एक ज़माने में जब मुल्क में टी वी अवतरित हुआ उसे दूरदर्शन के नाम से जाना गया. मालूम नहीं उसका यह नाम दूर के दर्शन करवाने के कारण पड़ा या ये कोई चेतावनी रही कि इसे दूर से ही देखें. तथापि इसके प्रादुर्भाव से नवाज़े गए घर उस काल के इतिहास में सामुदायिक एकता और सौहार्द केन्द्र के रूप में दर्ज़ होने चाहिये, होंगे ही. मेहमान एक नियत समय पर टी वी युक्त घर पर आते, इसका सुख लूटते और निकल लेते. यदा-कदा चाय-पानी या फलों के कटे टुकड़ों का इंटरवलीय अनुष्ठान होता तो गदगद होकर लौटते.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
तबके दर्शकों का ध्यान प्रोग्राम के साथ मेज़बान के उच्चतर मानवीय गुणों और ड्राइंग रूम में रखे गए फर्नीचर इत्यादि की गुणवत्ता, सुंदरता वगैरा पर भी होता था, जिससे टी आर पी साझा हो जाती होगी. शायद तब पड़ोसी के मन में जगा ईर्ष्या भाव टी वी का एकमात्र नेगेटिव पॉइंट रहा होगा वरना हिन्दू-मुसलमान, सिख-इसाई समान रूप से पुण्य या पाप के भागी होने चाहिएं. हैं भी.
अरसे तक सरकारी लालन-पालन में परवरिश होने से शायद मनोरंजन के विशेषज्ञों ने इसको ‘बुद्धू बक्सा’ करार दे दिया. उन्होंने न केवल टी वी को बुद्धू बताया, ख़ुद को तीसमारखाँ भी समझा. वो इसके कान उमेठ कर, चुटिया को टेढ़ा-सीधा घुमा कर अपनी विशेषज्ञता जस्टिफाई करते रहे. गृहस्वामिनी भी उसे पिंजरे के तोते सा प्यार देती, अपने सामाजिक विमर्श में उसका ज़िक्र ले आती; ‘
‘बेटा अपनी मम्मी को बता दियो संडे को हम सनीमा जा रहे हेंगे, वहीं से नन्नू के ननिहाल चले जावेंगे. तुम्हारे तईं चाबी छोड़ जाते पर बल्लू जी के बच्चे बड़े उजड्ड हेंगे, तारों की खेंचम-खैंची न कर देवें..” वो अपने बुद्धू को स्टैंड के शटर प्लस क्रोशिया कवर और हैरिसन ताले की त्रिस्तरीय एक्स कैटेगरी की सुरक्षा में छोड़ कर चले जाते. जाते-जाते सब्ज़ी के ठेले वाले को बताना नहीं भूलते ‘भइया ज़रा नज़र रखियो, घर में टी वी वगैरा पड़ा है.’
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
इस दौरान वो ढके-ढके अकलमंद होता गया, उसने रंग बदल लिया, बाहर से अपने तार जोड़ लिए. पहले चैनल के नाम पर गोयल की दुकान का लोहे का गेट था जो खोलते बंद करते चौबीस घंटे में बस दो बार चिंघाड़ता था, अब वो कुछ ना बेचता, सौ-सवासौ चैनल घर-घर चिल्लाते फेरी लगा रहे. पापा, मम्मी अपने चैनल पकड़ मस्त हेंगे और शेष बुद्धू बक्सा नन्नू के दिल के रस्ते दिमाग़ में घुस गया हैगा. अब कान जो है, नन्नू के उमेठे जावें और टी वी रिमोट से चलावें.
पिछले कुछ सालों में जैसे-जैसे देश की जी डी पी घटी है, टी वी प्रकोप अभूतपूर्व दर से बढ़ा है. उसका दखल सरकार से भी बड़ा है. उसने बताया कि हर एक फ़्रेंड ज़रूरी होता है तो सबने नए-पुराने दोस्तों के सम्मान में हज़ारों नए सिम ख़रीद डाले. जिसे जो बेचना था वो घर-घर विराजमान बक्से की किरपा से बेचता चला गया. ख़बरिया चैनलों ने वो कर दिखाया जो इतिहास में पहले कभी न हुआ. उन्होंने आलू को चीकू बता कर उसे फलों के राजा के रूप में स्थापित कर दिया. अब वो आलू राजा को नए-नए वस्त्रों में लपेट कर देश के लिए ज़रूरी बता रहे हैं. बतोलों की बहार और भजनों की भरमार है. एंकर प्यार के नग्मों से नफ़रत खोज कर दिन-रात बजाते हैं, बताते फ़रमाइशी हैं. अंगना से प्रेम करो पर दिया से नफ़रत ज़रूरी है. आत्महत्या को हत्या और बलात्कार को सत्कार बना रहे हैं. आप हैं कि स्मार्ट हो चुके टीवी को अब भी बुद्धू बक्सा मान रहे हैं.
(Satire by Umesh Tewari Vishwas)
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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