तब यूपी सरकार का बहुचर्चित नक़ल अध्यादेश लागू नहीं हुआ था. हालाँकि जब यह लागू भी हुआ तो उस माहौल का कुछ नहीं बिगाड़ पाया जो उस वक़्त हुआ करता था. सरकारी स्कूलों में तब परीक्षाओं में नक़ल का ही सहारा था. गृह परीक्षाओं में हिंसक प्रवृत्ति के मास्टरों की दयालुता चरम पर हुआ करती थी. लिहाजा औसत छात्र भी रो-धोकर पास हो जाया करते थे या कर दिए जाते थे. बहुत ही ज्यादा निखद्द छात्र ही फ़ैल हुआ करते थे और इनकी संख्या भी खासी हुआ करती थी.
असली समस्या हुआ करते थे बोर्ड के इम्तहान. दसवीं और बारहवीं की बोर्ड के परीक्षाकेंद्र आम तौर से दूसरे स्कूलों में हुआ करता था. फिर भी मास्टर सहकार करते थे, क्योंकि सेंटर स्कूलों की अदला बदली ही होते थे. इसका उधर तो इसका उधर. प्रैक्टिकल में 99% तक नंबर न्यौछावर कर दिए जाते. इसकी एवज छात्रों से मामूली नजराना वसूल कर परीक्षक की दावत कर दी जाती और कोई तोहफा दे दिया जाता था.
परीक्षाकेंद्र में सभी छात्र कुंजिया लेकर जाया करते थे, कोई चित्रा, कोई लक्ष्मी तो कोई पारस. पहले दिन ही कोई नेतानुमा छात्र सभी कुंजियों के ब्रांड अलाट कर देता था ताकि इनकी विविधता बनी रहे और ज्यादा उत्तर फंस सकें.
इम्तहान के पहले दिन स्कूल के प्रिंसिपल हर कमरे में जाकर फर्नीचर, फर्श और बिल्डिंग को नुकसान न पहुंचाने की हिदायत देते थे. ऐसा किये जाने पर कुछ नहीं करने दूंगा की धमकी में अन्तर्निहित होता था कि ऐसा करने पर नक़ल नहीं करने दी जाएगी. प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका बाँट दी जाती थी. इसके बाद ड्यूटी मास्साब को हर कॉपी पर दस्तखत करने होते थे. यही वक़्त होता था नक़ल छांटने का. जब तक मास्टर आपके पास ना आ जाये तब तक आप नक़ल छांट सकते थे और उसके दस्तखत करके चले जाने के बाद भी छांटते रह सकते थे. यह प्रक्रिया पूरी कर लेने के बाद मास्साब सबसे मुखातिब होकर घोषणा करते कि किसी के पास कुछ हो तो जमा करा दे. इस घोषणा में अन्तर्निहित था कि छांटने के बाद बचा हुई किताब, कुंजी, फर्रा जमा कर दिया जाये. फंसा हुआ माल बहुत रचनात्मकता के साथ सेट करके सभी रद्दी जमा कर दिया करते थे.
उसके बाद मास्साब कहीं पसर जाते और नक़ल के आदान-प्रदान हेतु पैदा शोरगुल के बीच आते और किसी कि नक़ल छीनकर ले जाते, क्लास में सन्नाटा पसर जाता. एक प्रजाति हुआ करती फ्लाईंग स्क्वाड. ये छापा मारकर पकडे गए छात्र का साल खराब कर दिया करते. इनसे निपटने के लिए स्कूल से एक किमी तक हर सड़क पर वरिष्ठ, अनुभवी स्वयंसेवी छात्र हर खम्भे पर तैनात रहते थे. उड़न दस्ते को देखकर खम्भे की श्रृंखला बज उठती. ध्वनि की गति का अद्भुत प्रयोग रंग लाता. फ़ौरन सारी पुर्जियां हतप्रभ खड़े मास्साब पर फेंक दी जातीं और स्कूल के चपरासी क्लर्क सटासट इन्हें बोरों में भरकर ठिकाने लगा आते. दुस्साहसी छात्रों में से कुछ नक़ल समेत धरे जाते, दरअसल उनके सामने एक तरफ कुआँ दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति जो हुआ करती थी.
कभी-कभी कुंजियाँ बेअसर हो जाती थीं, किसी में कुछ नहीं फंसा होता था. खम्भों पर टिके छात्र भी अपने पास मौजूद कुंजियों से मिलान कर व्यथित हो जाया करते थे. वह खिड़की के पास तक आ जाते और कभी-कभी उन पर चढ़ भी जाया करते. इस दशा में परचा आउट किया जाता था. पर्चे के चार पन्ने कोई साहसी छात्र बाहर फेंक देता और उसके वापस आ जाने पर बचा हुआ आधा. बाहर मौजूद स्वयंसेवक छात्र अपने अचूक निशाने से पर्चा और प्रश्नों के उत्तर लिखकर परीक्षा कक्ष तक पहुंचा दिया करते थे. तेरे पास पांचवे का ए है, मेरे पास चौथे का बी है जैसी सीत्कारों से कमरा भर जाया करता. मास्साब स्थिति की गंभीरता को समझकर इसे सहजता से स्वीकार कर हो जाने दिया करते.
इन शिक्षकों का तब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा के बोर्ड इम्तहान में आने वाले 28 प्रतिशत रिजल्ट में महती योगदान हुआ करता था. उस दौर की पिछली पंक्तियों में बैठने वाले छात्र साल भर जमकर कुटान करने वाले इन मास्साबों की परीक्षाओं के दौरान प्रकट होने वाली दयालुता को कभी नहीं भूल सकते.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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