दूरदराज के इलाकों में सेवाएं देने के लिए, उन दिनों शिक्षकों में कुछ अतिरिक्त योग्यताओं की जरूरत पड़ती थी. स्वास्थ्य-सेवाओं के नाम पर, वहां पर कुछ भी नहीं होता था. डिस्पेंसरी तो छोड़िए, फार्मासिस्ट तक नहीं रहता था. हाशिए पर रह रहे समाजों में तब तक, स्वास्थ्य-सेवाओं की पहुंच नहीं के बराबर थी. छोटी-मोटी बीमारियों में लोग घरेलू उपचार का सहारा लेते थे. समाज में तब रूढ़ियों, अंधविश्वासों का बोलबाला था. समाज सदियों से पुराने विश्वासों और परंपराओं की मार सहता चला आ रहा था. तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, टोने-टोटके से भी इलाज चलता था. साइकोसोमेटिक बीमारियां होती थी, पूरे इलाके में उनका इलाज तंत्र-मंत्र के सहारे ही होता था. स्ट्रेस, एंजायटी, पेन के लक्षण दिखते ही, लोग रख्वाळि करने वाले को बुलाते. उसके आते ही, बड़ी आस से झाड़कंडी की तरफ देखने लगते थे.
(Article by Lalit Mohan Rayal)
हारी-बीमारी जैसी समस्या होने पर लोग कहते थे, “कखि नि जाऽण. क्वी जरुत्त नीं. अर जैल्याबि त वख मिन्न क्याई? बाऽमण त झट् बुलौवा. हमारु बामण त ईंऽ चीजकु तंत इलाज कर्दु भाई. वैन कन-कन साध दिनिन तब. वैक हाऽत्त पर कनऽ जस छ तब.”
गढ़भूमि के कोने-कोने में गोरखनाथ की महिमा गाई जाती है. साबर मंत्रों के सहारे भूत-प्रेत बाधाएं दूर की जाती थीं. शिक्षकगण भी इस विद्या को जानते थे. जो शिक्षक रख्वाळी करना नहीं जानता था, इस बात को उसकी प्रतिभा के ह्रास के तौर पर देखा जाता था. इस मामले में सीधे-सीधे, माइनस मार्किंग चलती थी. आमतौर पर शिक्षकों के लिए यह बाएं हाथ का खेल होता था. उनके लिए भी था. यह तब का एक ट्रेंड सा था. इस प्रतिभा और गुण के बल पर, ग्राम्य-जीवन का आकाश, उन्हीं पर टिका रहता था.
स्कूली बच्चे, गाड़-गधेरे या धार पार करके, निर्जन रास्तों पर चलकर स्कूल पहुंचते थे. बाई चांस विद्यार्थी अकेला हुआ और वो छछके गया (झसक गया), उसे कहीं पर वहम हो गया या वो डर गया तो स्थिति नाजुक होते देर नहीं लगती थी.
उसके छळे जाने का अंदाजा इस बात से लगाया जाता था, कि वह उस दिन विरक्त और उदास सा रहता था. अजीब हरकतें करता. और दिनों में जो बच्चा चहकता रहता था, वो न लिखता-पढ़ता, न खेल में शामिल होता. गुमसुम सा अकेला रहता. कभी उसका शरीर ऐंठ जाता, कभी वह डरावना चेहरा बना लेता. कभी आंखें चढ़ा लेता, कभी बेबात के रोने लगता था. आसपास बैठने वाले बच्चे डर जाते. वे जान जाते कि अंधेरे-उजेले में बिना कोई नोटिस दिए, इसे पकड़ लिया है. डरे-सहमे बच्चे मास्टर जी का ध्यान आकर्षित करते हुए कहते, “गुर्जी! यु घुरेऽक देखणु. छळेयुंऽ! छ. तब्बि छ यु जुमकार्र्यूं!”
उन्हें अक्सर ऐसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता था. ‘उंड औ धि रे! सच्चि तु छळेयुं?” कहकर उसे पास बुलाते और उसकी नब्ज जांचने लगते थे. “हां लो! येकि त छळ नाड़ि छन चलणि” कहकर चिंता जाहिर करते. नब्ज कभी धीमी चलती, तो कभी तेज. कभी ताप चढ़ जाता, उसी समय शरीर एकदम ठंडा. ये ‘छळेणे की निसाणि’ समझी जाती थी. बस दो-तीन ही लक्षण होते थे. डाइग्नोस होते ही, बच्चों के मन में जो शक गहराया होता था, वो सच में बदल जाता.
वे कड़क आवाज में किसी बड़े बच्चे को काम सौंपते, “जा धि रे! भितर चुल्लऽ परऽन रांगुण ल्हयो! बौं हात्तन गाड़ि हो! चुलखांदक बौ तरपन ल्है!”
(Article by Lalit Mohan Rayal)
अगर भूत टटपुंजिया होता, तो इतना सुनते ही, भागने की भूमिका बनाने लगता था. जल्दबाजी में ट्रेन पकड़ने की तैयारी करने लगता था. ‘मैं जांदों! मैं जांदों! मैं चलग्यों!” का शोर मचाकर, वह प्रस्थान की घोषणा करने लगता था. बच्चे को उसी हालत में छोड़ देता, जिस हालत में पकड़ा था. इतना काफी होता था. छात्र बात-की-बात में चैतन्य हो जाता. अगर बदमाश भूत होता तो बेअदबी करते हुए ठट्ठा लगाने लगता था. मूल सवाल को छोड़कर, बाकी का कसकर जवाब देता था. मास्टरजी के साथ मुंहजोरी करता. तरह-तरह की रंगबाजी दिखाता. आयं-बायं बककर, मास्टर जी पर हावी होने की कोशिश करता था. बड़ी-बड़ी मांगें रखता. बहस-मुबाहिसा इतना बढ़ जाता, कि झगड़े-फसाद की नौबत आ जाती थी.
राख हाथ में आते ही, ‘ओम नमो गुरु को आदेश…’ के मंत्रोच्चार के साथ, वे इलाज चालू कर लेते थे. बाकायदा पूछताछ चलती थी. इंटेरोगेशन चलता था. लप्पड़ मारके उसे बकाया जाता था. जब खुराफाती भूत का दांव न चलता, तो वह फटाफट बाकने लगता था. जैसे ही उसका मनोबल कमजोर पड़ता, झाड़कंडी का हौसला बुलंद हो जाता था. समझ लीजिए कि इतने में तो वे आधी लड़ाई जीत लेते थे. उधर उसकी शुरुआती दलीलें इतनी लचर होतीं कि पूछने वाले को उस पर हावी होने का मौका मिल जाता. एक बार झाड़कंडी, उस पर सवार हुआ नहीं कि उस पर बढ़त-पर-बढ़त बनाते चला जाता था.
(Article by Lalit Mohan Rayal)
“तू किलै लगीं ये बच्चाफर?” जैसे मासूम से सवाल के जवाब में वह कुतर्क पर उतर आता. अजीब सी दलीले देने लगता था.
“मैं जाणु छ. अर येन मेरु रस्ता काटि.”
(अरे भाई! तुम दिखते तो हो नहीं. नादान बच्चे को क्या मालूम, कि तुम ट्रांसपेरेंट होकर कहां चले जा रहे थे.)
“येन मैंथै लंगाई.”
(अरे भई, इनविजिबल होकर बीच रास्ते में पसरे रहोगे, तो कोई भी लांघेघा ही. अब किसी को क्या मालूम कि तुम वहां पर पड़े-पड़े आराम फरमाते हो.)
“यु मुंगरि छ खाणु. अर येन मैंथैं नि दीनि.”
(क्या तुम चुंगी के दरोगा हो? कि वहां से जो भी गुजरेगा, तुमको चुंगी दिए बिना आगे नहीं बढ़ सकता. अगर वो मकई खा रहा था, तो उसे खाने देते. तुमको काहे मरोड़ उठती है जी.)
“येन मेरि तरप थूकी! येन मैंथै लिकाई!”
(बच्चे ने निर्जन रास्ते में थूक दिया, तो क्या तुम सैनिटरी इंस्पेक्टर हो, जो चालान बुक लिए रास्ते में खड़े मिलोगे? अब रही दूसरी बात, बालक तुमको क्यों मुंह चिढ़ाएगा भाई? अरे भाई, उसे जीभ दिखानी होगी, तो अपने हमउम्रों को दिखाएगा. क्या उसे संगी-साथियों की कमी है? तुम्हारे साथ वो भला ऐसा क्यों करेगा? फालतू की बात करते हो जी. एक तो तुम हो निराकार और ऊपर से कहते हो कि उसने तुम्हें जीभ दिखाई. ऐसी बेसिर-पैर की बातों पर भला कौन यकीन करेगा?)
(Article by Lalit Mohan Rayal)
अगर भूत ज्यादा ही ढ़ीठ होता तो कहता, “यु त मैंन दगड़ि ल्हिजौण.”
उसके इतना भर कहने की देर होती थी, फिर तो वो जूता-लात दोनों खाता था. करारे हाथ पर पड़ते, “किलै ल्हिजौण यु? ल्हिजौण त अपणौंथैं ल्हिजौधि! लोखुक न्याण-क्याण नौन्याळ थैं यन सोच राखलि त जुत्त खैलि जुत्त!”
झाड़कंडी बाकायदा टिमरू का सोट्टा तैयार रखते थे. इतना ही नहीं, मंत्रोई खुद के गाय और सुअर की हड्डियों से लैस होने का दावा करते थे. हिंदू भूत, मुसलमान भूत दोनों के लिए ‘एंटी थेरेपी’ तैयार रखते थे. धमकाते हुए कहते, “गोरूकु/सुंगरकु हाडकु डाळ्ळु गिच्चफर.”
इतना सुनते ही, भूत महाशय के देवता कूच कर जाते. इसमें मजे की बात ये रहती थी कि भूत अपने पूर्व-जन्म के धार्मिक संस्कारों से बंधा हुआ सा लगता था. उसके कमिटमेंट पर श्रद्धा होने लगती थी, शरीर छोड़ दिया, पर धर्म नहीं छोड़ा. ये फार्मूला मारक असर पैदा करता था. इतने में तो, वो घुटनों पर आ जाता और घिघियाने लगता था.
‘खुश रहो, आबाद रहो… अहले वतन हम तो सफर करते हैं…’ वाले अंदाज में विदा लेता था. जाते-जाते उसे हिदायत मिलती, “दुबारऽ दिखेईऽ त… खबरदाऽऽर…
ऊपरी हवाओं की जरा सी चर्चा क्या छिड़ती कि रहस्य-रोमांच के तमाम किस्से बाहर निकल आते. मास्टर जी हर काम में दक्ष होते थे- लोण मंतर्न, गौंत मंतर्ण, धागुऽ मंतर्न जैसे काम तो उनके लिए मामूली से काम होते थे. वे गंडा-ताबीज, काला धागा, गांठु-जंतर, बाघ का दांत जैसे एंटी डिवाइस गैजेट्स से एहतियातन उपाय करना भी जानते थे. ये उपाय मनुष्यों के अलावा पशुओं पर भी समान रूप से असरकारक थे.
(Article by Lalit Mohan Rayal)
साबर मंत्र पूरे अंचल में बड़े जोर-शोर से चलते थे. साबर मंत्रों का उद्गम भारवि कृत किरातार्जुनीयम् में बताया जाता है. उसमें वर्णन मिलता है कि शिकार को लेकर अर्जुन और किरात वेशधारी शिव में प्रलयंकारी युद्ध हुआ. बताते हैं कि कठोर तप के चलते अर्जुन को थोड़ा सा अभिमान हो गया था. भगवान शिव पाशुपतास्त्र के लिए उसकी कड़ी परीक्षा लेना चाहते थे. उन्होंने उसके छक्के छुड़ा दिए. जब अर्जुन की मूर्च्छा टूटी, तो उसने भगवान शिव के दर्शन किए और पाशुपतास्त्र पाया.
जंगल में रहने वाले भील-किरातों ने भी पेड़ों की ओट से इस युद्ध का सीधा प्रसारण देखा था. जैसे ही भगवान शिव ने अर्जुन को साक्षात् दर्शन दिए, वे क्यों पीछे रहते. मौका लगे वे भी सामने आ गए. भोलेपन के साथ भोलेनाथ से बोले, “हम भी आपके भगत है, लेकिन हम आपकी पूजा-अर्चना की पद्धति नहीं जानते. हम ठहरे शिकार और कंदमूल पर जीने वाले जंगली लोग. हमें देववाणी संस्कृत तो आती ही नहीं. प्रभु! इन हालातों में हम आपकी उपासना कैसे कर सकते हैं?”
भगवान भोलेनाथ ठहरे औढ़रदानी. उनकी सरलता पर रीझकर बोले, “जो तुम्हें ठीक लगे, वैसा करो. मेरा तुमको वरदान है, जो कुछ तुम्हारे मुंह से निकले, आज से वही मंत्र का काम करेगा.”
(Article by Lalit Mohan Rayal)
इस तरह से सबरों-भीलो-किरातों के मुख से निकले ऐसे मंत्र, जिनका कोई खास मतलब नहीं निकलता, जिनमें देशज ध्वनियों की भरमार होती हो, को साबर मंत्र कहा जाने लगा. मनोचिकित्सा, ब्रह्मविद्या, पराविज्ञान जैसी अध्ययन की अनंत शाखाएं हैं, जिनमें शोध अभी तक अपनी नवजात अवस्था में हैं. मेडिकल साइंस ऐसी बातों को स्वीकृत आस्था के विरोध के तौर पर लेता है.
रूढ़ि मानों या अंधविश्वास, लोक में इस तरह की बातें गहराई से व्याप्त थीं. फिर ऐसे में जो स्थानीय समस्याओं का स्थानीय हल निकाल सके, इतनी प्रतिभा कमोबेश तब के शिक्षकों में पाई जाती थी. जो मास्टर ये काम जानते थे, उन्हें समाज में वो स्थान और सम्मान मिलता, जो चुनिंदा लोगों को ही हासिल हो पाता था. गौतम बुद्ध ने कहा था, ‘आरोग्य से बड़ा कोई लाभ नहीं.’ उनका तबादला भी हो जाता, तब भी वे इलाके में आदर के साथ याद किए जाते थे.
(Article by Lalit Mohan Rayal)
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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