अभी दस पन्द्रह साल पुरानी ही बात होगी सरकारी अन्तर्देशी पत्र में मोहरों के साथ हल्का टीका लगा रहता और भीतर हरी पीली घास का एक टुकड़ा रहता. घर से दूर रहने वाले प्रवासी पहाड़ियों ने और न जाने फ़ौजी भाइयों ने इस तरह की चिठ्ठी हर साल अपने घर से पाई होंगी. घर से आई चिठ्ठी में शामिल ये घास महज हरी पीली घास नहीं बल्कि दूर किसी पहाड़ में रहने वाले माँ बाप का प्रेम और आशीर्वचन हैं हरेला का आशीर्वचन.
(Uttarakhand Harela Festival)
हरेला लोक का त्यौहार है और लोक सबको साथ लेकर चलता है. हरेला सावन महीने के 11, 10 या 9 दिन पहले बोया जाता है. जंगल से लाई चौड़ी पत्तियों के ऊपर साफ़ मिट्टी में सात या पांच अनाज को बोया जाता है. जहां पत्तियों की संख्या अपने इष्टदेव और परिवार के सदस्यों की संख्या पर निर्भर करती है वहीं बोये गये अनाज में काला अनाज नहीं बोया जाता है.
अगले दस दिन तक इसमें हर रोज पानी डाला जाता है और इसकी नियमित गुड़ाई की जाती है. गुड़ाई के लिये इस्तेमाल यंत्र को स्थानीय भाषा में ताऊ कहा जाता है. सावन महीने की पहली तारीख के दिन हरेला काटा जाता है.
(Uttarakhand Harela Festival)
हरेला काटे जाने के बाद सबसे पहले अपने इष्टदेव के मंदिर में चढ़ता है. उसके बाद घर के बुजुर्ग हरेला लगाने के शुरुआत करते हैं. घर के बड़े अपने से छोटों को पाँव से सिर की तरफ हरेला लगाते हुए उसे आशीर्वचन देते हैं. उनके जीवन में हमेशा हरियाली की कामना करते हैं.
हिमालय में बर्फ होने तक, गंगा का पानी होने तक हरेला भेटने की कामना की जाती है. साल के इस पहले त्यौहार पर घर के बुजुर्ग कहते हैं –
लाग हरैला, लाग बग्वाली
जी रया, जागि रया
अगास बराबर उच्च, धरती बराबर चौड है जया
स्यावक जैसी बुद्धि, स्योंक जस प्राण है जो
हिमाल म ह्युं छन तक, गंगज्यू म पाणि छन तक
यो दिन, यो मास भेटने रया
पहले घर जो सदस्य हरेला के समय घर पर न होता उसके नाम का हरेला या तो रख लिया जाता या फिर किसी न किसी तरह उस तक हरेला पहुँचाने की जद्दोजहद जारी रहती. अब तो सब सांकेतिक हो गया है.
(Uttarakhand Harela Festival)
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