हॉस्टल के कमरे में वो तीन लड़कियां साथ रहती थीं. सदफ, शिएन और अपराजिता. सदफ हमेशा चहकती, मटकती सारी दुनिया से बेपरवाह अपनी रंगीन खुशियों में खोयी रहती थी. ज्यादातर समय दोस्तों के साथ घूमती-फिरती और रात होने से पहले ही कमरे में नमूदार होती. लौटकर भी पूरे समय मोबाइल पर लगी रहती. शिएन कमरे के एक कोने में ऐसे रहती थी जैसे घर के किसी कोने में धूल और जालों से अटी कोई सुराही पड़ी रहती है. कोई उधर झांकने भी नहीं जाता, कोई उसके पड़े होने की परवाह भी नहीं करता. वो हो, न हो, किसी को क्या फर्क पड़ता है. उसकी आंखें पुराने जंग खाए कनस्तर सी खाली थीं, त्वचा महीनों अकेले धूप में पड़े हुए बैंगन की त्वचा जैसी झुलसी और बेजान, छातियां बिलकुल सपाट क्योंकि शरीर पर जरा भी मांस नहीं था. वो इतनी पतली थी कि उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी. लेकिन उसके पास जीजस क्राइस्ट थे. चर्च का अकेला कोना और प्रेयर की एक किताब. अपराजिता न सदफ थी, न शिएन. उसके पास न दोस्तों की एक लंबी फेहरिस्त थी, न हर शाम समंदर के किनारे उसका हाथ थामकर चूमने की हड़बड़ाहट दिखाने वाला कोई प्रेमी और न ही जीजस क्राइस्ट का सहारा. उसके भीतर बजबजाती रौशनियों का एक शहर था, जिसकी सीली सूनसान गलियों से होकर कोई नहीं गुजरता था. जहां पूरी रात आवारा कुत्ते भौंकते, दीवार चाटते, लैंपपोस्ट से टिककर अपनी पीठ रगड़ते और आपस में लड़ते रहते थे. हर दिन उसका मन करता कि बस हुआ, अब तो मर ही जाना चाहिए.
शिएन के मन की गलियां तो और भी ज्यादा खतरनाक थीं. ऐसे बंद थे सारे खिड़की-दरवाजे कि धूप की एक पतली लकीर या हवा का एक मामूली सा टुकड़ा भी भीतर नहीं जा सकता था. वो दुनिया में ऐसे अजनबियों की तरह रहती थी मानो किसी को जानती-पहचानती ही नहीं. उसके मन की अंधेरी गलियों में आवारा कुत्ते भी नहीं भटकते थे. आवारगी भी होती तो कम-से-कम जिंदगी की कुछ तो हलचल होती. लेकिन नहीं, मजाल था कि एक तिनका भी हिल जाए. लेकिन कभी वहां से होकर सब गुजरे थे, शराबी, जुआरी, औरतबाज, हाथ थामते ही सीधे बिस्तर पर सुलाने वाले और फिर वापस लौटते हुए पान की पीक जैसे सीढि़यों के कोने पर थूककर कट लेने वाले. कभी लौटकर न आने वाले. रात के अंधेरों में कपड़े उतारने को बेताब और दिन के उजाले में पहचानने से भी इनकार करने वाले. कौन जानता था उसके मन की गलियों के किस्से? यकीनन उसने ठीक-ठीक खुलकर कभी नहीं बताया, किसी को नहीं, लेकिन हर बात को ठीक-ठीक खुले शब्दों की जरूरत होती भी नहीं. वो ऐसे ही अपना अर्थ जाहिर कर देती हैं. बयालीस की उम्र पार कर दुनिया के प्रति जैसा वैराग और अजनबियत उसकी आंखों में रहती थी, जिस तरह वो किसी को भी जरा भी करीब आते देख फट से अपने खोल में दुबक जाती, हाथ मिलाने या मुस्कुराने तक को तैयार न होती, पता नहीं क्यों कभी-कभी अपराजिता उसकी आंखों में अपना भविष्य देखती. शिएन जहां जा चुकी थी, अपराजिता उस ओर बढ़ रही थी. वो कुछ ज्यादा ही पैसिमिस्टिक थी. उन दुखों को भी अपना समझ लेती, जो उसके होते ही नहीं. जितना बतंगड़ मचाती दिखती, भीतर उतनी ही डूब रही होती. सदफ की दुनिया बिलकुल अलग थी. उसे उन दोनों के मन की गलियों की कोई भनक तक नहीं थी. उसके मन में खुली चौड़ी राहें थीं, राहों पर बिछा आसमान. हाथ थामे साथ-साथ उड़ता हुआ प्यार. उसके मन की पटरियों से तयशुदा टाइमटेबल और मंजिल वाली टेनें गुजरती थीं, जिनके गुजरने के रास्ते तय थे और मंजिल तो सफर की शुरुआत से पहले ही तय होती थी.
अपराजिता शिएन की आंखों में देखती और डर जाती. ‘नहीं, मैं शिएन जैसी नहीं हो सकती. मैं कभी शिएन जैसी नहीं होऊंगी. ये वहशत, ये अजनबियत, बिलकुल नहीं. न सही खुला आसमान, आवारा फिरते कुत्ते ही सही. वैराग नहीं, आवारगी ही सही.’
गुजरी सदी के उत्तरार्द्ध में इसी देश के एक महानगर, जो न कभी रुकता था, न कभी सोता था, के किसी कमरे में वो तीनों लड़कियां साथ रहती थीं. यूं देखो तो कुछ खास फर्क नहीं था, पर दरअसल इतना फर्क था कि जिनके किस्से कहते-कहते पूरी एक उम्र गुजर जाए. एक हमेशा बात करती थी, दूसरी के पास न शब्द थे, न भाषा. एक के लिए चारों ओर अपने लोग, अपने संगी थे, दूसरी का कोई दोस्त नहीं था. ये उसी सदी में उसी देश में घट रहा था, जहां के तमाम नियम-संविधान हर किसी के लिए एक जैसे सुखों और दुखों की गारंटी करते थे, पर जिस देश में एक के लिए राजधानी के संगमरमरी कालीन थे और दूसरा मां के पेट से बाहर आते ही जान लेता था कि वो एक ऐसे अजनबी संसार में आ गया है, जहां सब एक विचित्र, अजनबी भाषा बोलते हैं. वो कभी उस दुनिया का हिस्सा नहीं हो सकेगा. जहां कोई उसका अपना नहीं, जहां कभी कोई उसका अपना नहीं होगा.
टीवी-18 में सीनियर एडिटर मनीषा इंडिया टुडे और अन्य प्रतिष्ठित मीडिया घरानों में काम कर चुकी हैं. मनीषा महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर अपने विचारोतेजक एवं अर्थवान लेखन के लिए सोशियल मिडिया का एक लोकप्रिय नाम हैं . वह bedakhalidiary.blogspot.com नाम का लोकप्रिय ब्लॉग चलाती हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…