आज मैं आपको पहाड़ के खानपान के बारे में बताता हूं. पहले मैं आपको यह बताता चलूं कि मैं पहाड़ी खानपान का कोई एक्सपर्ट नहीं हूं बस बड़े बुजुर्गों को खाना बनाते देखा या उनकी कही बातें सुनी या किसी से पूछा. और उनके कुछ निष्कर्ष निकाल कर आपके सामने रख रहा हूं.
(Traditional Food Uttarakhand Dal Bhaat)
भोजन का नाम आते ही जो चीज सबसे पहले आती है वह है दाल-भात. या यूं कहिये दाल-भात पहाड़ी का पर्याय है. यहां तक कि कुछ शुभ अवसरों पर जैसे बच्चे का नामकरण, महिलाओं की गणेशपूजा या बारात वापसी पर होने वाले भोजन को भी लोग भात खाना ही कहते हैं. मसलन, किसी का बच्चा होने वाला हो या लड़का विवाह योग्य हो या विवाह के बाद महिला के रजस्वला होने पर लोग बाग पूछते हैं भात कब खिला रहे हो. किसी के यहां भात खाना सम्मान का प्रतीक होता था खाने वाले के लिए भी और खिलाने वाले के लिए भी हालांकि कुछ लोंगों ने इसे जातिगत ऊंच-नीच के तौर पर भी प्रयोग किया, इसे एक सामाजिक बुराई ही कहा जाऐगा.
मेहमान को बुलाने का या गांव में आये किसी परिचित या मित्र को भी अपने घर बुलाने में अक्सर ये कहा जाता है- कदिनै ऐबेर एक गास भातक खै जाना या भोल गासेक भात हमारै यां खाला हां. भात पहाड़ की सस्कृति में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है. कहीं-कहीं मैंने पुराने समय में ब्याह शादियों में रात को भी भात बनते देखा है.
अब चरचा करते हैं भात बनता कैसे हैं. परम्परागत पहाड़ी भात घर के चावलों का बनता है. बस आपको उसमें से मांड नहीं निकालना है. असल में भात थोड़े मोटे चावलों का स्वादिष्ट बनता है. मांड निकला न हो अगर जरूरी हुवा तभी निकाला जाता है. भात बिलकुल सूखा सा भी न हो थोड़ा गिलगिला सा जब पड्यूल (पोनी) से निकालो तो ढेल (डली) जैसा निकलना चाहिये. अगर चावल के दाने अलग-अलग हों तो वह भात कहां ठहरा. वह चावल कहलाते हैं जिन्हें आप मैदानों में खाते हैं. भात का सबसे स्वादिष्ट हिस्सा वह होता है जो तौली या पतीली की तली में चिपककर जल सा गया हो हल्का-हल्का. जब आप थाली में भात खा रहे हों तो दाल कटोरी में आ जाय तो मजा खतम. दाल तो आधी भात के ढेल के ऊपर और आधी थाली में बहनी चाहिये. एक किनारे पर टपकिया साग हो और भुनी हुई खुश्याणी. थोड़ी झोली भी तो चार चांद. आपको टपकिया और झोली के बारे में बाद में बताऊंगा यहां चर्चा करते हैं भात की हमसफर दाल की.
(Traditional Food Uttarakhand Dal Bhaat)
पहाड़ी दाल तभी तक पहाड़ी है जब तक वह सिम्पल न हो. ज्यादा लहसन प्याज टमाटर डाल दोगे तो बात खतम. दाल आप जो भी खा रहे हो उसका स्वाद ही ज्यादे आना चाहिये. मसाले उतने ही हो कि दाल के स्वाद को सपोर्ट करें बीच में गठबन्धन सरकारों की सहयोगी पार्टी की तरह पंगे न करे. ध्यान देने वाली बात ये है कि किस दाल में कौन सा मसाला पड़ेगा और किस चीज का तड़का रबेगा. टमाटर प्याज डालकर फ्राई दाल तो अपना पहाड़ीपना खो देती है.
परम्परागत दाल बनाने का तरीका है- पहले पतीली या भड्डू को मिट्टी से पोत कर पानी खौलाया जाता है जिसे अध्यैणि धरना करते हैं. जब पानी फूटने लगे खौलकर तभी उसमें एक दो चम्मच तेल घी डाल दिया जाता है. इसका कारण यह है कि दाल से झाग आकर उबाल न चला जाये. फिर खौलते पानी में ही दाल डाल दी जाती है उसी स्टेज पर हल्दी. बस दाल को पकने दें. दाल कोई भी हो खड़ी या दली हुई. तरीका यही है. एक बात और दाल को पहले से भिगाने का तरीका भी कुछ ठीक नहीं रहता. दाल कुछ पंण पँण हो जाती है कहते हैं बड़े बुजुर्ग. खौलता पानी सभी दालों को गला देता है.
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि खड़ी दाल में डाड़ू नहीं लगाते. अगर बरतन की तली हल्की हो तो जरूरी होने पर पडयूल से चलाया चाहिये. आप मिर्च खाते हों तो नमक मिर्च भी डाल दें नहीं तो असली मजा तेल में डीप फ्राई भुनी मिर्च की कटक या कोयले पर रोस्टेड खुश्याणी दाल में ऊपर से थाली के ऊपर चूर कर खाने से मजा दुगुना हो जाने वाला हुवा. जब आप पतीले में या भड्डू में दाल बना रहे हों तो समय ज्यादा लगेगा और पानी ज्यादे लगेगा. ठन्डा पानी मिलाओगे तो दाल का मजा खतम तो इसका उपाय है दाल में स्वाड् रखना. मतलब भडडू के उपर एक लोटे में पानी रखना ताकि दाल पकती रहे और भाप से पानी उबलता रहे. वही पानी बार-बार मिलाया जाये.
(Traditional Food Uttarakhand Dal Bhaat)
अब आती है तड़के की बारी. कोयलों में लोहे डाड़ू (कडछी) को गरम करके घी अच्छी तरह धुआँ आने तक जला कर जम्बू या दुन के पत्तों का धुंगार लगाया जाता है जब छ्वां-आं-आं और डाड़ू को दाल में डुबाने पर भड-भट-भड-भट की आवाज आ जाये तो पड़ोसी को पता चल जाऐगा कि आपके यहां दाल बन चुकी है. तड़का जम्बू के अलावा जीरा धनिया और लहसुन का भी लगता है. तरीका यही है. घी की जगह सरसों का तेल भी बढिया ही होता है.
बस यही साधारण तरीका है पहाड़ी दाल बनाने का. तड़का किस दाल में किसका लगेगा यह जानकारी होना जरूरी है. जैसे मसूर की दाल में लहसुन तो गहत की दाल में जम्बू. मसूर की दाल को पीसकर मसूरी बना रहे हो तो गन्द्रैणी का. बाकी में जम्बू, जीरा दुन वगैरह.
कुछ दालों में लास्ट में उपर से गरम मसाला भी बुरका जाता है. खासकर सर्दियों में. गरम मसाला घर का बना होना चाहिये जिससे भुटैन आये न कि बजार के मसाले की तीखी खुशबू. माफ करना मुझे तो बजार के गरम मसाले या सब्जी से सन्यास मारे की सी खुशबू आती है.
(Traditional Food Uttarakhand Dal Bhaat)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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