Featured

मेरे सपनों का उत्तराखण्ड

गाँव से लौटे महीना नहीं होता कि मैं फ़िर से गाँव की ओर हो लेता हूँ. पहाड़ पर ख़राब मौसम को लेकर मौसम विभाग की तमाम चेतावनियों के बावजूद भी मेरी हर महीने कम से कम एक या दो बार गाँव जाने की कामयाब कोशिश तो रहती ही है. यदि शनिवार, रविवार के अलावा कोई और अतिरिक्त छुट्टी न हो तो कभी-कभार केवल एक रात ही गाँव में ठहरना नसीब हो पाता है. जबकि दिल्ली से गाँव तक आने और वापिस जाने में तकरीबन 30-35 घंटे सफर में ख़र्च हो जाते हैं जिसमें दो रातों की नींद भी शामिल रहती है. बावजूद इसके माता जी पिताजी के साथ बिताया गया थोड़ा सा समय भी मन मस्तिष्क को भरपूर सुकून देता है. जहाँ मेरे लिए यह एक प्रकार की तीर्थ यात्रा हो जाती हैं वहीं मेरे उम्रदराज अभिभावक भी मेरा साथ पाकर ताजा दम हो जाते हैं.

सीमित ज़रूरतों के अलावा थोड़ी बहुत खेतीबाड़ी, एक दूधारू गाय, तीन बछड़े, दो कुत्तों और एक बिल्ली के साथ अपना समय व्यतीत करने वाले मेरे इन बुजुर्गों की उपलब्धियाँ मेरे लिए बहुत प्रेरक होती है. चाहे घर में प्रचुर मात्रा में मिलने वाला घी, मक्खन, दूध या मट्ठा हो, चाहे केला, आम, अनार जैसे मौसमी फल या गुज़ारे लायक ताजी सब्ज़ियाँ, यहाँ ये सब अपना होता है. आदर्श खान पान और स्वस्थ्य आबो-हवा जीवन की बड़ी जरुरतें हैं. ऐसी स्थिति में कोई गया गुज़रा ही कोई होगा जो ऐसे माहौल में स्वयं को संतुष्ट महसूस न करें.

मेरी यह दिली इच्छा है कि पहाड़ के गाँवों से मेरे बाद की पीढियाँ पलायन न करें. उनके लिए उनके गाँव के इर्द गिर्द ही सम्मानजनक रोजगार की भरपूर संभावनाएं उपलब्ध हों. परदेस में रहकर अपने पुश्तैनी गाँव के प्रति इसी लगाव के चलते मैने पहाड़ की बात करने वाले कई संगठनों से खुद आगे बढ़कर स्वयं को जोड़ने की कोशिश की. लेकिन ये संगठन और इनसे जुड़े अधिकतर लोगों के इरादों की असलियत मालूम होते ही मैनें इन संगठनों से खुद को थोड़े से अन्तराल के बाद ही अलग कर दिया. पहाड़ और पहाड़वासियों की समस्याओं की दुहाई देकर बनाए गये संगठनों के माध्यम से राजनीतिक महत्वकांक्षाओं और मुफ़्त ख़ोरी के लिए प्रयासरत बुद्धिजीवियों के बजाय मुझे ऐसे लोगों की तलाश थी जो पहाड़ों पर के गाँवों के बाशिन्दों की मूल भूत सुविधाओं और वहाँ की स्थानीय समस्याओं की तरफ़ सरकार का ध्यान आकर्षित करवाने के लिए प्रयत्नशील हो. पलयान को लेकर सरकार से संवाद करते रहना और इस पर काम करते रहना बहुत जरूरी है. पहाड़ पर पलायन भाषणों और घोषणाओं से नहीं रुक सकता, इसके लिए तो वहां के पारंपरिक संसाधनों के दोहन, पहाड़ की ख़ेती-बाड़ी और उनके पारंपरिक उपकरणों को उन्नत और आधुनिक करवाने की कवायद के लिए वैज्ञानिक शोधों और आविष्कारों को लेकर काम करने की सख़्त दरकार है.

उत्तराख़ण्ड में पर्यटन की भी अपार संभावनाएं हैं. यहाँ की अनूठी प्राकृतिक एवं साँस्कृतिक छटा दुनिया के हर शख़्स को अपनी ओर आकर्षित करने का माद्दा रखती है. ऐसे में यहाँ के गाँवों को पर्यटक स्थलों के रुप में विकसित कर स्थानीय स्तर पर आय के अतिरिक्त जरिए पैदा किए जा सकते हैं. लेकिन इसके लिए भी ऐसे ही लोगों की जरूरत है जो पहाड़ के पर्यटन की दृष्टि से मुनासिब क्षेत्रों की पहचान कर पर्यटन विभाग तथा पर्यटन के क्षेत्र में काम कर रही अन्य एजेंसियों से बात कर उन्हे यहाँ इको टूरिज्म विकसित करने के लिए आमन्त्रित करें. साथ ही यह बात भी सशर्त रखी जाय कि इसमें स्थानीय उत्पाद और श्रम को प्राथमिकता दी जाएगी.

स्थानीय स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करवाने के लिए जहाँ एक ओर सरकार से संवाद की निताँत आवश्यकता है वहीं स्थानीय स्तर पर सरकार की योजनाओं को लेकर लोगों को जागरुक करना भी एक बड़ा काम है. आज उत्तराख़ण्ड के गाँव प्रत्येक में ऐसे नेता, समाज सेवक भरे पड़े हैं जो सरकार की ओर से गाँव की तरफ़ आती हर एक कल्याणकारी योजना को सराकारी कारिन्दों के माध्यम से फ़ाइलों के अन्दर ही उन्हे ठिकाने लगाने में माहिर है. ऐसे लोगों के लिए विकास का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ ठेकेदारी होता है. ये लोग सरकारी दफ़्तरों में तभी तक सक्रिय रहते हैं जब तक कि किसी नहर, सड़क, पुल या इमारत का ठेका हासिल नहीं हो जाता. उसके बाद, नहर में पानी है या नहीं, सड़क या पुल यातायत लायक है या नहीं, या सरकार के द्वारा स्कूल, अस्पताल आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए बनाए गए भवनों में संबधित विभागों के कर्मचारी अधिकारी रहते है या नहीं, जैसे मसलों पर सरकार से कोई बात नहीं करता. वैसे ये चंट-चकड़ैत बात करेंगे भी किसलिए, ये अपने राजनैतिक आकाओं से प्रभावित होकर स्वयं तो परिवार सहित देहरादून या तराई के अन्य शहरों में आ बसे हैं. शहरों में किसी बात की कोई कमी थोड़े ही है. ठेकों के भुगतान से लेकर, स्कूल अस्पताल तथा अन्य बुनियादी सुविधाएं यहाँ उचित दामों पर उपलब्ध हो जाती है. इसके लिए ये लोग ही अकेले दोषी नहीं है, दोष उन जन प्रतिनिधियों का है जो चुनाव के दौरान तो क्षेत्र में नजर आते है लेकिन चुनाव जीतते ही देहरादून के हो जाते हैं. फ़र्ज किजिए, यदि विधान सभा का विधायक अपनी विधान सभा के मुख्यालय में रहेगा तो क्षेत्र की तमाम कार्यदायी संस्थाओं के अधिकारी, कर्मचारी भी उस क्षेत्र में अपने-अपने कार्यालयों पर तैनात रहने को अपनी जिम्मेदारी समझेंगे और जनता की समस्याओं पर त्वरित कार्यवाही होगी. लेकिन वर्तमान में स्थितियां बिलकुल इसके बरक्स है. सुदूर क्षेत्रों में तैनात सरकार के अधिकारी कर्मचारी देहरादून से ही आना-जाना करते हैं. उन्हे मालूम है कि जब क्षेत्र के जन प्रतिनिधि स्वयं देहरादून में रह कर क्षेत्र की जनता के प्रति अपनी जवाबदेही तय कर लेते है तो फ़िर हम भी पहाड़ पर क्यों रहें. वे तो कभी-कभार जाकर लौट आने को भी अपनी बड़ी उपल्बधि मानते हैं. ऐसे में क्षेत्र की जनता के हितों के लिए कितना और क्या काम हो पाता होगा अन्दाजा लगाया जा सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोक तंत्र में जन प्रतिनिधि राजनैतिक अगुआ ही नहीं बल्कि सामाजिक अगुआ भी होता है.

उत्तराख़ण्ड की वर्तमान दशा के लिए तथाकथित समाज सेवियों, ठेकेदारों और जनप्रतिनिधियों के अलावा जो एक और तबका भी बराबर का दोषी है वो है उन पढ़े-लिखे लोगों का जो रोजगार के लिए पलायन करते हैं और पलट कर अपने गाँव घर की ओर देखते तक नहीं. गाँव में बचे अनपढ़ लोगों से, जो हमेशा जीविकोपार्जन के लिए संघर्षरत रहते हैं, किसी क्रान्ति की उम्मीद करना महज मुगालते में रहने जैसा है. यह सुखद है कि अब गाँव में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिकता अपने बच्चों को शिक्षित करना है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा का यह वर्तमान ढाँचा पहाड़ के लिए एक अभिशाप है. पुश्तैनी खेती बाड़ी और पशुपालन ने पहाड़ पर सदियों से मानव सभ्यताओं को आबाद रखा है लेकिन आज हमारी इस नौकरपरस्त शिक्षा प्रणाली के चलते यह पारंपरिक आजिविका लगभग मृतप्राय होने को है. शिक्षा का यह हासिल हमे हमारी जड़ों से उखाड़ कर कहीं और लाकर पटक देता है.

 

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

4 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago