समाज

त्रेपन सिंह चौहान की पहली पुण्यतिथि है आज

मित्र, त्रेपन सिंह चौहान की छवि मेरे मन-मस्तिष्क में ‘विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टकस’ की तरह है जो कि सामाजिक-राजनैतिक सत्ता के अन्याय के विरुद्ध हमेशा आन्दोलित रहता रहा. ‘स्पार्टकस’ का निजी जीवन भी संघर्ष की सेज पर रहा, परन्तु अपने स्वाभाविक स्वभाव से उसके अधरों पर हर समय मनमोहक मुस्कान, प्रेम और खुशियों के गीत समाये रहते रहे. क्योंकि वह आश्वस्त था कि दुनिया का आने वाला कल आज से बेहतर होगा. यही सकारात्मकता उसे अन्याय से लड़ने की ताकत और जीने का जज्बा प्रदान करता था’.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

त्रेपन सिंह चौहान की जीवनीय जीवटता से परिचय दिलाती उनकी यह 16 अक्टूबर, 2016 की फेसबुक पोस्ट को पढ़िए तो जरा-

‘चेतना आन्दोलन की देहरादून में 18 अक्टूबर की ‘श्रम का सम्मान: नये भारत के लिए नया उत्तराखंड’ साइकिल रैली’ बेहद सफल रही……यह रैली मेरी कड़ी परीक्षा ले गई. वक्त भी कभी-कभार आदमी को अतीत के उस बिन्दु पर खड़ा कर जाता है, जिसको वह कभी याद नहीं रखना चाहता. परन्तु वो है कि एक टीस के रूप में उसके अंदर हर समय चुबन पैदा करता रहता है.

बात 16 मार्च 1996 की है. यह वह दौर था जब हम कुछ युवाओं ने चेतना आन्दोलन का गठन कर उसके उद्देश्य पर काम करना शुरू किया था. हमने 18 मार्च को भिंलगना ब्लाॅक मुख्यालय पर तालाबंदी का कार्यक्रम घोषित कर दिया था. वैसे भी हमारे ‘खुला मंच कार्यक्रम’ से गांव-गांव में खलबली मची हुई थी और मेरे साथ कुछ साथियों के खिलाफ दफा 307, 430, 496, 147 सहित कई संगीन धाराओं में फर्जी केस दर्ज हो चुके थे. रेवन्यू पुलिस के बजाय रेगुलर पुलिस के पास हमारा केस था और वह मुझे तलाश कर रही थी.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

16 मार्च को घर से फोन आया कि ‘बाबा की दवा खत्म होने वाली है. उनकी अस्थमा की समस्या बढ़ सकती है. आज शाम को उनकी दवा लेकर घर पहुंच जाना.’ मुझे भी कांगड़ गांव में बैठक के लिए निकलना था. मैंने दवा ली और कांगड़ गांव निकल गया. कांगड़ गांव की बैठक समाप्त कर रात 9 बजे घर पहुंचा. बाबा को तिबारी में अपनी प्रतीक्षा करता पाया. मेरे पहुंचने पर उनके आंखों में चमक और चेहरे पर राहत के भाव थे. हमने साथ बैठ कर खाना खाया. वे खाने के नाम पर सिर्फ एक रोटी ही ले सके थे. खाना खाने के बाद यह कह कर वे सोने चले कि तबियत ठीक नहीं लग रही है. लेट जाता हूं.

उन दिनों गांव के लोग हमारे घर पर टीवी देखने आते थे. उस रात टीवी पर एक फिल्म आने वाली थी. हमारे घर पर काफी लोग जमा थे. तकरीबन 1ः30 बजे रात फिल्म खत्म हुई होगी. मैं सोने से पहले एक बार बाबा को देखने चला गया तो उनकी सांस उखड़ रही थी. तब गांव में रोड़ नहीं थी. डाॅक्टर 52 किमी दूर टिहरी में था और सड़क तक पहुंचे के लिए दो किमी पैदल चलना था. हम कुछ व्यवस्था करते बाबा दम तोड चुके थे…..बहरहाल ताला बंदी का कार्यक्रम काफी सफल रहा और मुझे उसी दिन शाम को इलाहबाद हाईकोर्ट के लिए निकलना पड़ा.

वक्त की मार देखिये. ठीक 20 साल बाद दिन भी 16 का था और कार्यक्रम भी 18 को था. सिर्फ महीना बदला हुआ था मार्च की जगह अक्टूबर. आज सुबह हमारा सहसपुर के गांव में जाने का कार्यक्रम था. सुबह तैयारी में लगा था कि 7 बजे घर से बड़े भाई का फोन आ गया. उन्होंने कहा ‘तू तुरन्त घर आ. मां का देहान्त हो गया है.’ कल तो वह ठीक थी, घर के जो काम उससे हो सकते थे वह कर रही थी, उसे अचानक क्या हो गया? दिमाग ने एक दम काम करना बंद कर दिया था.

मैंने गाड़ी ली और घर के लिए निकल पड़ा. अंदर से काफी टूटन महसूस हो रही थी. मां को अंतिम विदाई तो देनी ही थी. शाम को गांव  पहुंचा तो रिश्तेदारों के साथ अपना सारा कुटुंब और गांव के लोग बैठे थे. मां की अनुपस्थिति अंदर तक एक गहरा खरोंच दे गई थी.

दूसरे दिन भाई ने मुझे बुलाया और कहा, ’’तेरा देहरादून में कार्यक्रम है. तू जा और उसको निपटा कर आ. कार्यक्रम सफल रहेगा तो उसे ही मां को सही श्रद्धांजली समझना’.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

कार्यक्रम की काफी तैयारी हो चुकी थी. लोगों में बड़ा उत्साह था. पंपलेट, पोस्टर, बैनर, झंडे आदि पर काफी खर्चा हो चुका था. दुबारा इतना खर्च करना हमारे लिए संभव नहीं था. नेतृत्व को लेकर शंकर एक दम अकेला महसूस कर रहा था.

जब आप छोटे होते हैं तो मां-बाप को देख कर लगता है कि वे तो हमेशा आपके साथ ही रहेंगे. जो कभी आपको छोड़ कर नहीं जायेंगे. कम से कम अपने दु:खों में सहारा का एक मजबूत हाथ आप महसूस करते रहते हैं. जब वे छोड़ कर चले जाते तो दर्द की कई खरोंचे आपके अंदर तक छोड़ जाते हैं. उनकी अनुपस्थिति आसानी से गले के नीचे नहीं उतर पाती… फिर भी…’

प्रखर सामाजिक कार्यकर्त्ता, चिन्तक और साहित्यकार त्रेपन सिंह चौहान की उक्त फेसबुक पोस्ट उनके जीवनीय संघर्ष की एक बानगी भर है. हकीकत में संघर्ष उनके जीवन का पर्याय था. वो चाहे जनता के लिए संघर्ष हो या फिर खुद के जीवन को बचाये रखने की कशमकश हो. यही कारण है कि सामाजिक आन्दोलनों और लेखन में उनकी सक्रियता हमेशा चर्चा का विषय बनी.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

त्रेपन सिंह चौहान देश में सामाजिक आन्दोलनों और साहित्य का एक जाना-पहचाना लोकप्रिय नाम था. जन आन्दोलनों में रहकर जो साहित्य उन्होने रचा है वो कल्पना की डोर के बजाय धरातलीय विषयों से जीवंत होकर, सामाजिक-राजनैतिक अन्याय के खिलाफ बोधगम्य और किस्सागोई रचना शैली में मुखरित हुआ है. तभी तो, उनके साहित्यिक पात्र आज के समाज की विसंगतियों, चिंताओं, समस्याओं और उनके समाधानों पर संवाद करते हुए कहते हैं कि-

निराशा के आगे एक रोशनी है,
जरा घर से निकल के देखो यारों,
जो लोग सड़कों पर लड़ रहे हैं,
उनके साथ जरा मुठ्ठी तो तानो यारों.

साहित्यकार त्रेपन चौहान की रचनाओं के निम्न पात्रों की बात पर गौर करें-

‘जब नया राज्य बनेगा तब तो और भी बुरा वक्त आ सकता है. क्योंकि सत्ता तब इनके हाथ में रहेगी. और मेरा मानना है कि अभी लोग सड़कों पर आन्दोलित हैं इसलिए ‘कैसा हो उत्तराखंड’ के सवालों को भी हमें लोगों के बीच में छोड़ना चाहिए. लोग चाहे आपको पागल ही क्यों न कहें. मैं कम से कम अपनी आत्मा की आवाज को अनुसुना करके नहीं चलूंगा. यह लोगों के साथ गद्दारी होगी. हरीश ने दृढ़ता से कहा.’ (यमुना उपन्यास)

‘जिस राज के लिए हमने इतना कुछ बर्बाद किया उस राज का फैदा हमारे भाई बंदों को मिलना चाए. इन फैकटरियों से हमको फैदा मिलना तो दूर वो हमारे छोरों का खून चूसने वाली जोंक बनकर आए हैं, इस राज में. अपना हाड़-मांस गलाकर हम इन बच्चों को जवानी दे रहे हैं और वे इस जवानी को चूसकर बर्बाद कर रे हैं. यमुना की नसों में खून का संचार कुछ उबलने वाले रूप में दौड़ने लगा था. वह गुस्से में बोली, ‘‘अब तू देरादून नी जाएगा. कतै नी जाएगा.’’ (हे ब्वारी ! उपन्यास)
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

त्रेपन सिंह चौहान का जन्म 4 अक्टूबर, 1971 को केपार्स, बासर टिहरी (गढ़वाल) में हुआ. डीएवी कालेज, देहरादून से वर्ष-1995 में एम.ए. (इतिहास) करने के बाद सामाजिक सेवा की राह उन्होने अपनाई. जीवकोपार्जन के लिए नौकरी या व्यवसाय करने की उनको सूझी ही नहीं. अपने गृहक्षेत्र में 18 मार्च, 1996 को ‘चेतना आंदोलन’ की शुरुवात उन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ भिलंगना ब्लाक आफिस पर तालाबंदी करके की थी. उसके बाद ‘जल-जंगल-जमीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी’ की तर्ज पर आन्दोलन दर आन्दोलन में वे अग्रणी भूमिका में सक्रिय रहने लग गये. उत्तराखंड आन्दोलन, शराबबंदी आन्दोलन, टिहरी बांध से प्रभावित फलेण्डा गांव आन्दोलन, भ्रष्टाचार के खिलाफ सूचना के अधिकार का आन्दोलन, नैनीसार आन्दोलन आदि के जरिए वे देश भर में चलाये जा रहे कई आन्दोलनों से जुड़ गए. वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक समन्वय और उत्तराखंड नव निर्माण मजदूर संघ के संस्थापक सदस्य हैं. सामाजिक जागरूकता और अन्याय के विरुद्ध सक्रिय होने के कारण समय-समय पर शासन-प्रशासन के कोपभाजन की यंत्रणा को भी उन्होने सहा. नतीजन, जेल और मुकदमों से उनका नजदीकी नाता रहा.

एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में त्रेपन सिंह चौहान ने श्रम के सम्मान के लिए अनेक जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया. ‘घसियारी हो या मजदूर, श्रम का सम्मान हो भरपूर’ नारे के तहत ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन करना उनका एक अभिनव प्रयोग रहे. यह बहुप्रचारित किया जाता है कि पहाड़ के ग्रामीण अर्थतंत्र की रीड महिलायें हैं. गांव की किसानी में पुरुषों और पशुओं के सम्मलित योगदान से कहीं ज्यादा महिलाओं का व्यक्तिगत योगदान है. फिर भी उनके योगदान को उत्पादक और सम्मानयुक्त मानने में सारा समाज हिचक जाता है. उदाहरणार्थ ‘घास छीलना’ और ‘घास काटना’ शब्दों का प्रयोग अक्सर बेकारी के संदर्भ में किया जाता है. पर यही घास काटना ग्रामीण महिलाओं के लिए अपनी दिनचर्या का सबसे अहम काम है. घास काटते हुए पहाड़ की घसियारिन मातायें और बहिनें पहाड़ के पूरे पारिस्थिकीय तंत्र को बचाये रखती हैं. इस नाते वे ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ की भूमिका में हैं. त्रेपन का मानना है कि पहाड़ी गांवों में पली-बढ़ी हमारी पीढ़ी जो बाद में नगरों में जा बसी है, इन्हीं घसियारिनों याने ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ की संताने हैं. हमारी ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ माताओं ने पहाड़ के गांवों की सामुहिक दायित्वशीलता वाली संस्कृति को जीवंत रखा है. गांवों में ‘घसियारिनों के गीतों’ की लोकप्रियता इसी कारण सर्वाधिक है.

त्रेपन ने माना कि जब गांव की महिलायें ‘बेस्ट इकोलाजिस्ट’ हैं, तो फिर उनके काम के प्रति इतना अनादर क्यों हैं ? इसी बिडम्बना को समाप्त करने के लिए उन्होने वृहद स्तर पर ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन प्रारम्भ किया है. जिसका ध्येय विचार है ‘पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में घसियारिनों के श्रम को सम्मान एवं उसे और उत्पादक बनाना.’ इसके तहत दिसम्बर, 2015 में भिलंगना ब्लाक, टिहरी गढ़वाल की 112 ग्राम पंचायतों की 600 से अधिक महिलाओं ने ‘घसियारी प्रतियोगिता’ में भाग लिया. इस प्रतियोगिता का समापन 6 जनवरी 2016 को चमियाला के कोठियाड़ा गांव में हुआ. इसी प्रकार दूसरी ‘घसियारी प्रतियोगिता’ 22 दिसम्बर, 2016 को अखोड़ी गांव सम्पन्न हुई. यह प्रतियोगिता ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत के बाद ब्लाक स्तर पर सम्पन्न होती है. प्रतियोगिता के अन्तर्गत 2 मिनट में सबसे ज्यादा घास काटनी होती है और इसमें यह घ्यान रखा जाता है कि घास के साथ अन्य उपयोगी पौधें न कटे. प्रथम विजेता को 1 लाख, द्वितीय को 51 हजार और तृतीय को 21 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाता है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आयोजन के लिए संपूर्ण व्यय राशि को स्थानीय जनता स्वयं ही जुटाती है. भिलंगना ब्लाक में सफलता के बाद यह ‘घसियारी प्रतियोगिता’ कुमाऊं मंडल के गरुड क्षेत्र में भी आयोजित की जाने लगी.

त्रेपन चौहान ने अपनी धर्मपत्नी नीमा चौहान के सहयोग से चमियाला क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण एवं रोजगारपरख शिक्षा के लिए प्रयास किए. आज स्थानीय परिवेश आधारित 2 विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं. इन स्कूलों में स्थानीय किसान, पशुपालक, घसियारिन, शिल्पी आदि भी टीचर के रूप में अपने विभिन्न अनुभवों और ज्ञान को नियमित रूप में बच्चों को बताते और सिखातें हैं. यह सुखद है कि बच्चे अपने गांव-इलाके के पारिस्थिकीय तंत्र को जानने को उत्सुक रहते हैं. इन्हीं स्कूल के बच्चों की एक रिपोर्ट विशेष उल्लेखनीय है. जिसमें कहा गया है कि भिलंगना क्षेत्र के औसतन प्रत्येक गांव से साल भर में 4 लाख रुपये खर्च करने के बदले में 40 लाख रुपये के उत्पाद सरकार स्वयं ले जाती है.

सामाजिक कार्यकर्त्ता और चिंतक के समानान्तर त्रेपन सिंह चौहान के व्यक्तित्व के दूसरे पक्ष ने उन्हें एक संवेदनशील रचनाकार की पहचान दी. उनका रचना संसार व्यापक और बहुआयामी है. परन्तु सामाजिक सवाल और संघर्ष की आवाज उनके संपूर्ण लेखन के ‘तल और तट’ पर हर समय मौजूद रहती हैं. उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘सृजन नव युग’, ‘यमुना’, ‘भाग की फांस’, ‘हे ब्वारी !’ (उपन्यास), उत्तराखंड आन्दोलन का एक सच यह भी (विमर्श), पहले स्वामी फिर भगत अब नारायण (कहानी),  सारी दुनिया मांगेंगे (संपादन-जनगीतों का संकलन), गढ़वाली साहित्य की झलक, कुमाऊंनी साहित्य की झलक (साहित्य एकेडमी की द्वैमासिक पत्रिका इंडियन लिट्रेचर में प्रकाशित), टिहरी की कहानी (कहानी संग्रह-कन्नड़ भाषा में), उत्तराखंड आन्दोलन (विमर्श-कन्नड़ भाषा में), भावानु ढोल और बांध (कन्नड़ भाषा में), प्लाॅट (कन्नड़ भाषा में) आदि हैं.

साहित्य उपक्रम से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘युमना’ (वर्ष-2007 एवं 2010) और उसके दूसरे भाग ‘हे ब्वारी !’ (वर्ष-2014) ने उन्हें हिन्दी साहित्य में शानदार प्रतिष्ठा प्रदान की है. उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान पहाड़ी गांव का सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश कैसे करवट बदल रहा था, इसी कथानक पर ‘यमुना’ और उसका दूसरा भाग ‘हे ब्वारी !’ उपन्यास ने आकार लिया है. ये उपन्यास उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन की जीवन्तता, जीवन शैली की सहजता, अभावों में जीते हुए परन्तु भविष्य के प्रति हमेशा आशावान समाज की मनःस्थिति को दर्शाते हैं. शहर और कस्बों से आयी तथाकथित विकास की बातों ने पहाड़ी ग्रामीण जीवन में कैसे दस्तक दी, उपन्यास का कथानक इससे प्रारम्भ होता है. सीधे-सरल और आत्मनिर्भर जीवन के आदी ग्रामीण इन आहटों से अचंभित होते है. वे अपने जीवन के सवालों का समाधान शहरी जीवन में खोजना शुरू कर देते हैं. लेकिन शहरी जनजीवन के मोह में उन्हें मालूम नहीं चल पाता कि तथाकथित विकास की यह प्रवृत्ति अपने साथ कई सामाजिक विकृतियों को भी साथ ला रही है.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

‘यमुना’ मात्र एक पात्र नहीं है वरन् उसके व्यक्तित्व में पहाड़ी जनजीवन के कई पात्रों का चेहरा और दायित्व समाया हुआ है. वह खुद के लिए तो कभी जीती ही नहीं है. उसका सम्पूर्ण चिन्तन अपने परिवार से शुरू होकर पूरे समाज को खुशनुमा बनाने की ओर है. उसकी जीवटता में समायी सहजता सबका मन मोह लेती है. यह उपन्यास इंगित करता है कि पृथक राज्य आन्दोलन के दौरान एक आम आदमी नए राज्य की परिकल्पना में अपनी समस्याओं के समाधानों का कैसे स्वप्न देखता था. छदम वेश में आन्दोलन में घुसे भ्रष्ट लोगों की ओर यह उपन्यास इशारा करता है. उपन्यास आन्दोलन के दौरान शिल्पकारों की उपेक्षा एवं आशंका तथा ‘आज दो अभी दो, उत्तराखण्ड राज दो’ के विचार ने ‘कैसा हो उत्तराखण्ड’ के गम्भीर सवाल को कैसे नेपथ्य में खिसका दिया की ओर इशारा करता है. इस प्रकार यह उपन्यास उन पक्षों को भी बताता है कि कहां-कहां पर आन्दोलनकारियों से चूक हुयी थी. इन अर्थों में ‘यमुना’ उपन्यास को मात्र उपन्यास के बतौर ही नहीं देखा एवं पढ़ा जाना चाहिए, वरन् उत्तराखण्ड आन्दोलन को जानने एवं समझने के लिए एक जीवंत दस्तावेज और सन्दर्भ साहित्य के रूप में भी उसकी हमेशा अहमियत रहेगी. वैसे उत्तराखण्ड आन्दोलन पर अब तक ढेर सारा लिखा गया है, परन्तु उस दौर के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर केन्द्रित ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी !’ उपन्यास अपने आप में अलग भाव एवं सन्देश प्रदान करते हैं.

पिछले कुछ सालों से ‘मोटर न्यूराॅन’ बीमारी से त्रेपन चौहान उभर ही रहे थे कि 25 मार्च, 2018 को चमियाला में अपने घर पर गिरने से सिर की चोट ने उन्हें फिर से बीमार कर दिया. अस्पतालों की यात्रा फिर शुरू हो गई. यह तसल्ली देने वाली बात है कि महंगा इलाज और विदेश से दवाई मंगाने की मजबूरी के बावजूद भी देश-विदेश में अपने मित्रों-शुभचिन्तकों की मदद से त्रेपन के जीवन की जीवटता और जीवंतता कम नहीं हुई. त्रेपन भाई को इस विकट समय में आत्मीय मदद देने वाले उन मित्रों को सलाम और धन्यवाद. इसी बीमारी के चलते 13 अगस्त, 2020 को उनका देहांत हो गया. परन्तु मरते दम तक उनकी सामाजिक सक्रियता शिथिल नहीं हुई. समसामयिक मुद्दों पर सोशियल मीडिया पर वह सक्रिय रहता रहे. अपने नया उपन्यास ‘ललावेद’ (थोपी हुई समस्या-उत्तराखंड के राजनैतिक-सामाजिक परिपेक्ष्य में) जो कि ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी !’ का अगला भाग को कम्प्यूटर में टाइप करने वह व्यस्त रहते. उसकी जाबांजी देखिए कि हाथों ने टाइप करने में असमर्थता जाहिर की तो वो बोल के टाइप करने लगा और जब आवाज ने भी साथ देना छोड़ दिया तो आंखों की पलकों के इशारे से अब कम्प्यूटर पर टाइप करने लगा. यह उसकी जीने की दृड-इच्छाशक्ति का ही कमाल था. परन्तु सबसे ज्यादा साधुवाद की पात्र उनकी धर्मपत्नी नीमा जी एवं बच्चे अक्षर और परिधि हैं जो उसकी सेवा में दिन-रात तत्पर रहे.

हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टकस’ की तरह ही ‘उत्तराखंड का स्पार्टकस’ त्रेपन सिंह चौहान के चेतना आंदोलन ने उसकी जीवनीय चेतना को कभी कमजोर नहीं होने दिया. मृत्यु के पल तक जीवन के कठिन समय में अपनी पलकों में अनगिनत खुशहाली के सपने लिए वह अपने लेखन के प्रति समर्पित योद्धा का भाव लिए हुए दद्चित रहे.

मित्र त्रेपन, तुम्हारा यह कहना कि ‘मुझसे मिल कर तुम्हें जीने की नई ताकत मिली’. पर मुझे तो तुमसे मिलकर जीने का जज्बा और सच्चा मकसद ही मिला. मित्र, पिछले वर्ष आज ही दिन तुमने इस सांसारिक इह लीला को हमेशा के लिए अलविदा कहा, पर तुम्हारे कहने से क्या होता है, हम मित्रों के दिलों में तुम हमेशा जीवंत रहोगे.
(Trepan Singh Chauhan Tribute)

– डॉ. अरुण कुकसाल

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.

लेखक के कुछ अन्य लेख भी पढ़ें :

बाराती बनने के लिये पहाड़ी बच्चों के संघर्ष का किस्सा
पहाड़ी बारात में एक धार से दूसरे धार बाजों से बातें होती हैं
मडुवे की गुड़ाई के बीच वो गीत जिसने सबको रुला दिया
उत्तराखण्ड में सामाजिक चेतना के अग्रदूत ‘बिहारी लालजी’ को श्रद्धांजलि
जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें
दास्तान-ए-हिमालय: हिमालय को जानने-समझने की कोशिश

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago