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  1. गोविन्द गोपाल

    ……जब पहाड़ों में भट्ट की खेती को प्रोत्साहित करने के लिये जब इसे सरकारी संरक्षण दिया गया तो पहाड़ की पारम्परिक खेती प्रभावित हुई जिसके प्रभावों पर एक लम्बी रिपोर्ट तैयार की जा सकती है.’ — ये आपका अच्छा सुझाव है पर सरकार में नींद है हावी पहाड़ की एक्चुअल समस्या व समाधान खोजने पर . नीति बनाने वाले तो सिडकुल, आबकारी और दिल्ली से आये निर्देशों से इधर-उधर नहीं जा पा रही है . थोड़ा समय मिल गया तो अपने चेले चपाटों और ठेकेदारों को पद और काम व पैसा दिलाने का सर्वर ही काम कर रहा है . छपाई और बखान बहुत उत्तम दर्जे का हो रहा है . हमारे पौष्टिक अनाजों के उत्पादन की वाट लग चुकी है . ग्रामीण परिवारों में इसका पकाने वाले भोजन पर प्रभाव पडा है . बच्चों को तो गर्भ से ही संतुलित और पौष्टिक ताजे स्थानीय भोजन की कमी हो गयी है . पर्वतीय गर्भवती महिलाओं के भोजन की पौष्टिकता कुप्रभावित हो गयी है . गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर बढ़ रही हैं , और यदि पहाड़ में बच्चे हो रहे हैं तो उनमें कुपोषित और दिव्यांग अधिक हो रहे है .( नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे – 5 के आंकड़े इस निराशा को दर्शाते हैं .) और जो बच्चे बड़े हो रहे हैं उनमें कई नशे और रोड एक्सीडेंट्स के शिकार हो रहे हैं . हमारा भविष्य खतरे में हैं , पर कोई चिंता नहीं है इनकी चुनाव से बड़ी . ऐसे में अन्यमनस्क वाले नेतृत्व से इस तरह के संवेदनशील विषय पर अध्ययन की परामर्श करना परामर्शदाता केलिए निराशाजनक ही हो सकता है . अब पहाडी काले भट्ट होने बहुत कम हो गए हैं और अन्य पहाडी अनाज भी . अब बस यहाँ नेता ही हो रहे हैं और जेसीबी आ रही है और देहरादून सेलेकर दिल्ली तक हर पार्टी के काम आ रहे हैं …… ऐसे में जनता की भोजन थाली की पौष्टिकता को लेकर आपकी परामर्श इनके काम आयेगी कैसे ?

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