काली कुमाऊँ के देवीधूरा में रक्षा बंधन (श्रावणी पूर्णिमा) के दिन बग्वाल (पत्थर युद्ध) खेले जाने की परंपरा है.
इससे पहले परंपरा के अनुसार श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन बग्वाल यूद्ध में भाग लेने वाले महर और फड़त्याल क्षत्रिय कुलों के चार खामों द्वारा वाराही मंदिर के पुजारियों तय मुहूर्त मंदिर में देवी डोले का पूजन किया जाता है. डोला पूजन की इस प्रक्रिया को सांगी पूजा कहा जाता है. इसमें चार खामों, लमगड़िया, वालिग, चम्याल और गहड़वाल, तथा सात तोकों के मुखिया साथ होते हैं.
सांगी पूजन से पहले एक तांबे के संदूक में बंद वाराही, महाकाली और महासरस्वती की प्रतिमाओं को बाहर निकलकर उन्हें भण्डार गृह से नंदघर ले जाया जाता है. यहाँ इन मूर्तियों को स्नान करवाया जाता है. मंदिर के पुजारी आँखों में पट्टी बांधकर स्नान और श्रृंगार की प्रक्रिया संपन्न करवाते हैं. इसके बाद मूर्तियों को दोबारा उसी पेटी मन बंद कर डोले के रूप में मुचुकचंद आश्रम ले जाया जाता है. परिक्रमा के बाद इन मूर्तियों को दोबारा मंदिर में ही रख दिया जाता है. इसके बाद सभी खामों के लोग एक दूसरे को पूर्णिमा के दिन बग्वाल का न्यौता देते हैं.
देवी का डोला निकले जाने के पीछे मान्यता है कि मध्यकाल में जब तुर्कों और रुहेले आक्रमणकारियों द्वारा इन्हें लूट लिया गया था. इसे ले जाते समय एक साहसी लमगड़िया युवक द्वारा जान की बाजी लगाकर इसे छीन लिया गया था. तभी से इसकी रक्षा के लिए लमगड़िया लोगों के गाँव कोट के प्रधान के घर रखा जाता था. एकादशी के दिन चारों खामों के लोग कोटला जाकर इसकी पूजा अर्चना करते थे और पूर्णमासी के दिन जुलूस के साथ इसे देवी मंदिर लाया जाता था.
बाद में वाराही देवी के भव्य मंदिर भवन का निर्माण कर इन मूर्तियों को यहीं पर रखा जाने लगा. इसके बाद परंपरा के अनुसार चारों खामों के लोग एकादशी के दिन यहाँ इकठ्ठा होकर पूजा अर्चना करने के बाद एक-दूसरे को पूर्णमासी की बग्वाल का न्यौता देते हैं.
पूर्णमासी के दिन चारों खामों के लोग सुबह मंदिर पहुंचकर देवी की पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद लेजाकर अपने गाँव में बांटते हैं. बाद में इस पाषाण युद्ध में भाग लेने के इच्छुक योद्धा अपने मुखियाओं के साथ पुनः अपने निशान, ढोल, तुरही, शंख, घड़ियाल, नगाड़े लेकर मंदिर प्रांगण पहुँचते हैं. इन योद्धाओं को द्योका (देवी को अर्पित) कहा जाता है. इनके हाथों में आत्मरक्षा के लिए बांस की छंतोलियाँ होती हैं. द्योका को सांगी पूजन के बाद से बग्वाल तक व्रत धारण कर अनेक नियमों का पालन करना होता है.
देवी के धाम पहुंचकर सभी द्योका देवी की गव्यूरी (गुफा) की परिक्रमा करने के बाद रणक्षेत्र (खोलीखाण, दुबाचौड़ मैदान) की पांच दफा परिक्रमा करते हैं. इसके बाद यह लोग अपने परंपरागत रूप से तय स्थान पर जाकर मोर्चा संभाल लेते हैं. परंपरानुसार मैदान के पूर्वी कोने पर गहड़वाल खाम, दक्षिणी कोने पर पर चम्याल खाम, पश्चिमी कोने पर वालिग़ खाम, उत्तरी कोने पर लमगड़िया खाम के योद्धा मोर्चा सँभालते हैं. पत्थर युद्ध के लिए ये चारों खाम महर और फड़त्याल में बंट जाते हैं.
पुजारी के शंखध्वनि के संदेश के बाद दोनों धड़े कोरी बग्वाल शुरू करते हैं, इसमें छन्तोलियों की आड़ नहीं ली जाती. इसके तत्काल बाद छंतोलियों की ओट में प्रचंड पाषाण वर्षा शुरू हो जाती है.
किवदंती है कि पहले यहाँ हर साल बारी-बारी से इन चारों खमों से किसी एक युवक की बलि देने की परंपरा हुआ करती थी. एक दफा एक बुढ़िया के इकलौते बेटे की बारी आने पर उसने वाराही देवी की घोर तपस्या की जिससे कि उसके वंश का नाश न हो. उसकी तपस्या से खुश होकर देवी ने कहा कि यदि उसके गणों के लिए एक व्यक्ति के बराबर रक्त मिल जाये तो वह बलि का आग्रह त्याग देंगी. चारों खामों केन लोगों ने इसकी आपूर्ति के लिए बग्वाल युद्ध की परंपरा शुरू करने का फैसला लिया. हर खाम के मुखिया का पद वंशानुगत होता है और वही गाँव का प्रधान भी होता है. वालिक खाम को चमलिया और चमलिया खाम को गहड़वाल खाम के साथ युद्ध की अनुमति है.
पत्थरों के इस प्रचंड युद्ध में पुजारी एक मनुष्य के बराबर का खून बहने का अंदाजा लगाने के बाद छत्रक की ओट में तांबे का शंख व चंवर लेकर युद्ध भूमि के बीचों-बीच जाकर शंख बजाकर व चंवर हिलाकर बग्वाल के खात्मे की घोषणा करता है. इसके बाद बग्वाल रोक दी जाती है और सभी एक दूसरे के गले मिलकर शुभकामना देते हैं.
कहा जाता है कि यह कभी क्षत्रियों के सामरिक युद्धाभ्यास का एक उत्सव हुआ करता था जो काली कुमाऊँ में करीब 20 जगहों पर मनाया जाता था. जिसमें से अब देवीधूरा में ही बग्वाल की परंपरा जिंदा है.
हाल के वर्षों में न्यायालय द्वारा पत्थरों के इस्तेमाल में प्रतिबन्ध लगाये जाने के बाद अब यह बग्वाल फलों से खेली जाती है, जिसमें एक समय बाद जमकर पत्थर व डंडे भी चला करते हैं.
-काफल ट्री डेस्क
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