शिकंजे में बदलती दीवारें
टिकेन्द्र नाम होगा उसका, जिसे वह कुछ अजीब से लहज़े में टिकेन्दर कह कर बताता है. जन्मतिथि उसके लिए एक गैर जरूरी सी चीज है. उम्र पूछने पर वह टालने वाले अंदाज़ में, शायद इस नीयत से कि वार्तालाप आगे न खिंच जाये, बुझी हुई आवाज़ में कहता है, “होगी शोल सत्र साल.” उसके चेहरे पर ठहरा हुआ भोलापन और दूर क्षितिज पर टिकी भाव प्रवण आंखें मुझे डिकेन्स के प्रसिद्ध उपन्यास ओलिवर ट्विस्ट के मुखपृष्ठ की याद दिला देतीं हैं.
(Tikendra Article Rajshekhar Pant)
इस बीच बरसात के कारण घर की ओर आने वाले रास्ते के अगले बगल उग आये झाड़ की सफाई के लिए मुझे पांच छह दिन के लिए किसी दिहाड़ी मजदूर की ज़रूरत थी. एक मित्र ने यह बताते हुए कि मज़दूर तो है पर काम का ज्यादा अनुभव उसे नहीं है, बस छोटा-मोटा कुछ कराना होगा तो कर लेगा, टिकेन्द्र को मेरे पास भेजा था.
मेरे मित्र ने ठीक ही कहा था. उसे वाक़ई काम का अनुभव नहीं था. वह घास के एक एक पौधे को दो अंगुलियों से पकड़ कर इस तरह से खींच रहा था जैसे मुट्ठी भर घास एक साथ झटके से उखाड़ लेने पर कुछ अनचाहा घाट जाएगा. मुझे आभास हो चला था कि काम पूरा होने तक मेरे अनुमान से दुगना समय तो निश्चित रूप से लग ही जायेगा. खैर… थोड़ी सी घास स्वयं उखाड़ कर मैंने उसे समझाने का प्रयास किया कि किस तरह से काम शीघ्र और बढ़िया होगा.
पहले ही दिन वह काम छोड़ कर मेरे पास आया और कहने लगा कि मैं उसे कुछ दूसरा काम बता दूं, क्योंकि घास में मच्छर बहुत काट रहे हैं. मैंने उसे हाथ, पैरों ओर चेहरे पर मलने के लिए उसे थोड़ा ओडोमास दे कर वापस काम पर भेज दिया. थोड़ा ताज्जुब भी हुआ मुझे, पहाड़ी कस्बा होने के बावज़ूद भीमताल में थोड़े बहुत मच्छर होते ज़रूर हैं पर इतने भी नहीं कि उनके डर के चलते काम ही न हो सके.
मैं टहलते हुए यूं ही उसके पास चला गया, सोचा थोड़ी देर इसके साथ बैठा जाये, शायद तब मच्छरों की उपस्थिति को सामान्य मान कर यह काम करता रहेगा. पास ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठ मैंने उससे बातचीत शुरू करने का प्रयास किया. ओडोमास लगा कर बहुत खुश था वह. “भौत बढ़िया औषधी है, कल से रोज लगा लुंगा,” बगैर अपना चेहरा उठाये उसने धीरे से कहा. बारह बजे के आसपास मैंने अपने साथ उसके लिए भी एक कप चाय मंगवा ली.
नेपाल के किसी छोटे से गाँव में घर है टिकेन्द्र का, जहां नदी बहती है, धान और गेहूं की खेती होती है. उसका एक छोटा भाई भी है, पिताजी शिमला में ‘बोझा बोकने’ का काम करते हैं. एक अच्छे से, लंबे चौड़े अंग्रेज़ी नाम वाले स्कूल में वह कक्षा नौ में पढ़ता है.
(Tikendra Article Rajshekhar Pant)
क्यों आया होगा टिकेन्द्र, सोलह-सत्रह वर्ष की कच्ची उम्र में मजदूरी करने. संभव है पैसे का अभाव हो. उसकी उम्र खेलने-कूदने और पढ़ने की है, स्कूल कोविड के चलते बेशक बंद होंगे, पर पढ़ना सिर्फ स्कूल तक ही तो सीमित नहीं होता. मेरे द्वारा बारबार कुरेदे जाने के बावज़ूद वह नपे तुले शब्दों, या प्रायः हाँ-ना में ही अपनी बात खत्म कर देता है. इससे पहले वह एक बार भारत और आया था, अपने दादा के साथ, जो अब भी बहुत ‘तरुण’ है.
चाय पी कर टिकेन्द्र वापस अपने काम पर लौट जाता है, ‘औषधी’ से पूरी तरह चमत्कृत है वह. कल्पनातीत सम्पन्नता, सुविधाओं, ऐशो-आराम से भरी दुनिया के बरअक्स टिकेन्द्र का अस्तित्व मेरे सामने प्रश्नों की लंबी कतार छोड़ जाता है. फिल्मों, क्रिकेट जैसे ग्लैमरस खेलों में करोड़ों, अरबों कमाने वाले लोग; कभी न खत्म होने वाली पैसों की भूख के चलते पॉर्न वीडिओज़ बनाने वाले लोग; छह करोड़ की गाड़ी या फिर संसद सदस्य होने के अहंकार में पुलिस या फिर किसी मंदिर के पुरोहित से उलझते लोग; पैसों के लिए न्याय का गला घोंटते, किसी की मजबूरी का फायदा उठाते लोग; हत्या, बलात्कार, लूट, दंगा करते, करवाते लोग; समाज, देश सेवा का नकाब पहने, आम आदमी को निचोड़ते नेता कहलाने वाले लोग- अंतहीन है यह फेहरिस्त.
और टिकेन्द्र… 400 रुपये की दिहाड़ी… वह भी शायद तब तक जब तक वह भारत में है. कुछ दिन काम करने के बाद वह मुझसे 800 रुपये मांग लेता है, “खर्चा चाहिए” खर्चा, यानि कि राशन-पानी के लिए पैसा. उसके पास घड़ी या मोबाइल नहीं है. दिन में खाने की छुट्टी या फिर शाम के पाँच बज जाने पर उसे बताना पड़ता है. रात को खाना खा लेने के बाद वह गहरी नींद में सो जाता है, सुबह फिर वही दिनचर्या. कालापानी, लिपुलेख विवाद, सिगौली की संधि इत्यादि के बारे में वह कुछ नहीं जानता, जानना भी नहीं चाहता. ओली, प्रचंड, हाओ यांकी वगैरा में कोई दिलचस्पी नहीं है उसकी. चीन बहुत दूर है, भारत उसे अपना देश लगता है. यहां आने पर कोई रोकटोक भी नहीं है.
(Tikendra Article Rajshekhar Pant)
सोचता हूँ किशोरावस्था के जिस संस्करण को वह जी रहा है, भोग रहा है, क्या वह उससे खुश होगा? संतुष्टि शब्द का प्रयोग में इरादतन नहीं कर रहा हूं, क्योँकि इसमें विराम का भाव है. संतुष्टि के बाद कुछ और पाने की इच्छा कमोबेश ठहर जाती है.
आज की दुनियां, स्वयं उसका अपना देश जिन सामाजिक, राजनैतिक हलचलों से गुजर रहा है उसको लेकर वह निरपेक्ष है. उसे बहुत ज्यादा मालूम भी नहीं है और ना ही वह जानने के लिए उत्सुक है. समाजशास्त्र विषय के अंतर्गत पढ़े गए इतिहास भूगोल का उसे सिर्फ उतना ही ज्ञान है जितना कि स्कूल के इम्तहानों को पास करने के लिए ज़रूरी होता है. धनोपार्जन का फिलहाल उसके पास एक ही साधन है- मज़दूरी. वह जानता है कि जिस दिन भी वह काम करेगा चार सौ रुपये उसकी जेब में होंगे. खाने के लिए दाल, भात, रोटी पर्याप्त है. पिज्जा, मंचूरियन, बटर चिकन, हक्का नूडल्स… कुछ पता नहीं है उसे. अकेले काम करते हुए वह अपनी भाषा में कुछ गुनगुनाता रहता है. कुछ और बड़ा होने पर वह भारत के “बड़े” शहरों “शिमला” और “गुजरात” को देखना चाहता है.
एक अलग दुनियां है उसकी, उसके सरोकार भी नितांत अलग हैं. कम से कम उसे देख कर, या उससे बातें कर ऐसा नहीं लगता कि अपनी ज़िंदगी के बरअक्स उसने कभी ऐसा कोई प्रतिमान गढ़ा हो जिससे तुलना कर उसे अपने बौनेपन या ऊंचाइयों का एहसास हो सके. पर टिकेन्द्र क्या हमेशा ऐसा ही रह पायेगा? दुनिया रहने देगी उसे ऐसा. वर्ड्सवर्थ ने कभी कहा था- शेड्स आव प्रिज़न हाउस बिगिन तो क्लोस अपॉन आ ग्रोइंग चाइल्ड.
(Tikendra Article Rajshekhar Pant)
मुझे काफ़्का का एक रूपक याद आता है. वह कहता है पहले हर दिशा में एक अनंत क्षितिज था. फिर… धीरे धीरे दीवारें उठने लगीं… निकट आने लगीं जल्द ही ये दीवारें, और फिर एक दिन शिकंजे की शक्ल में बदल गयीं. ये दीवारें संभवतः हमारे ज्ञान, हमारी महत्वाकांक्षा और अपेक्षा की हैं. हमें लगने लगता है कि बहुत कुछ है यहां जिसे हासिल किया जा सकता है, किया जाना चाहिए. कैसा विरोधाभास है यह! चारों ओर फैले अंतहीन क्षितिज में संतुष्टि का, सब कुछ पा लेने का एहसास समाहित था; और सिकुड़ कर शिकंजा बनता क्षितिज हमारी लालसा को, महत्वाकांक्षा को, लालच को बहुत अधिक बढ़ा देता है. अंततः यही तो बाइस बनता है करोड़ों कमा कर भी बेचैन रहने का, पॉर्न रैकेट चलाने का, जुर्म, शोषण और भ्रष्टाचार का. कितना अजीब है ना, यह पहचानना की इस सबके मूल में है हमारा ज्ञान, प्रकृति के रहस्यों को अनावृत करने की हमारी क्षमता. हरारी अपनी चर्चित पुस्तक सेपियंस में जब इस ओर इशारा करता है कि हमारी समस्याओं की शुरुवात संभवतः तब हुई थी जब हमारे किसी पुरखे ने खेती का आगाज़ किया था, तब वह शायद मानव सभ्यता के एक जटिल विरोधाभास को उद्घाटित कर रहा होता है.
प्रकारांतर से देखें तो हमारे अंदर का प्रामिथियस आज भी चट्टान से बंधा हुआ है. महत्वाकांक्षा और लालच के गिद्ध उसे लगातार नोच रहे हैं. अग्नि के अलावा बहुत कुछ चुराया है उसने प्रकृति के खजाने से, और उसकी सजा अब संभवतः उसकी नियति बन चुकी है. हाँ, नियति ही तो है यह, क्योँकि उसका अपराध अब तक भुलाया, भूला जा चुका है, मात्र दंड ही बचा है, जो चिरंतन है, अक्षुण्य है. … नियति को भी तो किसी तर्क से नहीं समझाया जा सकता है, इसे स्वीकारना होता है… बस.
टिकेन्द्र, मैं चाह कर भी यह कामना नहीं कर सकता कि तुम जैसे हो वैसे ही बने रहो, नज़दीक आती हुई दीवारों का शिकंजे में तब्दील होने का इंतज़ार हम सब करते है… शायद बहुत शिद्दत के साथ…
(Tikendra Article Rajshekhar Pant)
कला-फिल्म-यात्रा-भोजन-बागवानी-साहित्य जैसे विविध विषयों पर विविध माध्यमों में काम करने वाले राजशेखर पन्त नैनीताल के बिड़ला विद्यामंदिर में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. फिलहाल रिटायरमेंट के बाद भीमताल स्थित अपने पैतृक आवास में रह रहे हैं. पछले करीब चार दशकों में उनका काम देश-विदेश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं-अखबारों में छपता रहा है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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