‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ जैसी कालजयी ठुमरी रचने वाले अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने लखनऊ में गोमती किनारे ग्रीष्मकालीन आवास के तौर पर सिकन्दर बाग़ का निर्माण करवाया. बाग़ का नाम उनकी प्रिय बेग़म सिकन्दर महल के नाम पर पड़ा. कविता, शायरी, शास्त्रीय गीत-संगीत और नृत्य के शौकीन और संरक्षक नवाब की शाम की महफिलें सजाने के लिए बाग़ के बीचों-बीच एक मंच भी बना. सिकन्दर महल बनवाते समय शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह खूबसूरत बाग़ अपने अस्तित्व में आने के 10 साल बाद भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और ब्रिटिश फ़ौज के बीच ऐतिहासिक जंग का मैदान बनेगा. (Uda Devi Pasi a warrior Indian Rebellion of 1857)
1857 के लखनऊ अध्याय में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सेना और प्रशासन को लखनऊ रेजीडेंसी में कैद हो जाने को मजबूर किया तब सिकन्दर बाग़ इन क्रांतिकारियों का डेरा बना. गौरतलब है कि 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों ने लखनऊ रेजीडेंसी में ब्रिटिश सेना के हजारों सैनिक और अधिकारी मार गिराए गए थे. भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के लखनऊ चैप्टर का अहम हिस्सा बना सिकन्दर बाग़.
सिकन्दर बाग़ में बागी सिपाहियों के पनाह लेने का पता अंग्रेजों को तब चला जब उन्होंने कानपुर की हार और लखनऊ में हुए भारी नुकसान के बाद लखनऊ को घेरना शुरू किया. सिकन्दर बाग़ के पास उन्हें भारी फायरिंग का सामना करना पड़ा. ब्रिटिश कमांडर इन चीफ कॉलिन कैम्पबेल इस बाधा से औचक थे. काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
16 नवम्बर की सुबह जब ब्रिटिश सेना की टुकड़ी आगे बढ़ रही थी तो सिकन्दर बाग़ से आ रही जबर्दस्त फायरिंग ने उनके कदम रोक दिए. ब्रिटिश घुड़सवार दस्ता यहां आकर फंस गया, उनके दूसरी तरफ गोमती का किनारा था. इनकी मदद करने के लिए फ़ौरन ‘बंगाल हॉर्स आर्टिलरी’ का दस्ता पहुंचा जो बंदूकों से लैस था. इसके बाद ब्रिटिश सेनाओं ने सिकन्दर बाग़ पर हमला बोल दिया.
आधे घंटे की फायरिंग के बाद ब्रिटिश सेना ने बाग़ की एक दीवार पर एक इतना बड़ा सुराख बना दिया जिससे एक आदमी भीतर घुस सकता था. इस तरह लेफ्टिनेंट मैकक्वीन की सदारत में 93 हाईलैंडर्स और फोर पंजाब इन्फेंटरी के 14 जवान बागियों की भारी गोलाबारी के बीच बाग़ में घुसने में कामयाब रहे. इस दौरान 4 पंजाब इन्फेंटरी के बाकी जवानों ने लेफ्टिनेंट पॉल के साथ बाग़ के मुख्य गेट पर भारी हमला बोल दिया. आखिरकार ब्रिटिश बाग़ में घुसने में कामयाब हो गए. उन्होंने सुराख को भी और बड़ा बना लिया.
लगभग 2 हजार बागी सैनिकों ने बाग़ के दो मंजिला भवन में मोर्चा ले लिया. दरअसल उन्होंने सामने के 2 दरवाजों के बजाय भवन के पिछले हिस्से से हमले की उम्मीद की थी. इस आशंका से उन्होंने पिछले दरवाजे को भारी अवरोध लगाकर बंद कर दिया था जो अब खुद बागियों के लिए आत्मघाती बन गया था. वे इस दोमंजिला इमारत में कैद होकर रह गए.
इसके बाद बौखलायी हुई ब्रिटिश सेना ने उस वक़्त के सबसे भीषण नरसंहार को अंजाम दिया. कानपुर में अपनी हार और जानमाल के नुकसान से पागल हो चुके अंग्रेजों ने लगभग 2000 बागियों को निर्ममता से मार डाला. हमले का नेतृत्व कर रहे लार्ड रोबर्ट्स के अनुसार बाग़ की उत्तरी दीवार से सटे बागियों की लाशों का ढेर 6 फीट तक ऊँचा हो चला था. लाशों के ढेर में जिंदा बाग़ी ब्रिटिश सैनिकों को गलियां देते रहे. इस ढेर में शहीदों के साथ घायल भी दबकर मारे गए.
अंग्रेजों की नफरत और घृणा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सिकन्दर बाग़ के एक भी क्रांतिकारी को बंदी नहीं बनाया. उनकी शवों को उनके परिजनों को नहीं दिया गया. शवों को या तो सड़ने और चील कौव्वों के खाने के लिए छोड़ दिया गया या फिर गड्ढे में उनका ढेर लगा दिया गया.
इस लड़ाई में बिरतानी सेना के भी दर्जन भर अफसर और 200 सैनिक मारे गए. अग्रेजों की सिकन्दर बाग़ के क्रांतिकारियों से नफरत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस लड़ाई में शामिल सैनिकों, अधिकारियों को चने-परमल की तरह विक्टोरिया क्रॉस बांटे गए.
इस लड़ाई की एक मायावी पात्र थीं ऊदा देवी. उत्तर प्रदेश के लखनऊ के पास उजिरियांव गांव की ऊदा देवी दलित समुदाय की पासी जाति में पैदा हुई थीं. ऊदा के पति मक्का पासी नवाब वाजिद अली शाह की पलटन में सैनिक थे. ऊदा देवी नवाब वाजिद अली शाह की बेगमों की अंगरक्षक थीं और बाद में उनके ख़ातून दस्ते की सिपहसालार बनीं.
उनके पति मक्का पासी भी नवाब की सेना के बहादुर सिपाही थे और 1857 के ग़दर में कानपुर में बागियों की जीत के नायकों में से एक. कानपुर में पति की शहादत के बाद भी ऊदा देवी के जोश में कोई कमी नहीं आयी. नवाब को कलकत्ता निर्वासित कर दिए जाने के बाद जब बेग़म हजरत महल ने 1857 के ग़दर की मदद करना तय किया तो मक्का पासी और ऊदा पासी भी उनकी सैन्य टुकड़ियों के साथ बागी सिपाहियों के साथ जंग में शामिल हुए.
न मक्का पासी और न ही ऊदा देवी ने दलितों के शौर्य और पराक्रम पर नवाब के भरोसे को टूटने दिया. गौरतलब है कि हिंदू राजे-रजवाड़ों के राज में दलितों को हथियार उठाने का अधिकार नहीं था. लेकिन अवध के इस गीत-संगीत के रसिया नवाब ने दलितों के अलावा महिलाओं का भी सैन्य दस्ता बना डाला.
खैर, जब अंग्रेज सिकन्दर बाग़ में दाखिल होने लगे तो अचूक निशानेबाज ऊदा पासी अपने साथ बम, बंदूक और भरपूर गोलियां लेकर बाग़ में मौजूद पीपल के एक घने पेड़ पर जा चढ़ीं. आदमियों की वर्दी पहने पेड़ पर चढ़ी ऊदा को अंग्रेज चिन्हित कर पाते उससे पहले वो 32 ब्रिटिश सैनिकों को ठिकाने लगा चुकी थीं.
ऊदा पासी के पेड़ पर चढ़े होने का पता अंग्रेजों को तब चला जब एक अफसर ने इस बात पर गौर किया कि मारे गए सिपाहियों के घाव ऊपर से नीचे की तरफ हैं. इसके बाद ब्रिटिश सेना ने घने छायादार पेड़ों को लक्ष्य कर अंधाधुंध फायरिंग शुरू की. कहते हैं कि जब ऊदा का शरीर नीचे गिरा तो भी उनके पास ख़ासा असलाह-बारूद बचा हुआ था. जमीन पर गिरे उनके शव पर भी अंग्रेजों ने अंधाधुंध फायरिंग की.
सार्जेण्ट फ़ॉर्ब्स मिशेल ने पीपल के पेड़ से निशाना साधकर 32 ब्रिटिश सैनिकों को मारने वाली स्त्री के रूप में ऊदा देवी पासी का जिक्र किया है. उस समय यूरोपीय मीडिया में ऊदा देवी की बहादुरी की तारीफ करते हुए बहुत कुछ लिखा गया.
लंदन टाइम्स ने अपने संवाददाता विलियम हावर्ड के हवाले से पुरुषों के वेश में एक महिला द्वारा पीपल के पेड़ से निशाना लगाकर ब्रिटिश सेना को बड़ा नुकसान पहुँचाने के बारे में लिखा. यूरोपीय मीडिया में ऊदा देवी की ख़बरों का संज्ञान लेकर कार्ल मार्क्स द्वारा भी इस विषय में लिखे जाने का उल्लेख मिलता है.
सिकन्दर बाग़ आज एक उपेक्षित जगह है. आजकल बाग़ के एक हिस्से में राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान का कार्यालय है. इस कार्यालय में सिकन्दर बाग़ में मिले हथियारों के अवशेष सुरक्षित हैं. बाग़ के दूसरे मामूली पार्क बना दिए गए हिस्से में नष्ट होने को अभिशप्त नवाब की बिल्डिंग के अवशेष हैं.
उत्तर प्रदेश में दलित राजनीतिक चेतना के उभार के बाद वहां ऊदा पासी की मूर्ति जरूर लगा दी गयी अन्यथा 1857 के ग़दर के नायक-नायिकाओं से उनका नाम नदारद था. बाग़ के बाहर पर्यटन विभाग का सूचना पट्ट ऊदा देवी के बारे में कुछ इस तरह बताता है— “इस लड़ाई में एक अज्ञात महिला सेनानी भी थी. जिसने स्वयं गोली का शिकार होने से पूर्व कई अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.” यानि जिस वीरांगना का बाग़ में बकायदा बुत खड़ा है वह पर्यटन विभाग के लिए अब तक अज्ञात है.
-सुधीर कुमार
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