तब हम हल्द्वानी के गौरापड़ाव के हरिपुर तुलाराम गांव में ही रहते थे. मुझे हल्की सी याद अभी भी है कि तब युद्ध का समय था. रात में कई बार घर में बाबू कहते थे बाहर उजाला मत करो, नहीं तो दुश्मन के जहाज बम गिरा देंगे. जब बड़ा हुआ तो पता कि तब 1971 में भारत व पाकिस्तान के बीच लड़ाई हुई थी. रात को लगभग पूरे देश में ‘ब्लैक आउट’ रहता था. कभी-कभी तो रात को हवाई जहाजों की आवाजें तक सुनाई देती थी. इस लड़ाई में भारत ने पाकिस्तान को बहुत ही बुरी तरह से हराया था. जिससे देश में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की एक अलग ही छवि देश में बनी थी. विशेषकर महिलायें तो उन्हें अपना आदर्श मानने लगी थी.
इस लड़ाई के बाद देश में जब आम चुनाव हुये तो अधिकतर महिलाओं ने परिवार के पुरुषों की राय को दरकिनार करते हुये अपनी इच्छा से इंदिरा गांधी (कांग्रेस इ) को वोट दिया था. इस बात की जानकारी मुझे इसलिये है कि जब उस आम चुनाव के मतदान का दिन आया तो वोट देने के बाद जब ईजा घर आयी तो पड़ोस के शंकर चचा (शंकर दत्त भट्ट) ने पूछा था, ‘ओ! बौजि बोट कै कैं दे? ‘तब ईजा (स्व. चन्द्रावती रौतेला) ने कहा था, ‘इंदिरा गांधी कैं और कै कैं!’ जब ईजा और उनकी हमउम्र पड़ोस की महिलायें वोट देने जा रही थी तो सभी चर्चा में इंदिरा गांधी को ही वोट देने की बात कर रही थी. महिलाओं के ये तेवर देखकर पुरुषों को तब झटका भी लगा था क्योंकि जो महिला उन दिनों परिवार में पुरुषों की बात काटती या उसे नहीं मानती तो उसे यह ताना सुनना पड़ता था, ‘अपुण कैं इंदिरा गांधी समझैं, इंदिरा गांधी.’
उन दिनों संचार के कोई साधन नहीं थे. भाबर के गांवों की पहुँच आजकल की तरह टीवी, मोबाइल व अखबारों तक नहीं थी. संचार का एकमात्र साधन रेडियो ही था. वह भी किसी-किसी घर में ही होता था. और उस पर भी पुरुषों का ही एकाधिकार सा रहता था. शायद ही कोई महिला कभी रेडियो सुनती हो! इसके बाद भी इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश ने 1971 के युद्ध में जिस तरह पाकिस्तान को नाकों चने चबवाये थे उससे गांव की महिलायें तक पूरी तरह से वाकिफ ही नहीं थी बल्कि इंदिरा से बहुत प्रभावित भी थी. यह एक तरह से आश्चर्यचकित करने की तरह ही था. शायद गांव की महिलाओं के लिये भी यह बात गौरव की थी कि एक महिला देश की प्रधानमन्त्री थी और पूरे देश की सत्ता उनके हाथ में.
उन दिनों की एक बात मुझे आज भी याद है कि बाबू (श्री ध्यान सिंह रौतेला) घर में किसी भीख मॉगने वाले बाबा के आने पर उसे एक ही बात कहते थे कि मैं कम्युनिस्ट हूँ और उसके बाद भिखारी बाबा बिना किसी ज्यादा बहस के चुपचाप हमारे घर से चला जाता था. तब मेरी समझ में यह बात नहीं आती थी कि इस शब्द में ऐसा क्या है कि बाबा लोग चुपचाप आगे को बढ़ जाते हैं. सम्भवत: उस दौर में पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों के तेजी से आगे बढ़ने का ही प्रभाव रहा होगा कि देश के दूसरे हिस्से के लोग भी वामपंथ को इस तरह से देखते थे कि उनके राज में हर एक को काम करके ही रोटी मिलेगी. कोई भी मुफ्त में भीख मांग कर नहीं खायेगा. ऐसे ही कई बार बाबू यह भी कहते थे कि चल खेत में चल काम कर और शाम को अपनी मजदूरी ले जाना. हट्टे -कट्टे होते हुये भी भीख मांगने में तुम्हें शर्म नहीं आती है? इतना सुनने के बाद कोई भी भिखारी हमारे घर में ज्यादा देर नहीं रुकता था. हाँ, किसी असहाय व शरीर से कमजोर को एक वक्त की रोटी जरूर मिल जाती थी.
यह अलग बात है कि बड़े होने पर मैंने कभी भी बाबू को वामपंथ की राजनीति करते या उस विचार से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं देखा. मैंने आज तक उन्हें किसी राजनैतिक दल के प्रभाव में भी नहीं देखा. आपातकाल के बाद जब 1977 में आम चुनाव हुये तो तब तक हम लोग चोरगलिया चले गये थे. चुनाव में बाबू ने जमकर जनता पार्टी का प्रचार किया था. टेक्टर-ट्राली में बैठकर पूरे चोरगलिया का चक्कर लगाते थे. एकाध बार हम दोनों भाई व आस-पड़ोस के हमउम्र बच्चे भी तब प्रचार करने गये थे. एक नारा हम लोग बहुत जोर से लगाते थे –
‘गाय और बछड़े का जोड़ा बिछड़ गयो रे,
जनता से पूछो किधर गयो रे?’
तब कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय व बछड़ा था. यह एक तरह से इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी के लिये प्रतीक के रूप में भी था. कांग्रेस हारी और जनता पार्टी सत्ता में आयी तो उसके बाद अखबारों में आपातकाल के दौरान जेल में बंद नेताओं के साथ हुये दमन की रिपोर्टें खूब छपी. एक रिपोर्ट का शीर्षक मुझे आज भी याद है, जो सम्भवत: ब्लिट्ज में छपी थी. वह भी इसलिये कि बाबू जब हल्द्वानी के बाजार से वह अखबार लाये तो उन्होंने हमारे घर आये हुये गांव के ही कुछ लोगों को वह शीर्षक सुनाते हुये पूरी रिपोर्ट ही उन लोगों को पढ़ कर सुना डाली थी. उस रिपोर्ट का शीर्षक था, ‘प्यास लगी है तो हमारा पेशाब पिओ.’ यह जेल में बंद किसी बड़े नेता से तब जेलर ने कहा था. कई महीनों तक तब जेल में नेताओं के ऊपर हुये कथित अत्याचारों की खूब चर्चा होती थी.
आपातकाल के दौरान हमारे गांव का कोई व्यक्ति तो गिरफ्तार नहीं हुआ था लेकिन उन दिनों स्कूलों के मास्टर व सरकारी कर्मचारी ‘केस ‘देने को लेकर बहुत परेशान रहते थे. कई कर्मचारियों की तो रात की नींद व दिन का चैन तक चला गया था. ये ‘केस’ थे लोगों की नसबंदी करवाने के. मास्टरों व सरकारी कर्मचारियों को हर महीने एक निश्चित लक्ष्य लोगों की नसबंदी करवाने के लिये सरकारी अस्पतालों में ले जाने का दिया जाता था. लक्ष्य की पूर्ति करने पर ही वेतन मिलता था अन्यथा निलंबन तक की नौबत आ जाती थी. केस पूरे करने के चक्कर में तब चोरगलिया के एक अविवाहित अधेड़ की धोखे से नसबंदी कर दी गयी थी. ऐसी ही घटनाओं ने आपातकाल को बहुत ही बदनाम व कुख्यात बना दिया था.
नसबंदी क्या है? इसे हम बच्चे जानते तो नहीं थे लेकिन बड़ों के बीच जिस तरह से बातचीत होती थी उससे थोड़ा बहुत अंदाजा जरूर लगता था. जबरन नसबंदी से लोग परेशान भी थे तो इस बात से खुश भी थे कि सरकारी दफ्तर में सब लोग समय से पहुँचते ही नहीं हैं बल्कि बिना रिश्वत व हिला-हवाली के काम भी हो रहे हैं. बसें व ट्रेन तक समय पर चलते थे. घंटों लेट रहने वाली ट्रेने कैसे समय पर चलती थी? यह आज शोध का विषय हो सकता है. दुकानों में तक हर तरह के सामान के कीमत की लिस्ट टँगी रहती थी. मजाल है कोई मनमाने दाम पर कोई सामान बेच सके. पुलिस तक समय पर रिपोर्ट लिखकर उस पर त्वरित कार्यवाही करती थी. एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि आम आदमी को बिना किसी ‘जुगाड़’ के समय पर न्याय मिल रहा था.
आपातकाल के दौरान भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी पर लगाम लगने के कारण ही इस मायने में कई लोग आज भी उसे सही बताते हैं, हालाँकि जिन परिस्थितियों में आपातकाल लगाया गया उसे एक लोकतंत्र के लिये कतई भी सही नहीं ठहराया जा सकता है. आपातकाल सही था या गलत? इस पहले भी बहसें होती रही हैं और आज भी जारी है व आगे भी कई वर्षों तक होती रहेगी.
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जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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