तिब्बत में भोटान्तिकों का व्यापार वहां की अनेकानेक मंडियों में होता था. इनमें मुख्य तकलाकोट, ज्ञानिमा, गरतोक, चकरा, शिवचिलम, ख्युंग लिङ्ग, दरचेन, कुंलिङ्ग, थुलिङ्ग, पुंलिङ्ग, नावरा, लामा छोरिंग, सिल्टी छोरिंग थी. प्रधान मंडियां गरतोक, ज्ञानिमा व तकलाकोट की थीं.
(Unique Systems of Indo-Tibet Trade)
भोटान्तिकों और हूण देश के बीच हो रहे लाखों रुपये के सालाना व्यापार का संचालन कुछ अनोखे रिवाज और तरीकों से होता जिनके बीच दोनों पक्षों के बीच दोस्ती और जुबान की कीमत का गठजोड़ रहा. इन विचित्र प्रणालियों में हर भोटान्तिक व्यापारी का तिब्बत में एक आढ़ती होता जिसे वह मित्र कहते. ये तिब्बत के व्यापारियों के साथ व्यापारिक रिश्ते की गाँठ डालता.
सबसे पहले तो दोनों पक्षों के व्यापारी “सरसू -मुलछू ” करते. यह दोस्ती का गठबंधन होता जिसने भोट-तिब्बत व्यापार की पतवार थामी हुई थी. सरसू मुलछू के बाद व्यापार का प्रतिज्ञा पत्र भरा जाता जिसे ‘गमग्या’कहते. इसमें व्यापार की शर्तें तय होतीं और शर्तनामे में दोनों “थचिया” लगाते. थचिया का मतलब मोहर लगाना होता. अब यह गमग्या भोटान्तिक व्यापारी के पास संभाल कर रख लिया जाता. गमग्या होने के बाद व्यापार के भेद अपने तक रखने और आपसी संबंधों को बनाये रखने के लिए देवता को साक्षी बना कर की जाने वाली प्रतिज्ञा ली जाती. इसे “कुंडाखार” प्रथा कहा जाता जिसमें देवता की मूर्ति या धार्मिक ग्रन्थ को व्यापारी अपने सर पर रख दोस्ती ना छोडेंगे का वचन लेते.
फिर होता “सिंगच्याद”जो छल-कपट से बचने के लिए किया जाता. इसमें काष्ठ या पत्थर के चौकोर टुकड़े को प्रतिज्ञा का साक्ष्य बनाया जाता. काष्ठ या लकड़ी के इस चौड़े टुकड़े को बीच से तोड़ दो टुकड़े कर दिया जाता. अब इन दोनों टुकड़ों के सिरोंज पर ऊन का धागा लपेट एक टुकड़ा भोटान्तिक व्यापारी अपने पास रखता तो दूसरा टुकड़ा तिब्बती व्यापारी. यह वह शर्तनामा होता जिसमें अटल विश्वास भरा होता इस बात का कि जब तक मानसरोवर का पानी सूख नहीं जाता तब तक दोस्ती रहेगी और आपस में सामान की अदला बदली होती रहेगी. कौल न निभाने वाले को बाप-बाप कर के जुर्माना भरना होता. व्यापार में असल है दोस्ती और सच्ची जुबान ये बनी रहे तभी न कैलास की बरफ सूखे और न मानसरोवर का पानी. और न ही घोड़े के सींग जमें.
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बड़ी व्यापारी मंडियों में जिंसों, भेड़, झुप्पु, बकरी, याक, खच्चर घोड़े की खरीद फरोख्त जिस व्यापारिक रिवाज से होती उसे “थुवा चित्सुंग” कहते. मंडियों में जो पसंद का माल होता उस पर लेन-देन, मोल-भाव से पहले व्यापारी अपने नाम की ‘थचिया’ या मोहर लगा देते. अब जिस मद पर थचिया लगा हो तो उसका मोलभाव दूसरा व्यौपारी तब तक नहीं कर सकता जब तक पहला यानी थचिया लगाने वाला उस वस्तु या जिंस के बारे में खरीद की अपनी रकम न बताये.
दूसरी जरुरी बात सम्बंधित होती “पुगेर” से. भोटान्तिक व्यापारी अपने माल पर पुगेर लगाते. इस रिवाज के हिसाब से अच्छे सामान के साथ तिब्बती व्यापारी को घटिया सामान भी खरीदना होता. यानी वह अपनी मर्जी से पूरा का पूरा बढ़िया सामान नहीं खरीद सकते थे. जैसे अगर गेहूं या चावल ख़रीदा है तो जौ या मड़ुआ भी लेना होगा. तिब्बती व्यापारी की यह मज़बूरी भी बन जाती क्योंकि उन्हें अपनी जरुरत की चीजें सिरफ भोटान्तिक व्यापारी से ही मिल पातीं.
व्यापारियों को भारत व तिब्बत में अलग-अलग तरीके से लगाए विभिन्न प्रकार के करों का भुगतान करना होता. कुमाऊं में जब चंद राजाओं का राज था तब उनकी ओर से अस्कोट के रजवार जोहार और दारमा से राजस्व की वसूली करते थे. वर्ष 1790 में चंद राजाओं से गोरखों के पास सत्ता आने पर उन्होंने भोटान्तिकों की समृद्धि दशा देख परगना जोहार की सरकारी मांग 12, 500 रुपये और दारमा परगने की वसूली 15,000 रुपये तय कर दी. तब व्यापारियों ने अपील की कि इतना अधिक कर अधिभार देने में वह असमर्थ हैं. गोरखा सरकार ने जाँच के लिए अपने आगम अधिकारी भक्ति थापा को जिम्मेदारी सौंपी जिसने जाँच के बाद जोहार का शुल्क 9,000 रूपये कर दिया.
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1815 में कुमाऊं अंग्रेजों के कब्जे में आया. पहला बंदोबस्त मिस्टर गार्डनर ने किया. यह बंदोबस्त गोरखों द्वारा पिछले वर्ष की गई वास्तविक वसूली पर आधारित था. इसमें कर की वसूली गोरख्याली सिक्कों और जिंसों में न हो कर फर्रुखाबादी चेहरेदार रुपयों में की जाती थी. कुमाऊं का दूसरा बंदोबस्त ट्रेल के द्वारा 1817 में किया गया. इसके अनुसार चारों भोटिया महालों की कुल मांग 9860 रूपये की गई जबकि 1815 में यह 9367 रुपये थी. तीसरा बंदोबस्त भी कमिश्नर ट्रेल के द्वारा 1818 में किया गया. चौथा बंदोबस्त 1820 में किया गया जिसमें कस्तूरी, शहद शिकार, व्यापार इत्यादि से कर हटा देने के कारण भोटिया महालों की कुल जमा राशि 3860 रुपये आई. इस समय व्यापार का प्रशुल्क कम किए जाने का कारण व्यापार की मात्रा में हो जानी वाली गिरावट थी.
1883 में विकट के द्वारा दसवां बंदोबस्त किया गया. इसकी अवधि तीस साल की थी. और इस समय अवधि तक व्यापार संभल कर काफी बढ़ गया था. अतः प्रशुल्क फिर बढ़ा दिये गए. पुनः सन 1900 से 1902 तक मिस्टर गूंज ने ग्यारहवां बंदोबस्त किया और पशुधन और व्यापार की बेहतर दशा को देखते मालगुजारी बढ़ा दी. पहली बार छः पाई हर जानवर के हिसाब से कर लगाया गया साथ ही जानवरों की चुगाई पर भी कर वसूलना तय किया. भोटान्तिक व्यापारियों ने बकरियों और बोझा बोकने वाले जानवरों पर लगे नये कर के खिलाफ ब्रिटिश सरकार को याचिका दी पर अफसरों ने इसे ख़ारिज कर दिया. व्यापारी भी इसको हटाने की प्रार्थना करते रहे. आखिरकार 1938 में राजाज्ञा संख्या 220 आर (8)ता. 4 मार्च 1938 के अनुसार भेड़-बकरियों की चुगाई पर से कर हटा दिया गया.
दूसरी तरफ तिब्बत की तरफ से लगाए गए कर बहुत विचित्र होते. व्यापारिक घाट खुलने से पहले तिब्बत सरकार अपने नुमाइंदों को भेजता जिन्हें सरजिये कहा जाता. वह यहाँ आकर जांच पड़ताल करते. रोग व्याधि, छूत की बीमारी और राज विग्रह मुख्य मुद्दे होते. अगर सब कुछ ठीक ठाक पाया जाता तभी व्यापारिक घाट खोले जाते. पहाड़ लांघने पर जो कर लिया उसे ‘लाठल’ कहते. यह हर पहाड़ लांघने वाले आदमी पर सवा छः आना होता. दारमा, व्यांस और चौंदास के व्यापारी लाठल के अलावा भू कर भी देते. जिसे ‘सठल’कहा जाता. साथ ही मेष कर भी देना होता जो ‘लुंगठल’ कहलाता. सालाना कर भी पड़ता जिसे ‘छोड़ कर’कहते. ऐसे ही हर आदमी पर सवा छः आना चुंगी भी लगती जिसे ‘गोठल’ कहते यह कर तिब्बती सरकार वस्तुओं के रूप में लेती. इन करों के अलावा व्यांस और चौंदास के व्यापारियों को तकलाकोट पहुँचने पर नज़राने या ‘नैका’ के रूप में पेंतालीस कार्बोज वहां के ‘जोंङ पोन’ या अधिकारी को चुकाने होते. एक कार्बोज तीस सेर के बराबर होता. इन सब करों की वसूली बहुत कड़े तरीके से की जाती. कर न देने पर तिब्बती व्यापारी व्यापार बंद करवा देती.
जिन वस्तुओं और मदों को तिब्बत में निर्यात किया जाता बहुधा उन सभी पर प्रशुल्क न भी लगता जैसे मूंगा, मोती, फिरोजा कर मुक्त होते. कर लगने वाली मुख्य मदें अनाज, कपड़ा, छुहारा, मिश्री, गुड़, घी होतीं. इन कर योग्य वस्तुओं पर ‘चूथल’ भी लिया जाता जो कर योग्य वस्तुओं के दसवें भाग के बराबर होता.
तिब्बत से व्यापार की शर्तें और तौर तरीके काफी जटिल, उलझे और मनमानी प्रशुल्क प्रणाली पर आधारित थे. बावजूद इसके भोटान्तिक व्यापारियों की सूझ बूझ और दक्षता ने तिब्बत में साम्यवादी अधिकार आने से पूर्व तक व्यापार को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया. तेजी मंदी तो आते रही पर भोटान्तिक व्यापारी अपने बुद्धि कौशल और बाजार की नब्ज़ पहचानने के हुनर से तिब्बत में भारतीय माल को आठ गुना और भारत में तिब्बती माल को बीस गुना कीमत तक बेचने का बूता रखते थे.
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1957 से 1962 का समय भारत तिब्बत व्यापार में संक्रमण काल के रूप में सामने आया. अधिकांश व्यापारियों का माल तिब्बत में फँसा हुआ था. आवागमन में सुरक्षा न थी. तिब्बत में साम्यवादी शासन का घेरा बढ़ने से अनिश्चितताएं बढ़ने लगीं तो अधिकांश तिब्बती व्यापारियों और अधिकारियों ने अपने परिवारों को भारतीय सीमा के भीतर भेज दिया. 1962 के चीनी कपट और युद्ध से भारत तिब्बत के व्यापारियों की वह संकल्पना धराशायी हो गई कि हिमालय अनादि काल से दुर्जेय व उनका रक्षक है. यह मान्यता भी टूट गई कि कैलास की बरफ के पिघलने, मनसरोवर का पानी सूखने और घोड़े के सींग जमने तक गमग्या होते रहेगा.
भारत तिब्बत व्यापार के पतन से भोटान्तिकों की पेशेगत संरचना में बदलाव स्वाभाविक थे और अपने संघर्ष और मेहनत से इन पर्वत पुत्रों ने सेवा जगत में अपनी अलग पहचान बना दी. परंपरागत व्यवसाय की संलग्नता के साथ ही उच्च शिक्षा के अवलम्ब से प्रशासन, चिकित्सा, बैंक व तकनीकी सेवाओं में उनकी उपस्थिति ने स्वयं स्फूर्त विकास का नया उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया.
प्राचीन भारत तिब्बत व्यापार की यादें आज भी उन मजबूत रिश्तों की श्रृंखलाएं सामने रख देतीं हैं जिनके भीतर ये भावना थी कि व्यापार मात्र वस्तु, माल-असबाब व जिंस का लेनदेन ही नहीं बल्कि भिन्न संस्कृतियों का मिलन है, नये रिश्तों का समीकरण है और हर नया रिश्ता हमारी सोच को और अधिक व्यापक बनाता है.
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पिछली कड़ी: भोटान्तिक व्यापार के रास्ते, तरीके और माल असबाब
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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