वह ठेठ पहाड़ी थे. उत्तराखंड के पहाड़ी ग्राम्य जीवन का एक खुरदुरा, ठोस और स्थिर व्यक्तित्व. जल, जंगल और ज़मीन को किसी नारे या मुहावरे की तरह नहीं बल्कि एक प्रखर सच्चाई की तरह जीता हुआ. शमशेर सिंह बिष्ट इसलिए भी याद आते रहेंगे कि उन्होंने पहाड़ के जनसंघर्षों के बीच खुद को जिस तरह खपाया और लंबी बीमारी से अशक्त हो जाने से पहले तक जिस तरह सक्रियतावादी बने रहे, वह दुर्लभ है. यह उनकी संघर्ष चेतना ही नहीं उनकी जिजीविषा और पहाड़ के प्रति उनके अटूट लगाव का भी प्रमाण है.
टीवी समाचार चैनलों में कार्य करते हुए पहाड़ के मुद्दों पर अक्सर उनसे बात तो होती ही थी, विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर उनसे फ़ोन पर लाइव प्रसारणों में बात होती थी या कैमरे पर उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड किए जाते थे. टिप्पणी देने में उन्होंने कभी नानुकुर नहीं की. बल्कि किसी रिपोर्ट के लिए वो आवश्यक पृष्ठभूमि जानकारी भी सदाशयता से उपलब्ध करा देते थे. अलग राज्य बनने के बाद जब पहाड़ की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विडंबनाएं और गहरी और स्पष्ट होती गईं और नये नये सत्ता केंद्र विकसित होते गए और पहाड़, निवेश और मुनाफे की लपलपाहटों में जर्जर होता गया तो इसका सिर्फ वे मलाल ही नहीं करते रह गए. वो लड़े और निर्भय होकर बोले. उत्तराखंड में स्थायी राजधानी का सवाल हो या देहरादून में फलती-फूलती सत्ता संस्कृति- शमशेर जी मनमसोस कर रह जाने वाले साधारण बुद्धिजीवी नहीं थे. वो उत्तराखंड के एक प्रखर पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे.
वो बहुत स्पष्ट वक्ता थे. बेलाग बोलते थे और उनकी सार्थक और साहसी टिप्पणियां अलग ही ध्यान खींचती थीं. वह सत्ताओं को अपनी आंदोलनधर्मिता से चुनौती देते रहे और पहाड़ के आम नागरिकों के मानवाधिकारों से लेकर संसाधनों पर उनके हकों की लड़ाई और पर्यावरण बचाने की लड़ाई से कभी पीछे नहीं हटे.
उनका जन्म देश की आजादी से चंद महीनों पहले अल्मोड़ा में हुआ था. छात्र राजनीति में सक्रिय रहे और उत्तराखंड के चिपको, नशा नहीं रोजगार दो जैसे बड़े आंदोलनों से होते हुए अलग राज्य के निर्माण के स्वतःस्फूर्त आंदोलन के सक्रिय सहभागी बने. उन्होंने उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी (लोक वाहिनी) नामक संगठन खड़ा किया. नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन में वो 40 दिन जेल में रहे.
पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद शराब माफिया के ख़िलाफ़ सबसे मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिष्ट आगे थे. उनकी शख्सियत की यही खूबी भी थी कि वो बस निकल पड़ते थे. और अपनी बात कहने में संकोच नहीं करते थे. अल्मोड़ा से उन्होंने जनसत्ता अखबार और अन्य पत्र पत्रिकाओं के लिए खबरें की और विशेष लेख भी लिखे. 1974 की अस्कोट आराकोट यात्रा में शामिल हुए और उसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपना जीवन सामाजिक लड़ाइयों के लिए समर्पित कर दिया.
अल्मोड़ा, अपनी कुदरती छटा के लिए ही मशहूर नहीं रहा है, वो उत्तराखंड राज्य का एक प्रमुख सांस्कृतिक ठिकाना रहा है. जनांदोलनों के लिए भी ये सुलगता रहा है. महात्मा गांधी, रविन्द्र नाथ टेगौर और उदयशंकर जैसी शख्सियतों ने अल्मोड़ा को अपने अपने ढंग से नवाज़ा. यथार्थ और रुमानियत की इसी ज़मीन पर पैदा हुए डॉ शमशेर सिंह बिष्ट का न रहना बेशक एक गहरा खालीपन है. लेकिन इसे जनसंघर्षों की निरंतरता ही भरती रह सकती है.
(यह आलेख पहले जनचौक पर छप चुका है और लेखक की अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है)
शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: [email protected]
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1 Comments
Anonymous
श्रद्धाँजलि। कमी खलेगी।