पत्रकार महोदय
– वीरेन डंगवाल
‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार.
अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प.
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार!
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
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कहने को तो वीरेन डंगवाल हिंदी के एम.ए.पीएच.डी और लोकप्रिय, बढ़िया प्राध्यापक थे, एक बड़े दैनिक के सम्पादक भी रहे, लेकिन इस सब से जो एक चश्मुट छद्म-गंभीर छवि उभरती है उससे वह अपने जीवन और कृतित्व में कोसों दूर थे. उनकी कविता की एक अद्भुत विशेषता यह है कि मंचीय मूर्ख हास्य-कवियों से नितांत अलग वह बिना सस्ती या फूहड़ हुए इतने ‘आधुनिक’ खिलंदड़ेपन, हास-परिहास,भाषायी क्रीड़ा और कौतुक से भरी हुई हैं कि प्रबुद्धतम श्रोताओं को दुहरा कर देती थी. इसमें भी वह हिंदी के लगभग एकमात्र कवि दिखाई देते हैं और लोकप्रियता तथा सार्थकता के बीच की दीवार तोड़ देते हैं.
– विष्णु खरे
वीरेन डंगवाल (1947-2015)
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