उस दिन इत्तेफ़ाक़न अपने दोस्त आलोक के घर जाना हुआ. कुछ सालों बाद. (Tommy Babu of Sadar Bazar Haldwani)
आलोक मेरे सबसे पुराने दोस्तों में है. कॉलेज के ज़माने में उसके घर में मौजमस्ती के कई क़िस्से अब तक याद हैं. बेहद ज़िन्दादिल इन्सान आलोक के पापा तब साठ के पार थे. इसके बावजूद उनकी उपस्थिति हमारी दावतों वगैरह में कभी आड़े नहीं आती थी – यानी न कोई झेंप न डर. बल्कि वे खुद हमारे साथ हम जैसे बन जाया करते थे. और क्या तो उनके किस्सों की खानें खुल जाया करती थीं. (Tommy Babu of Sadar Bazar Haldwani)
उनके साथ फिर बड़े यादगार क्षण बीते. पहले तो वे अपने पीठ के दर्द का मज़ाक बनाते रहे कि इस दर्द ने उन्हें हल्द्वानी का रामलीला मैदान बना लिया है, जहां चाहे वहां पहुंच जाता है वगैरह. बातों का सिलसिला दरअसल एक साहब के ज़िक्र से चालू हुआ. अंकल के साथ जवानी के दिनों में भीषण लुत्फ़ काट चुके इन साहब ने राजनीति में हाथ आजमाए और राज्य सरकार में मंत्री के ओहदे पर भी पहुंचे. मंत्री महोदय तब खुले में दारू पीने से गुरेज़ करते थे क्योंकि इमेज का चक्कर पड़ता था. खुले में दारू पीना मंत्री जी ने काफ़ी पहले बन्द कर दिया था लेकिन एक ज़माना था …
मंत्री जी को छोड़िए साहब. बातों बातों में मंत्री जी से होते होते बात अंकल के अंतरंग यारसमूह तक पहुंच गई. और ज़िक्र आया टॉमी बाबू का. गोश्तखोरी में विश्वरेकॉर्ड कायम कर चुके टॉमी बाबू अच्छे कुक थे. तीनेक दोस्त इकठ्ठा हुए और बन गया मीट-भात का प्रोग्राम. यह तय होता था कि मीट टॉमी बाबू ही पकाएंगे. यह दीगर है कि यारों को टॉमी बाबू की यह हरकत कतई पसन्द नहीं थी कि पकते पकते दो किलो मीट सवा किलो रह जाता था. कलेजी के टुकड़े तो टॉमी बाबू कच्चे खा जाया करते थे. हांडी चढ़ते ही मिनट-मिनट पर एक टुकड़ा निकाल कर चखने और “ऐल नि पक” (कुमाऊंनी में “अभी नहीं पका”) एनाउन्स करने का सिलसिला बंध जाता. टॉमी बाबू चूंकि बढ़िया कुक थे सो दोस्त बरदाश्त कर लेते.
टॉमी बाबू हैन्डसम आदमी थे. लम्बा कद. एथलीट सरीखी देह. और बदन में ताकत इतनी कि किसी के गालों पर घूंसा मारें तो समझ लीजिए दो-चार दांत गए और छः-सात लगे टांके. दरअसल खाली समय में टॉमी बाबू एक अन्य मित्र की राशन की दुकान पर दीवार से सटा कर रखी डली वाले नमक की बोरियों पर बॉक्सिंग प्रैक्टिस करते थे.
हल्द्वानी शहर में डंका बजता था टॉमी बाबू के मुक्के का.
होली आती तो होलिका दहन के लिए लकड़ी कम पड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. टॉमी बाबू मित्रों के साथ सदर बाज़ार में निकलते और अपनी मर्ज़ी के हिसाब से किसी दुकान के आगे धरे तखत या बेन्च को उठवा लेते या कुर्सी मेज़ को. लकड़ी अब भी कम होती तो जो भी पहला बन्द दरवाज़ा मिलता टॉमी बाबू उस पर एक मुक्का मारते और उनका अनुसरण करते दोस्त टूटे दरवाज़े को लाद ले जाते. दरवाज़ा बन्द करे भीतर बैठे/सोये/खाते/पीते लोग चूं भी नहीं करते थे. “टॉमी बाबू होंगे!” यानी ये साख थी टॉमी बाबू के मुक्के की. लोग उसकी आवाज़ तक पहचानते थे.
अंकल के आराम का बखत होता है और वे भीतर चल देते हैं. मेरे इसरार पर आलोक अपने पापा-मम्मी की शादी की अल्बम निकाल लाता है. उसी में से बारात की दो तस्वीरें इस पोस्ट में लगी हुई हैं.
टॉमी बाबू की मूंछें हैं और उन्होंने बैन्ड वाले का टोप पहना हुआ है
-अशोक पाण्डे
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