अब जब कविता के रूप, उसके प्रतिपाद्य, उसकी भाषा से ज़्यादा उसके होने, न होने पर ही चौतरफा हमले हैं, आलोक धन्वा की कविता इस पूरे परिदृश्य पर एक चाँद के जैसे टँकी हुई दिखती है. आज जब कविता पर त... Read more
बारिश एक राह है स्त्री तक जाने की
बारिश -आलोक धन्वा बारिश एक राह है स्त्री तक जाने की बरसता हुआ पानी बहता है जीवित और मृत मनृष्यों के बीच बारिश एक तरह की रात है एक सुदूर और बाहरी चीज़ इतने लंबे समय के बाद भी शरीर से ज़्यादा... Read more
आलोक धन्वा – जिसकी दुनिया रोज़ बनती है!
आलोक धन्वा – जिसकी दुनिया रोज़ बनती है -शिरीष मौर्य हर उस आदमी की एक नहीं कई प्रिय पुस्तकें होती हैं, जो किताबों की दुनिया में रहता है. मैं भी किसी हद तक इस दुनिया में रहता हूँ और ऐसी... Read more
(पिछली कड़ी से आगे) अपने भीतर घिरते जाने की कविताः आलोक धन्वा के बारे में -शिवप्रसाद जोशी आलोक धन्वा क्या थ्रिल के कवि हैं. क्या उनकी कविताएं कंपन और थर्राहट से भरी हुई हैं. वो कोयल बुलबुल ब... Read more
अपने भीतर घिरते जाने की कविताः आलोक धन्वा के बारे में -शिवप्रसाद जोशी अगर हिंदी कविता में इधर सबसे बेचैन और तड़प भरी रूह के पास जाना हो तो वो आलोक धन्वा के पास है. अपने दौर के तूफ़ानी कवि के... Read more
कोयल उस ऋतु को बचा रही है
चेन्नई में कोयल -आलोक धन्वा चेन्नई में कोयल बोल रही है जबकि मई का महीना आया हुआ है समुद्र के किनारे बसे इस शहर में कोयल बोल रही है अपनी बोली क्या हिंदी और क्या तमिल उतने ही मीठे बोल जैसे अवध... Read more
भारतवासी होने का सौभाग्य तो आम से भी बनता है
आम के बाग़ -आलोक धन्वा आम के फले हुए पेड़ों के बाग़ में कब जाऊँगा? मुझे पता है कि अवध, दीघा और मालदह में घने बाग़ हैं आम के लेकिन अब कितने और कहाँ कहाँ अक्सर तो उनके उजड़ने की ख़बरें आती रहत... Read more
कितनी-कितनी लड़कियां भागती हैं मन ही मन
भागी हुई लड़कियां -आलोक धन्वा एक घर की जंजीरें कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भग... Read more
पतंग – आलोक धन्वा 1. उनके रक्तों से ही फूटते हैं पतंग के धागे और हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या फ... Read more
फ़र्क़ -आलोक धन्वा देखना एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में कुछ देर के लिए घूमने निकलूंगा और वापस नहीं आ पाऊँगा ! समझा जायेगा कि मैंने ख़ुद को ख़त्म किया ! नहीं, यह असंभव होगा बिल्कुल झूठ होगा !... Read more
Popular Posts
- हो हो होलक प्रिय की ढोलक : पावती कौन देगा
- हिमालयन बॉक्सवुड: हिमालय का गुमनाम पेड़
- भू कानून : उत्तराखण्ड की अस्मिता से खिलवाड़
- यायावर की यादें : लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले
- कलबिष्ट : खसिया कुलदेवता
- खाम स्टेट और ब्रिटिश काल का कोटद्वार
- अनास्था : एक कहानी ऐसी भी
- जंगली बेर वाली लड़की ‘शायद’ पुष्पा
- मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम
- लोक देवता लोहाखाम
- बसंत में ‘तीन’ पर एक दृष्टि
- अलविदा घन्ना भाई
- तख़्ते : उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की कहानी
- जीवन और मृत्यु के बीच की अनिश्चितता को गीत गा कर जीत जाने वाले जीवट को सलाम
- अर्थ तंत्र -विषमताओं से परिपक्वता के रास्तों पर
- कुमाऊँ के टाइगर : बलवन्त सिंह चुफाल
- चेरी ब्लॉसम और वसंत
- वैश्वीकरण के युग में अस्तित्व खोते पश्चिमी रामगंगा घाटी के परम्परागत आभूषण
- ऐपण बनाकर लोक संस्कृति को जीवित किया
- हमारे कारवां का मंजिलों को इंतज़ार है : हिमांक और क्वथनांक के बीच
- अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ
- पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला
- 1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक
- बहुत कठिन है डगर पनघट की
- गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’