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सेवानिवृत्त हुए उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक अनिल कुमार रतूड़ी

उत्तराखंड पुलिस महानिदेशक अनिल कुमार रतूड़ी का कार्यकाल आज समाप्त हो रहा है.अपनी सर्विस के असंख्य लोगों के लिए एक रोल मॉडल हैं. काफल ट्री उन्हें सलाम करता है और शानदार भविष्य की कामना करता है. प्रस्तुत है हमारे सहयोगी अमित श्रीवास्तव द्वारा उन पर लिखी आज की फेसबुक पोस्ट:
(Tribute Anil Raturi on His Retirement)

22 अगस्त 2005 को मैं पहली दफ़ा उनसे मिला था. उस लम्हे ने अंदरखाने जो उथल-पुथल मचाई थी उसे उनके तीन बेहद शुरुआती वक्तव्यों और उसके इर्द-गिर्द बुनी यादों के सहारे ‘पहला दख़ल’ में समेटने का प्रयास किया था. उस पहली मुलाक़ात के बाद अब पंद्रह साल हो गए. उनसे मिलना आज भी उतनी ही उथल-पुथल दे जाता है. वैसे हमारे बीच एक बेहद ठंडा, औपचारिक वरिष्ठ-कनिष्ठ व्यवहार का मोटा पर्दा रहा आया है. इस पर्दे पर उस पार बैठे शख्स का जो अक्स उभरता है उसे किसी भी वक्त भूतपूर्व ‘आई पी’ सेवा के अधिकारी के अपीयरेंस से मिलाया जा सकता है.

टखनों तक ऊंचाई की चुस्त पतलून, शरीर पर बिल्कुल लगी हुई ग्रेड-वन वर्दी और हाथ में बेटन. जब वो मुफ़्ती में होते हैं तो ये मिलान और निखरकर साबित होता है- बढ़िया कलफदार शफ़्फ़ाक़ कमीज़, टखनों तक ऊंची पतलून और हां तिरछी कैप पर चमकता एम्बलम. उनके पास आज भी ऐसी तिरछी टोपियों और उनपर शानदार कलगी की तरह सजने वाले बिल्लों का होना भीड़ से उन्हें तत्क्षण अलग कर देता है. कुल मिलाकर अज़ीम शान का एक नफ़ीस किरदार.

लेकिन कभी-कभी बहुत कम मौकों पर ये मोटा औपचारिक पर्दा हिल ही जाता है और मुझे उस खूब गर्म-आर्द्र और नर्म दिल वाले मुलायम चेहरे का पता मिल जाता है जो इस कड़क-रौबीले खांटी पुलिस वाले के अक्स के पस-ए-आईना हमेशा रहा आया है. जिसे अपने इस वृहद परिवार के हर कोने-अन्तरे में पड़े सदस्य की भी चिंता है, जिसके पास एक सहज उदार मुस्कान है, जिसतक पहुंचना ज़रा मुश्किल है और एक बार पहुंचकर उस व्यक्तित्व के सरल-सौम्य-सहज ‘औरा’ से बाहिर आना बहुत ही मुश्किल. दरअसल वो इस व्यक्तिव का असल किरदार है.
(Tribute Anil Raturi on His Retirement)

भाषा और आवाज़ के उतार-चढ़ाव पर बेहद कसा नियंत्रण रखने वाले इस शख्स के पास इतिहास के भंडारगृह से निकले हुए तमाम किस्से हैं. उन किस्सों में पुलिस और समाज की बेहतरी की चिंताएं हैं. किसी ओहदे और आदेश की शुष्क गर्मी से इतर इन चिंताओं में टीम और नेतृत्व की मीठी तरलता मिलती है. ये आश्चर्यजनक है. क्योंकि ख़ाकी में गर्मी बहुत होती है वो अच्छे-अच्छों को पिघला देती है. पिघला कर अपने अंदर मनचाहा आकार दे लेती है. तभी तो शोले वाले जय को सभी पुलिसवालों की सूरतें एक जैसी दिखाई देती हैं. ये हमारे समय की भी विडम्बना है कि वीरू-गब्बर और खुद ठाकुर को अब भी सभी पुलिसवालों की सूरतें एक जैसी दिखने लगी हैं. ये व्यवस्था का दर्प भरा तंज़ है. लेकिन, होती हैं कुछ अनिल के रतूड़ी जैसी मिट्टियाँ भी जो ख़ाकी में नहीं ख़ाकी को अपने में जज़्ब कर लेती हैं. जो उस ढांचे में नहीं ढलते जो उन्हें मिला है बल्कि उसमें बुनियादी बदलाव लाने की कोशिशें करते हैं.

ख़ाकी में भार भी बहुत होता है. सफलता का भार. सहूलियत भरी ज़िंदगी का भार. उसका पहला असर रीढ़ की हड्डी पर पड़ता है. पद-प्रतिष्ठा-पैसा आपके कंधों पर जिन्न की तरह सवार हो जाते हैं. उन्हें बनाए रखने के लिए उन न्यूनतमआदर्शों से भी समझौते शुरू हो जाते हैं जिनका होना आपके होने की बुनियादी शर्त होता है. लेकिन, होते हैं अनिल के रतूड़ी जैसे कुछ लोग जो जिस ऊंचाई के साथ मार्च इन होते हैं उनकी रीढ़ उतनी ही तनी हुई, सीना उतना ही उभरा हुआ और कंधे उतनी ही शान के साथ चमकते हैं जब वो सेवा से पास आउट होते हैं.

मैं जानता हूँ आज तीन दशकों से ज़्यादा लंबे समय तक वर्दी को पूरी जिम्मेदारी से निभाने के बाद रतूड़ी सर जब आलमारी की किसी खूंटी पर टांग देंगे तो उसकी क्रीज़ उतनी ही मासूम होगी जितनी उनके भर्ती के दिन थी, उसके एम्ब्लेम का रजत उतना ही चमकदार होगा जितना पहले दिन था और उस चुस्त वर्दी पर न कोई शिकन होगी न ही कोई दाग!

हैट्स ऑफ! जय हिंद!
(Tribute Anil Raturi on His Retirement)

अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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