जनपद पौड़ी गढ़वाल के रिखणीखाल विकासखण्ड से लगभग पच्चीस किलोमीटर बांज तथा बुरांश की जंगलों के बीच चखुलियाखांद से लगभग सात किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित है ताड़केश्वर महादेव मंदिर.
गढ़वाल राइफल के मुख्यालय लैन्सड़ौंन से लगभग पचास किलोमीटर दूर तथा गढ़वाल के द्वार कोटद्वार से लगभग पैंसठ किलोमीटर दूर स्थित यह धार्मिक स्थल दशकों से लोगों की आस्था और धार्मिक पर्यटन का केन्द्र रहा है. इसके पश्चिम में गढ़वाल का प्रसिद्ध पौराणिक बाजार सतपुली यहां से लगभग दस -बारह किलोमीटर दूरी पर है. यही वही सतपुली बाजार है जहां आज से लगभग पैंसठ साल पहले यहां नयार में आई भंयकर बाढ से दर्जनों बसें बह गई थी तब यहां काफी जनधन की हानि हुई थी. उस समय यहां कोटद्वार, पौड़ी आदि से आने व जाने वाली बसें रात के समय रूका करती थी और यह गढ़वाल के यातायात संचालन का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था.
ताड़केश्वर महादेव ताड़ के विशाल वृक्षों के बीच में स्थित एक ऐसा प्राचीन तथा पौराणिक मंदिर है कि जहां आने मात्र से ही मन को एक अजीब प्रकार का सुकून और राहत मिलती है. यहां पर प्रकृति ने ऐसा वातावरण तथा दृश्यावलि रची हुई हैं कि ऐसा इस जगह के अतिरिक्त और कहीं देखने को नही मिलता है. यहां विशाल ताड़ के वृक्ष तथा हर मौसम में लबालब भरे जलकुण्ड देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है.
कहते हैं कि ताड़कासुर का वध करने के बाद भगवान शिव ने यहां विश्राम किया था जब माता पार्वती ने देखा कि भगवान शिव को सूर्य की गर्मी लग रही है तो माता पार्वती ने स्वयं देवदार के वृक्षों का रूप धरा और भगवान शिव को छाया प्रदान की. भगवान शिव मंदिर के प्रांगण में आज भी वे सात ताड़ के पेड़ विराजमान हैं. रामायण में भी ताड़केश्वर का वर्णन एक पवित्र तीर्थ के रूप् में मिलता है. यहां बाबा ताड़केश्वर के पास लोग यहां अपनी मुरादें लेकर आते हैं. और भोलेनाथ अपने भक्तों को कभी निराश नही करते हैं. ऐसी मान्यता है कि जब किसी की मनोकामना पूरी होती है तो वे यहां मंदिर में घंटी चढ़ाते हैं. यहां मंदिर में चढ़ाई गई हजारों घंटियां इस बात का प्रमाण हैं कि यहां बाबा की शरण में आने वाले मनीषियों का कल्याण होता है.
जब आप चखुलियाखांद से मंदिर की ओर चलते हैं तो आपको जरा भी आभास नही होता कि आप ताड़केश्वर महादेव पहुंचकर ऐसा भव्य शक्ति स्थल के दर्शन करेेंगे जो आपकी थकान तथा परेशानियों को पल में ही भुला देगा. ताड़केश्वर पहुंचकर पता चलता है कि सम्पूर्ण गढ़वाल में ऐसा भव्य शक्ति स्थल शायद ही कहीं होगा. यहां आकाश को चूमते विशाल देवदार के वृक्ष मानों वे आकाश से बातें कर रहे हों. सामने छोटी-छोटी पहाड़ियां और बांज तथा बुरांश के घने जंगल इसकी शोभा को और बढ़ा देते हैं.
यहां अनेक प्रकार की जड़ी बूटियां तथा वनस्पतियां हैं जो कि ताड़केश्वर महादेव की सीमा से बाहर आने कहीं नही दिखाई देती हैं. पौराणिक मान्यता है कि ताड़केश्वर महादेव के शिव लिंग में जो दूध चढ़ाया जाता था वह यहां से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर झाल नामक स्थान पर एक जलकुण्डी से निकलता था. इस कुण्ड को लोग शिवलोक का प्रवेशद्वार भी मानते हैं. इस विषय में एक रोचक कथा भी प्रचलित है. कहते हैं कि पास के ही एक गांव की एक लड़की इस कुण्ड में अपनी छाया देख रही थी और अचानक वह इस कुण्ड में आ गिरी और शिवलोक पहुंच गई. वहां पहुंचकर कन्या ने शिव से विवाह कर लिया उसका नाम पार्वती था. एक बार जब पार्वती अपने मायके गई तो उसने शिव के बारे में किसी को नही बताया. और वहां से वापस आयी तो उसके मायके वालों ने उसके साथ कलेवा और राशन आदि जो बेटी को मायके से बिदा करते समय मिलता था उसे लेकर गांव के आदमियों को भेजा. पार्वती उनके साथ उस जलकुण्ड तक पहुंची देखते ही देखते अचानक पार्वती वहां से गायब हो गई. तब लोगों को शिव की महिमा का भान हुआ तब से यह कुण्ड पूजनीय हो गया.
एक स्थानीय किंवदती के मुताबिक उत्तराखंड की एक जाति के लोग यहां नहीं आते. मंदिर में सरसों का तेल तथा शाल का पत्ता भी वर्जित है.
यात्रियों को यहां आते समय टार्च, एकाध गरम कपड़ा तथा कुछ उनी कपड़े लाना नही भूलना चाहिए. यहां गर्मियों में भी वर्षा होने पर काफी ठंड़ा मौसम हो जाता है. यहां सर्दियों में नवम्बर से जनवरी तक कभी-कभी बर्फ पडती है. इसलिए यहां आने से पहले गरम कपड़े साथ लाना न भूलें. कोटद्वार से सिसल्ड़ी होते हुए चखुलियाखांद तक मुख्य मोटर मार्ग से आया जा सकता है उसके बाद यहां के लिए बांई ओर कच्ची सड़क है. यहां से यदि अपनी गाड़ी से मंदिर तक आना हो तो जानकार चालक ही अपनी गाड़ी लायें वरना चखुलियाखांद से पैदल सात किलोमीटर सड़क का रास्ता है वेसे यहां बस भी आती है लेकिन उसका अपना समय है. चखुलियाखांद से अपनी गाड़ी की अपेक्षा किराये की टैक्सी आदि से आना उचित रहता है क्योंकि वे लोग जानकार होते हैं.
ताड़केश्वर मंदिर पर यह आलेख दिल्ली में राज्यसभा में कार्यरत युवा लेखक दिनेश ध्यानी का लिखा हुआ है. दिनेश दिल्ली में राज्यसभा में कार्यरत हैं. दिनेश के चुनिंदा कविता संग्रह और कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. वह विभिन्न समाचार पत्रों और वेबसाइट्स के लिए भी नियमित लेखन करते हैं. उनका यह लेख हिलवाणी वेबसाईट से साभार लिया गया है.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…
तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…
चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…