अमरीका के सबसे ज़्यादा बिकने वाले समकालीन लेखकों में से एक क्रिस्टोफ़र पॉलीनि अब सैंतीस साल के हैं. जब उनकी पहली किताब प्रकाशित हुई थी तो उनकी उम्र महज़ सत्रह साल की थी. उन्नीस साल का होने से पहले वो न्यू यॉर्क टाइम्स बेस्ट सेलिंग ऑथर हो चुके थे. बाइस के पहले उनकी किताब पर फ़िल्म बन चुकी थी. और तो और क्रिस्टोफ़र अट्ठाइस बरस के थे जब गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने उन्हें ‘यंगेस्ट ऑथर ऑफ अ बेस्ट सेलिंग बुक सिरीज़’ के रूप में पहचान लिया था.
(Tathagat Srivastava Second Book)
उम्र के बाबत इस प्रश्न के जवाब में कि टीन एज या युवावस्था में लिखने और थोड़ा बड़े होकर लिखने में क्या अंतर पेश आता है क्रिस्टोफर कहते हैं कि ‘युवाकाल या बचपन में लिखने में एक अच्छी बात यह थी कि उन्हें पता ही नहीं था कि उन्हें क्या ‘साधना’ है इसलिए डर बहुत कम था. उन्होंने बस शुरुआत की और कर दिया.’
उम्र की भागती सी इस सड़क पर कौन सा वो बेमतलब का टर्निंग पॉइंट होता है जब आदमी कुछ ‘साधने’ की फ़िराक़ में लग जाता है? दरअसल वो एक थ्रेशहोल्ड उम्र होती है जिसके बाद आपके सपनों की संख्या उम्र की संख्या से कम होने लगती है! वो मोड़ कब आता है पता नहीं. लेकिन ये ज़रूर कहा जा सकता है कि उस पॉइंट के बाद डर बढ़ने लगता है, कहीं पहुँच जाने की व्यग्रता बढ़ने लगती है, कुछ पा लेने की कशिश बढ़ने लगती है. दूसरी तरफ़ सपनों को सच करने वाले रास्ते पर चलने की मासूमियत, बेपरवाही और मज़ा कम होने लगता है!
(Tathagat Srivastava Second Book)
तथागत निस्संदेह उम्र के उस मोड़ पर अभी नहीं आये हैं. वो अभी बारह बरस के हैं. मेरे हाथ में उनकी दूसरी किताब है.
किताब के बारे में कुछ कहने से ज़्यादा मैं उस उम्र में जाने की कोशिश कर रहा हूँ जिसमें तथागत अभी बिल्कुल अभी हैं. (वैसे मेरा पक्का मानना है कि लेखक कभी एक उम्र में टिककर नहीं रह पाता, उम्रों के बीच उसकी आवाजाही बहुत तेज़ रहती है.) बचपन में जाने की कोशिश!
अब मैं वो कहानियाँ नहीं सुन रहा जो उम्र के बड़े सुनाते आ रहे थे. हो सकता है कहानियाँ वही हों पर कहानियों के अंदर वो नहीं सुन रहा जो सुनते आ रहा था. बच्चे वो कहानियाँ नहीं सुनते जो बड़े सुनते हैं. उस तरह से नहीं सुनते जिस तरह से बड़े सुनते हैं. उनकी पसंद, भाषा और तेवर सब अलग होता है. लेकिन बच्चे वो कहानी सुनाते हैं जो बड़ों को ज़रूर सुननी चाहिए. चाहे वो जिस भी तरीके से सुनाएं. उसमें बड़ों की दुनिया का सरल, बोधगम्य और सुंदर वर्ज़न छुपा होता है.
तथागत किसी बड़ी बात का सरल तर्जुमा लेकर आये हैं. वो बात डार्विन की ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ का सिद्धांत है. इस सिद्धांत को खोलने की जुगत में उनकी अपनी दुनिया में जो बिल्कुल करीबी परिवार जनों, घरेलू और गली के चौपायों के इर्द-गिर्द बनती है, से वो एक खिड़की चुनते हैं और फिर एकदम से एक बड़ी दुनिया को देखने लगते हैं. दरअसल ये देखना बड़ों को उनकी दुनिया दिखाना भी है.
(Tathagat Srivastava Second Book)
जिस निष्कर्ष पर वो पहुँचते हैं वो इस सिद्धांत का सरलतम निष्कर्ष है. आराम से धीरे-धीरे बिना किसी व्यग्रता के प्राप्त किया जाने वाला. उम्र के उस टर्निंग पॉइंट के पहले दिखाई देने वाला निष्कर्ष जिसके इस तरफ धुंधलका है.
काश कि इस बहुत सारी संभावनाओं से भरे लेखक की उम्र में वो मोड़ टलता ही जाए.
बच्चों की दुनिया की ये सुंदर आत्मकथात्मक एकल कहानी की किताब ‘एंड देन देयर वाज़ वन’ बुक वर्ल्ड, देहरादून के ‘काला अक्षर’ इकाई से प्रकाशित हुई है.
(Tathagat Srivastava Second Book)
तथागत की पहली किताब के विषय में यहां पढ़ें:
देहरादून में रहने वाले ग्यारह साल के बच्चे ने लिखी कविताओं की बड़ी किताब, देश भर में चर्चा
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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