समाज

एक त्रिशूल की आंखिन देखी

मैं, अर्थात गोपेश्वर के गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित त्रिशूल, आँखिन देखी अपनी कथा सुनाकर जी हल्का करना चाहता हूँ. त्रिशूल का देखा हुआ अर्थात त्रिशूलन देखी. (Tragedy of Trishul Temple Garhwal)

तराइन के मैदान में मुहम्मद गौरी के सिपाही जब पृथ्वीराज चौहान की सेना के हाथों में कसमसा रहे थे ठीक उसी समय केदारखण्ड में विजयोन्मत्त नेपाल स्वामी अशोकचल्ल द्वारा मुझे यहां गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में अपनी विजयगाथा उत्कीर्ण कर फिर से (मूल रूप में गणपति नाग द्वारा  छठवीं सदी में स्थापित) गाड़ा जा रहा था. देवभू पर विजय का चिरस्थायी स्मृति स्वरूप. अद्भुत था नेपाली गुरखाओं का शौर्य, और निर्दयता भी. मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी भी इनकी गंध से ही इलाका खाली कर भाग उठते थे. आज आठ शताब्दी बाद जब कभी अपने चबूतरे पर धूप सेंकते, बोरे की जैकेट पहने, मूंगफली टूंगते नेपालियों को देखता हूं तो काल की विचित्र गति के सम्मुख खुद भी नतमस्तक हो जाता हूं. (Tragedy of Trishul Temple Garhwal)

तब की छानियों-छप्परों वाले गोथला गांव को आज अट्टालिकाओं में तब्दील होता देखकर अपने भाग्य पर कभी-कभी अफसोस भी होता है. सेचता हूँ कि इस गांव का एकमात्र बिलो पावर्टी लाइन बाशिन्दा मैं ही तो हूँ. सर पर जिसके एक छप्पर भी नहीं और भोग को प्रसाद चढ़ाना भी लोग अक्सर भूल जाते हैं. कभी कभार सुस्ताते हुए कोई साधु महात्मा उत्तरकाशी के मेरे सहोदर के चित्र दिखाता है तो बस रुलाई ही फूट पड़ती है. मेरे ठीक सामने पुरातत्व विभाग का चेतावनी देता बोर्ड तो आपने देखा ही होगा. मुझे इसका संदेश उस सफाईकर्मी की बातों सा लगता है जो एक दिन अपने साथियों से एक स्त्री के बारे में कह रहा था – “अब से जे मेरी लुगाई है. कोई इसे छेड़ने की गुस्ताखी ना करियो.”

फोटो: हरीश भट्ट

ढीठ से ढीठ आदमी भी अपनी लुगाई को ठंड-गर्म से बचाने की कोशिश करता ही है, जनाब शहर के एक इतिहासकार बता रहे थे कि इस विभाग की एक लुगाई हो तो इसे सुध लेने की फुर्सत हो पर यहां तो गोपीनाथ जी का भी रिकार्ड टूटता हुआ नज़र आ रहा है. वैसे स्वयं गोपीनाथ मंदिर की रामकहानी भी कुछ ऐसी ही है.

बात यहीं तक होती तब भी काबिले-बर्दाश्त होती पर यहां तो हर छोटा बड़ा जब तक दोनों हाथों से मुझको न झकझोरे तब तक अपना मंदिर-भ्रमण पूर्ण ही नहीं समझता. मंदिर को प्रणाम और मुझे कंपायमान. कैसे समदर्शी हो प्रभु? वैसे इसके पीछे उस पौराणिक जनश्रुति का भी हाथ है जिसमें मेरे कनिष्ठिका-स्पर्ष से कंपित होने तथा पेशीय बल से अविचलित रहने की बात बतायी जाती है. एक जमाने की बात सही भी थी किन्तु इसमें चमत्कार जैसी कोई बात नहीं बल्कि यह तो यहां के स्थानीय वास्तुविदों और शिल्पियों का कमाल था. उनके शिल्प-कौशल की महारत थी. वास्तव में चमत्कार-मोह ने यहां के लोगों की वैज्ञानिक समझ को उभरने ही नहीं दिया, नहीं तो ऐसे ही मंदिर-त्रिशूल अब भी निर्मित-स्थापित होते रहते. हाँ, जनश्रुति का एक सांकेतिक महत्व अवश्य था कि किसी को भी अपनत्व और स्नेह भरे स्पर्श से जीतना आसान होता है बनिस्बत मांसपेशीय बल के. फिर अब तो इस चमत्कार का केन्द्र मेरा आधार-स्तम्भ भी टूट गया है और मैं जैसे-तैसे खड़ा हूँ, पर लोग हैं कि हिलाए जा रहे हैं.

छोड़िए भी. मैं तो आपबीती पर ही अटक गया. कुछ इन आँखिन देखी भी तो सुन लीजिए. एक अरसे का चार धाम यात्रा का पवित्र हाइवे यहीं से होकर गुजरा करता था. मेरा प्रांगण हर यात्री का अनिवार्य पड़ाव हुआ करता था. टनटनाती घंटियों, मंत्रोच्चारण की स्वरलहरियों और कीर्तन-भजन के नाद-अनुनाद के संगीत से हर संध्या अनुप्राणित रहती थी. वहीं अब शोर-शराबे के बीच मंदिर के क्रियाकलापों का महत्व गौण हो गया सा प्रतीत होता है. हिंसा और बदले की भावना से भरी हुई फिल्में देख-देखकर अब के भक्तों की प्रार्थनाएं भी कुछ इस प्रकार होती हैं – “भगवान मैंने पूरे ग्यारह सोमवार का व्रत लिया था और बदले में तूने क्या दिया? ये चार टके की नौकरी और एक झगड़ालू बीबी.”

रातों में तब उजाले की चकाचौंध भले ही अब जैसी न रही हो किंतु तब ज्ञानी-संन्यासी और गृहस्थ साहित्य-विज्ञान, देशाटन और पुराण के ज्ञान की रश्मियों का आदान-प्रदान कर दसों दिशाओं को प्रकाशमान करते थे. गुरू-गंभीर शास्त्रार्थ हुआ करते थे तो सरल-निश्छल हास-परिहास भी. यहीं नागपुर गढ़पति अपनी शक्ति-भक्ति प्रदर्शन-निवेदन और मनोबल-वर्धन के लिए आते थे तो यहीं एटकिंसन और राहुल ने मेरे वक्षस्थल पर उकेरे गए शब्दों को पढ़ने की कोशिश भी की थी (दिल की बातें भी पढ़ पाते तो ये कथा क्यों सुनानी पड़ती).

फोटो: शिवम जोशी

अब जिस सड़क का नाम मंदिर मार्ग हो गया है, कभी-कभी सोचता हूँ कि मंदिर न होता तो इसे क्या मार्ग कहते लोग? मार्ग कहते भी कि रोड कहते. इधर नवविवाहित जोड़ों को मुझे बैकग्राउण्ड में ले फोटो खिंचवाने का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है. समझ में नहीं आता क्यों? मैं तो आशीर्वाद-सक्षम ईश्वर भी नहीं या उनका प्रतिनधि भी नहीं. मुझे तो एक ही अर्थ समझ में आता है और ये कि – ये बावजूद शादी के, जिंदगी में ट्राइएंगुलर-लव की संभावनाओं के विकल्प खुले रखना चाहते हैं.

एक शिकायत मुझे स्वयं अशोकचल्ल से भी है. मुझे गाढ़ने का स्थल उन्होंने सही नहीं चुना. ठीक शिवजी और हनुमान मन्दिर के बीच में. भक्त पहले हनुमान मंदिर में जाएं तो शिवजी की भौंहे चढ़ जाती हैं और शिव-मंदिर में जाएं तो हनुमान जी मुँह फुला लेते हैं.

रूपगर्वित कामदेव को यहीं शिवजी ने तीसरे नेत्र की ज्वाला से जलाकर खाक कर दिया था. मेरा अनुभव है कि गर्वहंता है यह स्थल. झूठे गर्व और अहंकार में यहां आने वाले दुबारा उसी रुतबे और प्रतिष्ठा के साथ यहां नहीं पहुँचते, मगर निर्मल मन की बेआवाज़ पुकारों की यहाँ त्वरित सुनवाई होती है. वर्तमान बंज्याणी के ठीक नीचे समतल खेतों वाली जगह में कभी कश्मीरी-हाट नामक समृद्ध बाजार हुआ करता था जहाँ कश्मीर से लेकर तिब्बत तक के व्यापारी विभिन्न पर्वतीय उत्पादों का क्रय-विक्रय किया करते थे. मंदिर और बाज़ार का बड़ा ही अन्योन्याश्रित संबंध हुआ करता था तब. भूकम्प के क्रूर झटकों से टूटी चाड़ा पहाड़ी ने इसे उजाड़ न दिया होता तो एक ऐतिहासिक बाज़ार के साथ मंदिरों की विशाल श्रृंखला भी गोपेश्वर की पहचान होती.

जब विरही के विरहाश्रुओं ने जिला मुख्यालय को चमोली से उछालकर गोपेश्वर पहुँचाया तो गोपेश्वर के विकास का एक नया अध्याय शुरू हुआ था. गीतास्वामी जी की तपस्या का प्रतिफल इंटर कालेज तो पहले से ही स्थापित था, तमाम महकमों के कार्यालय भी यहां स्थानान्तरित-स्थापित होने का सिलसिला शुरू हो गया था.

यहां के सुहाने मौसम, शांत वातावरण ने पूरे जनपद और बाहर से लोगों को यहां बसने के लिए आकृष्ट किया. फलस्वरूप शीघ्र ही बांज-बुरांश की हरियाली से आच्छादित पूरी पहाड़ी कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गयी. 1997 में रुद्रप्रयाग जिले का गठन न हुआ होता तो लगता था अपने ही बोझ से धराशायी होने की ओर अग्रसर हो रहा है यह शहर.

वर्ष 2000 में चिर-प्रतीक्षित राज्य भी उत्तरांचल नाम से बन गया, पर गोपेश्वर के हिस्से में आया अंतहीन पलायन का सिलसिला. थोक के भाव मकानों की खरीद-फरोख्त शुरू हो गयी. ऐसा लग रहा था कि मानो किसी कबाड़िए के हाथ पूरा शहर ही बिक रहा हो. जिस गोपेश्वर में कभी किराए का एक कमरा ढूंढना, ओलम्पिक मेडल जीतना-सा होता था, वहीं अब मकान पर किराएदार होना मकान मालिकों के लिए स्टेटस सिंबल हो गया है. यहां न बांध बन रहा है, न भूस्खलन हो रहा है फिर भी एक पूरे शहर का अनऑफिशियल पुनर्वास हो रहा है. यहां के रंग में घुल-मिल चुके यहां के वासियों का एक बड़ा हिस्सा यहां से जा चुका है. नए लोग आए हैं – खाली जगह भरने. खाली विरासत भी भर पाएगी, कहना मुश्किल है. मैं भी गोपीनाथ जी से प्रार्थना कर रहा हूं कि ये मुई राजधानी ऊपर (गैरसैंण) आए और मैं अपने इस शहर का पुराना वैभव पुनः देख सकूं.

फोटो: शिवम जोशी

अशोकचल्ल के समय से वैतरणी में बहुत पानी बह चुका है. क्या-क्या नहीं देखा. नेपाल-नरेश का आधिपत्य देखा, गढ़पतियों के झगड़े देखे, कत्यूरी देखे, पाल देखे और बुंलांदा बदरियों का दौर भी देखा. फिर अंग्रेज लाटों के नखरे भी देखे और देखी आजाद मुल्क की आजाद हवा. उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल और फिर उत्तराखण्ड का समानान्तर संघर्ष भी देखा.

बदले जमाने के बदले भक्तों (पर्यटकों) को भी देख रहा हूं जो नाम के आधार पर गंतव्य का मानस-चित्र बना लेते हैं फिर बुदबुदाते भी रहते हैं – हमने तो सोचा था गोपेश्वर अर्थात गोपियों का ईश्वर, खजुराहो का ही कोई लघु संस्करण होगा पर यहां तो भोले बाबा का नंगा त्रिशूल है और जगह-जगह बिखरे विशालकाय शिवलिंग हैं. विज्ञान और अर्थ का पहाड़ी जीवन में बढ़ता हुआ दखल देखा. ढाकरियों के वंशजों को मारुतियों में लहराते हुए देखता हूँ तो मन बल्लियों उछलने लगता है, फिर मोर की तरह अपने को देखता हूं तो शर्माने भी लगता हूं खासकर जब ये मुझे आउटडेटेड सा कुछ कहते हैं. मैंने तो घुघुतियों से भेजे जाते रैबारों का समय देखा है फिर चिट्ठी, फोन और अब मोबाइल पर बतियाते बांकों को भी देख रहा हूँ. शहर में मंदिर ही इतने हो गए हैं कि इस पौराणिक मंदिर को पहचान के लिए अब मेरा मोहताज़ होना पड़ रहा है. शाम को मंदिर में मिलेंगे. कौन से? त्रिशूल वाले.

आठ सौ साल का जीवन हो गया है मेरा. जीवेम् शरदः शतम् के आठ एक्सटेंशन ले चुका हूं. स्वार्थान्धता, स्वकेन्द्रीयता का चरमोत्कर्ष देख रहा हूं. किसी को फुर्सत ही नहीं कि आ के बैठे पहलू में, दो लम्हों के लिए ही सही. ध्यान को लोग अब मेडीटेशन कहते हैं ओर इसके लिए टीवी चैनल ऑन कर देते हैं. शांति को अब ट्रैंक्युलिटी कहते हैं और इसके लिए मंदिर की बजाय जीरो बैंड की ओर जाते हैं. अब न महाभारत लिखी जा रही है न रामायण, न स्मृतियां और न संहिताएं. फिर भी लोगों को मानसिक थकान हो रही है. जबरदस्त और दैनिक हो रही है. इतनी कि बिना अंग्रेजी या लोकल अड्डों पर जाए मूड फ्रेश ही नहीं हो रहा. इधर मैं हूँ कि उम्मीद कर रहा हूँ कि आएगा कोई जो पूछेगा – मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं? और मैं छूटते ही कहूँगा कि पहले मेरी टूटी हुई टांग तो वैल्ड करवा दो फिर और कुछ कहूंगा.

ऐसा भी नहीं कि इतने लम्बे समय में मैंने प्रतिष्ठित लोगों से घनिष्ठता नहीं बढ़ायी हो पर क्या करे, अक्सर ऊँचे लोग कहते हैं – क्या एंटीक पीस हो यार. चाहते तो हैं कि तुम्हें उखाड़कर अपने लॉन में लगवा दें पर ये सामने का बोर्ड.

चलो एक अच्छी सी तस्वीर उतारकर अपने ड्राइंग रूम में रख लेंगे. नगर-जिले-प्रदेश के कई खेवनहार भी पड़ोसी हैं मेरे पर मेरी किस्मत कि कोई भी मुझे अपने समर्थकों में नहीं गिनता. काश, मेरा भी वोट होता.

हाँ, गोपेश्वर के स्थानीय नामों की विडंबना देख और अपने संभावित हश्र के बारे में सोचकर कभी-कभी सिहर भी उठता हूं. सोचता हूं कभी कबीरदास जी इधर आ जाएं तो क्या एक बार फिर से नहीं रो पड़ेंगे. यहां नाम कुण्ड है, पर है खाल भी नहीं. हल्दापानी है पर हल्दी है न पानी. पठियालधार है पर न पठाली हैं न उनसे ढकी छतें. नैग्वाड़ पर नया कुछ नहीं. नए नामकरण हुए हैं पर उनमें भी सार्थकता कहाँ है, सुभाषनगर के लोग नागरीय समस्याओं के सर्वाधिक गुलाम हैं. बसंत विहार, वराह-विहार अधिक लगता है. कृष्णा कालोनी ने खिसकना अलग शुरू कर दिया है.

अब आप पूछेंगे कि आखिर मैं चाहता क्या हूँ. आप सबका स्नेह, प्रेम और क्या. भले ही मैं अशोकचल्ल द्वारा पुर्नस्थापित त्रिशूल हूं पर अब मेरी पहचान गोपेश्वर त्रिशूल के नाम से है. मैं आपका बड़ा-बुजुर्ग हूँ. क्या नाराज़ होने का इतना भी हक नहीं है मुझे? मुझे इस भूमि से भी अत्यंत लगाव है. नहीं चाहता हूं कि फिर आए कोई अशोकचल्ल और घोंपे इसके सीने में – एक और त्रिशूल.

लेखक

-देवेश जोशी

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197  और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

7 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

7 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

5 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago