बिछड़ने पर ढंग से रो भी नहीं पाती थी. उनके दिल की बात को किसी गीतकार ने लिखा है-
मेर मैतै कि भगवती तू दैण है जाये, कुशल मंगल मेरा स्वामी घर लाये.
(Uttarakhand Soldiers in Army)
जब फौजी ड्यूटी पर जाता तो पति-पत्नी का संवाद बोलकर नहीं मौन रहकर ही होता. आँखों- आँखों में ही एक दूसरे का दर्द पढ़ लिया जाता था और आँखों- आँखों में दिलासा देकर जल्द आने का वादा भी हो जाता फिर रहता चिठ्ठियों का सहारा और भगवान का आसरा. फौजी पति का मन भी शायद यही कहता था –
कश्मीर बौर्डर प्यारी मैं आफि लडूलो
नै हये उदास प्यारी, छुट्टी घर उलो…
तब संचार के साधन के नाम पर केवल चिठ्ठी थी. उसमें अगर देरी हो जाती तो शायद ही कोई देव दरबार होता होगा जहां उसकी पत्नी और मां फरियाद नहीं करती होगी. शायद ही कोई द्यो-द्याप्त होगा जिसका उच्यैण न रखा जाता होगा. हे भगवान, हे देवी मैय्या भली कै घर ऐ जाला तुमार यां घांट चढूल. या हे गोलज्यू तुमार यां हम द्विये जाणी ऐबेर पुज करि जूल.
(Uttarakhand Soldiers in Army)
मां और पत्नी के द्वारा की गयी प्रार्थनाओं का ही असर होता होगा कि फौज के कष्टों को भी एक फौजी हंसकर सह लेता है.
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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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