फरवरी का महीना आधा बीत चुका है और भारत भर में शराब की दुकानों के बाहर पव्वे पर भारी छूट वाले विज्ञापन लटक चुके हैं. जाहिर है उत्तराखंड जिसकी कुल आय का 18 से 19% हिस्सा शराब से आता है वहां भी इस तरह के विज्ञापन राज्य भर में देखे जा सकते हैं.
विधानसभा चुनाव में जब भाजपा के प्रत्याशी चुनाव प्रचार के लिये लोगों के बीच गये तो महिलाओं के वोट भुनाने के लिये शराब से आय को कम करना उनके भाषणों का हिस्सा भी था.
सरकार द्वारा जारी किये गए आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ साल 2001-02 में उत्तराखंड की राजस्व आय में सरकार ने शराब से आय का लक्ष्य 222.38 करोड़ रखा था.
2018-19 में यह लक्ष्य 2650 करोड़ किया गया. सरकार ने हर साल दस प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि दर के साथ शराब से आय के लक्ष्य को बढ़ाया है.
2000 से अब तक एक भी सरकार ऐसी नहीं है जिसने शराब से अपनी आय के लक्ष्य को कम किया हो.
साल 2013-14 तक लगभग हर साल उत्तराखंड की सरकार शराब से अपनी आय के लक्ष्य से अधिक प्राप्त करती थी. इसके कारण सरकार की आलोचना की जाने लगी. सरकार ने आलोचना से बचने का एक शानदार तिकड़म निकाली.
सरकार शराब से अपनी आय के लक्ष्य को चौदह प्रतिशत तक बढ़ाकर रखने लगी. जिससे आंकड़ों में दिखने लगा कि सरकार शराब से अपनी लक्षित आय भी प्राप्त नहीं कर पा रही है. जबकि स्थिति उलट है.
घाटे में होने के बावजूद सरकार की शराब से आय हमेशा पिछली बारी से दस प्रतिशत ज्यादा रही है.
उत्तराखंड में अब शराब से लक्षित आय पूरा करने का जिम्मा जिलाधिकारी के जिम्मेदार कन्धों पर है. इस वर्ष शराब से सर्वाधिक आय हरिद्वार के जिलाधिकारी को करनी है.
वर्तमान सरकार ने शराब की दुकानों के समय में परिवर्तन जैसे बड़े ढ़ोंग भी रचे.
मुख्यमंत्री ने स्वयं नशाखोरी के विरोध में न जाने कितने झंडे लहराये लेकिन वास्तविकता यह रही कि नवम्बर 2018 तक सरकार को शराब से 1934 करोड़ रुपये मिल चुके हैं.
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