तिब्बत विद्रोह दिवस
आज दस मार्च है. (Tibetan Uprising Day 2019)
मैं यह इस लिए याद दिला रहा हूँ कि आज यानी के दिन दुनिया भर में रह रहे शरणार्थी तिब्बती तिब्बत विद्रोह दिवस मनाते हैं. वर्ष 1959 में आज ही के दिन तिब्बत में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की उपस्थिति के खिलाफ एक विद्रोह हुआ था. यह एक सशस्त्र विद्रोह था जो असफल हुआ और जिसकी परिणति चीनी शासन के अत्याचार और दमन में हुई. तत्कालीन दलाई लामा (जो अब 84 वर्ष के हो चुके हैं और हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं) तेनजिन ग्यात्सो को इसके बाद तिब्बत छोड़ देना पड़ा था.
बहुत पुराना है पहाड़ और तिब्बत का रिश्ता
एक समय था जब कुमाऊँ और गढ़वाल के उच्च हिमालयी इलाकों में रहने वाली जनजातियों के लोग तिब्बत के साथ व्यापार करने ज्ञानिमा और तकलाकोट जैसी मंडियों में जाया करते थे. सदियों तक चली यह व्यापार परंपरा चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा जमा लेने के बाद बाधित हुई जिसके बहुत गहरे सामाजिक और आर्थिक परिणाम हुए.
चीनी अतिक्रमण के बाद इन जनजातियों के सामने जीवनयापन का प्रश्न उठा खड़ा हुआ था जिसने भारी संख्या में इन लोगों को पलायन पर विवश किया.
कुमाऊँ और गढ़वाल के पुराने बुजुर्गों से पूछेंगे तो मालूम पडेगा पड़ेगा कि इन्हीं जनजातियों के द्वारा तिब्बत से खरीद कर लाये गए हिमालयी नमक पर हमारी अनेक पीढ़ियाँ निर्भर रही हैं. व्यापार की वह परम्परा बेहद समृद्ध थी जिसके अनेक सामाजिक ताने-बाने सीमा के दोनों तरफ खिंचे हुए थे.
शरणार्थियों की त्रासदी और चीन की दादागिरी
चीन द्वारा तिब्बत पर लादे गए शासन के बाद भारी संख्या में तिब्बत से शरणार्थी भारत आये और तकरीबन साठ साल बीत जाने के बाद वे और उनकी सन्ततियां अब भी भारत के अनेक नगरों में रह रही हैं.
अफ़सोस की बात है कि एक समय हमारे पहाड़ों के भोजन की रीढ़ माने जाने वाले तिब्बतियों और उनके देश की स्थिति को लेकर हम लोग लगातार उदासीन होते चले गए. आज यदि किसी से तिब्बत की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछा जाय तो आपको आश्चर्य होगा कि लोगों की जानकारी इस बाबत बहुत ही कम जानकारी है और जो है भी वह बहुत ही सतही है.
एक सपना है तिब्बत
तिब्बती शरणार्थियों के लिए अपना मुल्क आज भी एक सपना है जिसके लिए वे सतत संघर्षरत हैं. वर्तमान समय में चीन एक बड़ी आर्थिक ताकत बना हुआ है और दुनिया के डेढ़ सौ से अधिक देशों के साथ व्यापार करता है. यह बता बहुत कम लोगों को मालूम है कि इन सभी देशों को चीन के साथ किसी भी व्यापार संधि पर दस्तखत करने से पहले स्वीकार करना पड़ता है कि तिब्बत चीनी साम्राज्य का हिस्सा है न की अलग से कोई देश. इस बात के अर्थ कितने गहरे हैं इसका अर्थ कोई तिब्बती ही जान सकता है. यह अलग बात है कि उनकी त्रासदी को सामाजिक और सामरिक दृष्टि से जानना हमारे लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
इन्हीं की आवाज़ को दुनिया भर में पहुंचाने का बड़ा काम मेरा एक तिब्बती कवि-मित्र तेनजिन त्सुन्दू करता आ रहा है. उनकी व्यथा कथा को जानने के लिए उसकी एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.
मैं थक गया हूँ
– तेनज़िन त्सुन्दू
मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाड़ियों से चीखता हुआ.मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटरें बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे, धूल और थूक के बीच इंतज़ार करतामैं थक गया हूँ
दाल-भात खाने से
और कर्नाटक के जंगलों में गाएं चराने से.मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं.
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