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वनवासियों की व्यथा

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सोलह राज्यों के 11.8 लाख वनवासियों की दावेदारी को ख़ारिज कर दिया था. देश की 15 प्रतिशत भूमि पर रहने वाले इन वनवासियों की मांग पर भारतीय आमचुनाव की तैयारी की राजनीति हावी हो गयी और किसी ने इस जरुरी खबर को तव्वजो नहीं दी. अधिकांश लोगों को इस विषय की जानकारी तक नहीं है. इस विषय पर फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे का या लेख तीन भागों में प्रकाशित किया जा रहा है – संपादक

 

सरकार के पास स्मृति नहीं है
कागज है या फाईल है
हमारे पास है लोकस्मृतियाँ
हमारे अस्तित्व पर
कागजों से किये गये हमलों के घाव हैं
हम कागजों के मामले में कच्चे हैं
और सरकार कागज पर चलती है
सरकारें आती जाती रहती हैं
कागज अपनी जगह रहता है
कागज हालांकि पेड़ से बनता है
पर बेरहमी से काट सकता है पूरा जंगल
कागज का अपना दिमाग नहीं होता
और सरकार कागज पर चलती है

सुनील केंथोला की कविता

अपनी लोक विरासत को सहेजे-समेटे जंगल के पहरुओं की अपने परिवेश माटी-हवा-पानी में निर्द्वन्द्व जी पाने की हसरतों के लिए. पीढ़ी दर पीढ़ी किये जा रहे संघर्षों पर सुप्रीम कोर्ट ने सोलह राज्यों के 11.8 लाख वनवासियों की दावेदारी को ख़ारिज कर दिया था. इससे पूर्व 30 नवम्बर 2018 तक 19.39 लाख दावे अमान्य ठहरा दिये गये थे. अब नये फरमान से लगभग तीस लाख आदिवासी-वनवासी जंगल के अपने बसेरों और जमीन से बेदखल हो जायेंगे. अदालत ने फरमान सुनाया है कि ऐसे परिवार जिनके दावों को पहले ही नकार दिया गया है उन्हें राज्यों द्वारा इस सिलसिले में की जा रही सुनवाई से पहले ही निकाल बाहर किया जा रहा है.

वन्य भूमि और संरक्षित अभ्यारण्यों में पुश्त दर पुश्त पर बढ़ रहे वनवासियों पर समय समय पर सरकारों की भृकुटियां तनती रही हैं. इनमें से कुछ जातियां वनवासी समूह के रूप में जानी जाती हैं. जो जंगलों के मध्य खोह-गुफा-उड्यारों में रह रूढिवादी परम्परागत तरीके से जीती रही हैं. जंगली वनमानुस कहलायी हैं. इनमें कब किस जनजाति, कबीले या समूह के साथ कौन सा नियम कानून विधान लागू हुआ जिससे उन्हें वहां रहने का अधिकार मिला यह भी व्यापक चर्चा का विषय है.

ब्रिटिश राज्य में वन एवं वनवासी उनके लिए मातृ वन सम्पदा के शोषण के वाहक बने जिससे सरकार अपने व्यापारिक व्यावसायिक हितों की पूर्ति करती रही. समय-समय पर वनवासियों ने अपने हक़-हकूक की आवाज बुलंद की पर अपना हक़ पाने में वह असमर्थ ही रहे क्योंकि जो भी विधान-नियम-कानून बने और चले वह सब तात्कालिक सत्ता की मनमर्जी पर निर्भर रहे. कई बार तो यथास्थिति को बनाये रखना ही राजकाज इष्ट बना. प्रतिरोध और संघर्ष की स्थिति तब-तब बलवती होती रही जब सत्ता के इशारे और कुछ निहित आर्थिक उदेश्यों की पूर्ति के स्वार्थ से बने नियम-कानूनों द्वारा अपने चहेते ठेकेदारों व पूंजीपतियों को प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ पहुंचाने या राष्ट्र-राज्य की संसाधन आवश्यकता लिप्सा में वनवासी आड़े आये.उन्होंने अपनी दरातियों पर धार चढ़ानी शुरु की और कुल्हाड़ियों को लहराना शुरु किया.

ऐसे भी कई दृष्टांत हैं जब आदिवासियों, अनुसूचित जनजातियों, वनवासियों द्वारा सरकार बहादुर के द्वारा निर्दिष्ट लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया गया. उन्होंने वन भूमि में अतिक्रमण किया. संरक्षित क्षेत्र में कब्ज़ा किया उनके बीच समय की चाल पहचानने वाले ऐसे वणिकों ने भी अपना शिकंजा कसा जो आदिवासी वनवासी की परिभाषा के पृथक बाहरी थे. उन्होंने दुनियादारी से अंजान पर्वतपुत्रों को प्रलोभन दिया नई आदतें डाली जो कालान्तर में मुद्रा के द्वारा उपलब्ध होतीं और उनके दैहिक दैविक शोषण के लिए डराया. धमकाया प्रताड़ित किया. अरण्यरोदन में अपना प्रभुत्व जमाने के लिए उनकी शक्लें ठेकेदारों, व्यापारियों, धन्नासेठों एवं सरकारी कारकुनों से मेल खाती थी.

फोटो : मृगेश पाण्डे

इस कथा सूत्र का आरंभ ‘वर्ल्ड लाइफ फर्स्ट’ नाम के गैर सरकारी संगठन द्वारा की गयी पीआईएल से होता है जिसने अनुसूचित जनजातियों व अन्य परम्परागत वन घुमन्तुओं संबंधी एक्ट 2006 व इसी विषयक 2008 के तत्संबंधी नियमों की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाया. तब से इनके बसाव व पुर्नस्थापन अधिकारों में झूलती परिस्थितियां दो टप्पे का खेल खेलती रही. वनवासी एवं अनु. जनजातियां पीढ़ी दर पीढ़ी वनभूमि से ही प्राणवायु प्राप्त करते रहे थे और उन्होंने इसकी हरियाली व जैव संपदा बनाए रखने में अपनी सकारात्मक भूमिका का लंबा इतिहास रचा था. राष्ट्रीय वननीति 1894 एवं 1952 में आदिवासियों को वन विरोधी ठहराते हुए उनके नैसर्गिक अधिकारों में कैंची चलाई गई. अपनी जड़ों से कटने के इस क्रम में वनवासियों की भावनाएं आहत हुई और वह भावनात्मक स्तर पर प्रशासन व वनकर्मियों के प्रति नकारात्मक भाव रखने लगे. वनवासी शिक्षा, विकास और धन उपार्जन के मूल स्त्रोतों से अलग-थलग पड़ने लगे. अपने परम्परागत-हुनर कौशल व कष्टप्रद दिनचर्या के संबल में दुर्गम व कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के मध्य रहते हुए उन्होंने अपने परिवेश व पर्यावरण के साथ एका बनाते हुए अपनी पहचान बनाये रखने का हर संभव प्रयास किया. इतिहास साक्षी है कि हिंदुस्तान से अंग्रेजों को भगाने का पहला विद्रोह 1824 में ‘तिलका मांझी’ ने तब किया जब उन्होंने ब्रिटिश कमिश्नर क्लीवलैंड को तीर से मार गिराया. इससे पूर्व 1765 में खासी जनजाति द्वारा भी ऐसा ही प्रयास किया गया था. 1855 में संथालों ने भी विद्रोह किया तथा 1890 में बिरसा मुंडा का आन्दोलन उसी अंग्रेज सरकार के खिलाफ था जिनकी गौरव गाथाएं वनवासियों द्वारा अपनी संतति को लोक विरासत का संबल देती हैं.

फोटो : मृगेश पाण्डे

ये आदिवासी देश की कुल जनसंख्या का 8.14 प्रतिशत है जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 15 प्रतिशत भूभाग में निवास करता है. भारत के संविधान में आदिवासी अथवा अनुसूचित जनजाति समाज को पृथक से परिभाषित भले ही नहीं किया गया पर संविधान के अनुच्छेद 366 (25) में अनुसूचित का संदर्भ उन समुदायों से है जिन्हें अनुच्छेद 342 में अधिसूचित किया गया है इसके अनुसार अनुसूचित जनजाति में विशिष्टीकरण के लिए पालन किये गये मानदण्ड हैं : आदिम लक्षणों का उपस्थित होना, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बेहतर समुदाय से संपर्क में संकोच और पिछड़ापन. इनकी जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे निवास करती है आधी आर्थिक संपदा, संचार तथा परिवहन की पहुंच से दूर है.

भारत में आदिवासी समूह 700 से अधिक हैं. 1951 में उनकी जनसंख्या 1,91,11,498 थी जो 2001 में बढ़कर 8,43,26,240 हो गयी. वनवासियों के निवास उत्तरपूर्वी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र तथा दक्षिणी क्षेत्र हैं. उत्तरपूर्वी क्षेत्र में हिमालय सुदूर व ब्रह्मपुत्र की यमुना-पद्मा नदी के पूर्वी हिस्से का पहाड़ी क्षेत्र है जहां गुरंग, लिम्बू-लेपचा, आका, डाफल, अबोर, मिरी, मिस्मी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो खासी, नागा, कुकी, लुशाई, चकमा, न्यीदी, आदी, गालो, आपातानी, मोमपा, तागीन, शेरदुरपेन, खामती, सिंगफो, नाक्टे, वांगचू, तांग्सा, आका, मिजी, मेमबा मर्रम, बुरगुन, रियाम वनवासी निवास करते हैं. मध्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले से दक्षिणी व राजमहल पर्वत श्रेणी के पश्चिमी भाग से जाता हुआ दक्षिण में गोदावरी तक है जहां संथाल, मुंडा, उराव, भूमिज, हो, खड़िया, बिरहोर, जुआंग, खोड़, सबरा, गोंड, भील, बैगा, कोरकू, कमार, असेर, बिरजा, हिलखाड़िया, कोरवा, माल पहाड़िया, सौरिया, सबरसहरिया, अबूझमाड़िया,माड़िया, रजिया व बोक्सा निवास करते हैं. पश्चीमी क्षेत्र में मध्य पश्चिम राजस्थान से दक्षिण सह्याद्रि पर्वत श्रृखंला तक का पश्चिमी भाग आता है. इस भूभाग में मीजा, ठाकुर, कटकरी, कोलम, माडिया, ग्रेट अंडमानी, जाखा, ओंगे, सेंटनाली, शोम्पें आदि जनजातियां रहती हैं. दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत गोदावरी के दक्षिण से कन्याकुमारी तक का इलाका है जहां चेंचू, कोड़ा, रेड्डी, राजगोंड, कोपा, कोलाम, कोटा, कम्माद, कांड कांफ, कोंटदोरा, कोंड, कोरिया, कोया, कूलिया, गोंड, जातूप, थोटी, धूलिया, नक्कला, नापकपोड़, परधान, पोरजा, भगत, भील, मलिस, मन्नदोरा, यानादि, येरुकला, रेड्डीदौरा, रैना, वाल्मीकि, सबरा, सुंगारमीर (बंजारा / लंबाड़ा ) कुरुंबा, बड़ागा, टोडा, काइर, मलायन, मुशुवन, उदाली, कनिक्कर, बोडो, गउबा, गुडोब, चेन्यू, पूर्जा, डोंगरिया, खोंड, चोलानापकन, कादर, कट्टा उनायकन, इरुला, पजियन आदि निवास करते हैं.

वनवासियों पर किये गये प्रमाणिक अध्ययन के विशेषज्ञ जे.जे. राय वर्मन का मत है कि मूल आदिवासियों में कई जातियां बाहर से आकर बसी जैसे कि मणिपुर के कुकी. वहीं मिजोरम की लुशिस जनजाति मूलतः दक्षिणी चीन और, चिन पर्वत से एक शताब्दी पूर्व भारत आकर आप्रवास की. ब्रिटिश शासन में भी नागा बहुल क्षेत्र में कुकी जनजाति को बसाया था. जिससे नागा और मेइती जनजाति के मध्य विभाजन रेखा बनी रहे. ब्रिटिश हुक्मरानों ने लुशी जनजाति को ठेकेदारी सौंपी जिससे वह मिजोरम में सड़क निर्माण कर सकें. त्रिपुरा नरेश ने रियांग और चकमा जनजाति को बाहर से लाकर बसाया जिनके द्वारा उत्पादित कपास, सूत मिलों के लिये निरंतर उपलब्ध होती रहे. इसीप्रकार बोडो मूलतः भूटान के थे जो तदन्तर असम में जा बसे. टोटो जनजाति भूटान से उत्तर बंगाल की सीमा पर व खासी कम्पूचिया से तो देजोंग भूटिया सिक्किम से आकर तिब्बत में बसी. पश्चिम बंगाल एक वीरभूमि व मदिनापुर से झारखंड के संथाल परगना में संथाल आये. ये वनवासी प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों पर पूर्णतः निर्भर थे. तदन्तर वन संसाधनों के दोहन व विकास की लूट खसोट ने वनों के नैसर्गिक अधिकार पर इनकी निर्भरता संकुचित कर दी. जल-जमीन-जंगल से बेदखली का सिलसिला शुरु हुआ सरकारों के लोभ और बाजार की अपूर्णताओं के गठजोड़ से आदिवसियों के अस्तित्व की लड़ाई आरंभ हुई. अस्तित्वबोध से ही प्रतिरोध जन्म लेता है जिसके कई सोपान इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं.

आदिवासी विश्व की प्राचीनतम सिन्धु सभ्यता में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे पुरातन अवशेष नगरों को विकसित करने वाली सिन्धु सभ्यता के पुरोधा रहे हैं उन्होंने आर्यों के आगमन से पूर्व वनों से आच्छादित भूमि को बसाव योग्य बनाया. कई प्रकार के खाद्यान व वनस्पति को संरक्षित व संवर्धित किया. आर्यों से हुए सतत संघर्षों में अपने हिरण्मय उर्वरा भूमि प्रदेश छोड़ घने बीहड़ जंगलों उपत्यकाओं दुर्गम घाटियों कंदराओं में जीवन व्यापन करना शुरु किया. इसीकारण इन्हें ‘अत्विका’ व वनवासी कहा गया. महात्मा गांधी ने इन्हें गिरिजन कहा. जंगल इन्हें पनाह देता रहा और जीवन निर्वाह के लिए संसाधन भी. तब अर्थव्यवस्था का मूलाधार खेती थी अतः वनों एवं खदानों के दोहन की रफ्तार धीमी थी. सोलहवीं सदी से भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी का आगमन हुआ. औपनिवेशिक लूट खसोट आरंभ हुई. महारानी विक्टोरिया के साम्राज्य में वन औद्योगिक उत्पादन हेतु प्रमुख आदा थी. अंग्रेजों ने वनवासियों को एकाकी व असहाय इसी कारण छोड़ा क्योंकि वह यह समझते थे कि इन अरण्य क्षेत्रों का प्रशासन संभालना उनके लिए मुश्किल व चुनौती भरा काम है. वनवासियों ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध की शुरुआत भी की थी इसलिए ब्रिटिश शासन उनकी समस्याओं के प्रति उदासीन बना रहा.

आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु की सोच थी कि आदिवासी जीवन व संस्कृति हमारी धरोहर है वह चाहते थे कि वनवासी भी सामान्य नागरिक की भांति बदलते परिवेश व उपलब्ध सुविधाओं का इसप्रकार प्रयोग करें कि उनके परम्परागत जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. उन्होंने आदिवासी भाषाओं और बोलियों के संरक्षण की पहल की. उनके बसाव के जंगलों, धूरों-फाटों की हिफाजत किये जाने पर बल दिया. पर आर्थिक वृद्धि के विदेशी माडलों की धुंध में जिस प्रकार स्वदेशी, स्वावलंबन और स्थानीय उत्पाद कहीं गुम हुए वैसे ही आदिवासियों की मूल समस्या भी महानगरों में बैठे नीति नियन्ताओं की आँखों से ओझल ही रही. पंडित नेहरू आदिवासी नीति के चार अंतनिर्भर सोपानों को वनवासियों की गुणात्मक समृद्धि का वाहक मानते थे जिनमें पहला था आदिवासी समाज की संस्कृति कला और भाषा को संरक्षित व विकसित करना दूसरा उनके आर्थिक अधिकारों का संरक्षण करना तीसरा उन्हें राजनैतिक व भावनात्मक रूप से भारतीय गणतंत्र के प्रति आकृष्ट करना. तथा उनमें राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत करना एवं चौथा उन्हें रोजगार, शिक्षा तथा कल्याणकारी क्षेत्र में आरक्षण प्रदान करना. आदिम जानजातियों की तात्कलिक दशा के मूल्यांकन हेतु 1969 में योजना आयोग के दिशा निर्देश पर ‘शीलू आय’ समिति गठित हुई जिसका निष्कर्ष था कि जनजाति समाज के अधिकांश समूह अभी भी पिछड़ेपन व वस्तु विनिमय प्रणाली में निवास करने को बाध्य हैं. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद के दूरस्थ वन क्षेत्रों में राजी जनजाति खोहो उड्यारों में रहती थी. काष्ठशिल्प में दक्ष थी स्थानीय निवासियों से दूरी बनाये रखती थी. मुंह अंधेरे अपने द्वारा बनाये लकड़ी के पात्र निकटवर्ती बसासत के घरों के दरवाजों पर रख देती थी. जिसके बदले स्थानीय ग्रामवासी उन्हें अनाज प्रदान करते थे.

वन कटने से वनवासी उखड़ते थे तो वनीकरण की नयी योजनाओं ने उन्हें उजाड़ने का काम किया. वनवासी का पूरा जीवन गौण मानी जाने वाली वन उपजों पर टिका है. गांव के शक्तिशाली बाहुबली पूंजी संपन्न आसपास की समस्त गौण वन उपज हथिया लेते हैं. सरकार ने 1927 के वन कानून में संशोधन के लिए जो विधेयक तैयार किया उसका 1982 में देश भर में कड़ा विरोध हुआ. तब एक वन नीति विधेयक पारित हुआ जिसमें वन अधिकारियों को बहुत अधिक अधिकार दिए गए. लोगों के जंगल में जाने व संपदा का इस्तेमाल तस्करों व दूसरे बाहुबलियों की जंगल में आवाजाही रोकने के लिए किया जाना था ताकि वनवासियों की रक्षा हो सके. ऐसी नीति में वन भूमि संसाधनों व वन उपज संरक्षण व विकास के साथ संवर्धन का तालमेल होना तय था जिससे किसान वनवासी के साथ मिल उद्योगों हेतु आधारभूत वन आदाओं की सुलभ आपूर्ति संभव कर सकें. उसके बाद ही आर्थिक लाभ की बात सोची जानी चाहिए. यह भी कहा गया कि जंगल में बसे हुए लोगों के अधिकारों और रियायतों पर पुनर्विचार होना चाहिए. निगरानी करने वाले तथा कानून लागू करने वाले महकमे को मजबूत करना चाहिए पर वनवासियों के प्रसंगवश ऐसी किसी नीति के प्रभावी निष्पादन व क्रियान्वयन को सतह पर छोड़ दिया गया जो उनके अन्न, ईधन, चारे, लकड़ी व उद्योगों के कच्चे माल का कोई प्रभावी विकल्प बन पाती या फिर उन्हें बस यथास्थिति में भटकने के लिए छोड़ देना चाहिए?

फोटो : मृगेश पाण्डे

आदिवासियों जनजातियों के जीवन का आधार ही वन है. इसी परिवेश में स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग से उनका जीवन संचालित होता है उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता हेतु शुद्ध हवा है, भेषज है, साफ़ जल है और शारीरिक चुस्ती फुर्ती के लिए अनवरत श्रम जिससे थककर विश्राम के लिए उनके समूह गान हैं, नृत्य है आयोजन उत्सवों की समृद्ध लोक परम्परा व लोकथात विद्यमान है. जल-जमीन-जंगल से इस वनवासी को पुनर्वास और पलायन में धकेल देना एक समूची संस्कृति का अधःपतन है. वनवासी का सामजिक व सांस्कृतिक अनुकूलन तथाकथित कस्बाई व शहरी मानसिकता तौर तरीकों व चलन में नुमाइश और झांकी से बढ़कर मात्र उपहास का ही विषय बना है. नए परिवेश नयी चकाचौंध से उनमें जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है वह सामाजिक अनुकूलन नहीं सांस्कृतिक धक्के के रूप में सामने आती है. नियोजित विकास ने एक ओर पैसा प्रधान अर्थनीति का फैलाव किया तो वनवासी शनैःशनैः उस परिवेश से काटे जा रहे जिन पर उनका पूरा जीवन टिका था. वन उजड़े वनवासी उखड़े.

(जारी)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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