अपने बचपन के गाँव को ठीक-ठीक आज न स्मरण कर पाने का एक बड़ा कारण शहर आने के बाद उत्तराखंड राज्य को लेकर चलनेवाला जन-आन्दोलन और उसमें कुछ हद तक मेरी अपनी हिस्सेदारी भी थी. (Uttarakhand poor despite ample resources)
यह आन्दोलन यों तो पाँचवें दशक से ही कामरेड पी.सी. जोशी (प्रथम) की पहल पर कुछ सम्पन्न प्रवासी पहाड़ियों के द्वारा महानगरों में चलाया गया था मगर इसने सातवें-आठवें दशक के बाद ही एक बड़े आन्दोलन के रूप में गति पकड़ी.
नवें दशक के मध्य में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे में शांतिपूर्ण विरोध करने के लिए दिल्ली जा रही पहाड़ी औरतों के साथ पुलिसवालों ने जो ज्यादती की उसने आन्दोलन को उग्र बना दिया. उसके बाद तो अलग राज्य के इस आंदोलन ने अपने गाँव-इलाकों के प्रति हम शहरियों का पूरा नजरिया ही बदल दिया था. (Uttarakhand poor despite ample resources)
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अलग राज्य संबंधी इस सोच में वास्तविक सक्रियता तब आई जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव ने प्रदेश के उत्तरी हिस्से को अलग करके उसकी एक अलग राज्य के रूप में स्थापना के लिए 4 जनवरी, 1994 को अपने नगर-विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक छह सदस्यीय समिति का गठन किया था.
‘कौशिक समिति’ के नाम से जानी गयी इस समिति की रिपोर्ट के बाद अनेक छोटे-बड़े आंदोलन होते रहे और इसी क्रम में 9 नवम्बर, 2000 को देहरादून में राजधानी स्थापित करने के बाद ‘उत्तरांचल’ के रूप में जिस नए राज्य की नींव पड़ी, माना जाता है कि इसकी परिकल्पना का पूरा सपना 68 पृष्ठों में छपी कौशिक समिति की इसी रिपोर्ट में है.
समिति की पहली बैठक 12 जनवरी 1994 को लखनऊ में आयोजित की गई जिसमें तय किया गया कि प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए समिति सभी क्षेत्रीय विधायकों, विधान परिषद् सदस्यों, लोक सभा सदस्यों, उत्तराखंड मंे स्थित तीनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, शोध संस्थानों के विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, मान्यताप्राप्त राजनैतिक दलों के जिला अध्यक्षों, महिला संगठनों, अनुसूचित जाति/जनजाति संगठनों, प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, कृषि वैज्ञानिकों तथा आम जनता से प्रस्तावित राज्य के सम्बन्ध में सुझाव आमंत्रित करने के लिए अल्मोड़ा (कुमाऊँ) और पौड़ी (गढ़वाल) में दो-दो दिन के सेमीनार आयोजित कराएगी.
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के मुख्य रूप से अंग्रेज़ी और कुछेक पारिभाषिक हिंदी में दिये गए बीसियों धुआँधार व्याख्यानों के बाद 30 अप्रेल, 1994 को जमा की गई अपनी रिपोर्ट में कौशिक समिति ने अनेक अन्य सिफारिशों के अलावा कहा, ‘‘सभी प्रतिभागियों का मानना था कि पृथक् राज्य की माँग उत्तराखंड क्षेत्र की जटिल भौगोलिक स्थिति तथा भिन्न पारिस्थितिकी को देखते हुए पर्यावरणसम्मत विकास के दृष्टिकोण से की जा रही है.
इसी तर्कसम्मत आधार पर देश की राजनैतिक परिस्थितियों में यह पहला अवसर है जब एक राज्य अपनी ही सीमाओं के अंतर्गत एक और राज्य के गठन की माँग कर रहा है. इसमें क्षेत्रवाद और पृथकतावाद जैसी कोई भी बात नहीं है. क्षेत्र के विकास के लिए अलग उप-योजना बनाए जाने से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया है, क्षेत्रीय विषमताओं की स्थिति बनी हुई है. विपुल प्राकृतिक संपदाओं के बीच भी उत्तराखंड के लोग गरीब हैं इसलिए अब उन्हें अपने संसाधनों का उचित उपयोग कर क्षेत्रीय विकास में भागीदारी का अवसर दिया जाना चाहिए.’’
… विदेशी विश्वविद्यालयों में काम करने के बाद 2 अगस्त, 2000 को सुबह चार बजे नई दिल्ली के इन्दिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एयर इण्डिया की फ्लाइट संख्या ए. आई. 142 से उतरने के बाद जब मुझे पहला समाचार उत्तरांचल राज्य सम्बन्घी विधेयक के पास होने का मिला तो तत्काल मुझे पहली जनवरी को देखे गए अपने सपने की याद आयी थी और उसी के साथ एक फिल्मी रील की तरह याद आया था अपने बचपन का साथी खड़कुवा, सांसद, फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन और वे सारे वायदे जो आठ-दस साल की उम्र में मैंने धसपड़ गाँव के कीचड़-दलदल भरे खेतों में खेलते-दौड़ते हुए अपने बचपन के सबसे प्रिय दोस्त खड़क सिंह रैक्वाल से किये थे. … आप सोच नहीं सकते कि अपने बचपन के उन वायदों को एकदम प्रौढ़ उम्र में याद करना… खासकर तब जब कि आप उन्हें न सिर्फ भूल चुके हों, उन्हें बचकानापन और नाॅस्टेल्जिया कहकर नकारने लगे हों… किस तरह का एक अजीब-सा अपराध-बोध पैदा करता है! लेकिन इस उम्र में मैं कर ही क्या सकता था?
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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