12 जनवरी 1863 को कलकत्ता मे नरेन्द्रनाथ का जन्म होना फिर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आकर बालक नरेंद्र का स्वामी विवेकानंद बन जाना एक अलग कहानी है. उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है शिकागो विश्व धर्मसंसद में धर्म और राष्ट्रवाद पर दिया उनका भाषण.
1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद द्वारा अपने विश्व प्रसिद्ध भाषण में भारत में राष्ट्रवाद की जिस चेतना को जागृत किया था वह चेतना गुलाम भारत में उस राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए अति आवश्यक थी, जिस राष्ट्र की बहुसंख्यक जनता अपने समग्र संसाधनों और पूर्ण एकजुटता से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़कर पराजित हो चुकी थी.
भारत के मूल निवासी जिन्हें हम आदिवासी और वनवासी के नाम से जानते हैं वह 19 वीं सदी के प्रारंभ से ही जंगलों के अवैज्ञानिक दोहन और जंगलों में आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों से उन्हें वंचित करने के कारण अंग्रेजो के विरुद्ध पहले ही कई बार विद्रोह का बिगुल बजा चुके थे.
स्वामी विवेकानन्द की उत्तराखण्ड यात्राएँ
इन आदिवासियों मे प्रमुख कोल, संथाल, भील आदि जातियों ने अलग-अलग स्थानों और समय में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया. इन सभी विद्रोहों को अंग्रेजों ने भीषण दमन के बाद कुचल दिया. परिणामस्वरूप एक राष्ट्र के रूप में भारत की चेतना तब इतनी कुंद हो चुकी थी, मनोबल इतना गिर चुका था कि उन्हें इस बात का यकीन ही नहीं था कि भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक राष्ट्र के रूप में कभी स्वीकार भी किया जा सकता है.
ऐसी घनघोर हताशा और निराशा के बीच विश्व धर्म संसद में अपनी आध्यात्मिक शक्ति से दुनिया को नई राह दिखाने का जो वक्तव्य विवेकानंद ने शिकागो की धर्म संसद में किया उससे समस्त भारत में एक नई चेतना और एक नए आत्मविश्वास का संचार हुआ. उस धर्म संसद में भारत की शक्ति का स्रोत उसकी धार्मिक सहिष्णुता और धर्म में सार्वभौमिक स्वीकृति को बताया.
विवेकानन्द ने कहा –“मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं. मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों से सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी. मुझे गर्व है कि आपने दिल में हमने इजरायल की वह पवित्र यादें संजो कर रखी हैं जो हमलावरों ने नष्ट कर दी”
गीता के श्लोक को उद्धृत कर विवेकानंद कहते हैं. “जो भी मुझ तक आता है चाहे कैसा भी हो मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं परेशानियां झेलते हैं. लेकिन आखिर में मुझ तक पहुंचते हैं”
अर्थात सभी धर्मों की शिक्षाएं, सभी धर्मों के रास्ते भले ही अलग-अलग हैं लेकिन सब धर्मों का मूल वह एक सर्वशक्तिमान ही है. जो मानवता में ही प्रतिबिंबित होता है. अर्थात मनुष्यता का कल्याण ही सभी धर्मो का मूल है.
सांप्रदायिकता पर चोट करते हुए विवेकानंद बहुत प्रगतिशील हो जाते हैं. वह कहते हैं–
“सांप्रदायिक कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है. उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है. न जाने कितनी सभ्यताएं तबाह हुई, कितने देश मिटा दिए गए. यदि यह खौफनाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज्यादा बेहतर होता जितना की अभी है.”
धर्म संसद मे विवेकानंद पूरी दुनिया से हर तरह की कट्टरता हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने का आह्वान करते हैं फिर चाहे यह विनाश तलवार से किया जाए अथवा कलम से.
विवेकानंद के ऐसे ही धार्मिक विचार का सम्मान करते हुए सुभाष चंद्र बोस उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहते हैं. जिस प्रकार की धर्म की कल्पना विवेकानंद ने की, जिसके मूल में मानव कल्याण हो, जिसमें किसी भी प्रकार की कट्टरता और हिंसा ना हो, धर्म का वही स्वरूप भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में भी झलकता है.
वह हर प्रकार की सांप्रदायिकता और कट्टरता का विरोध करते हैं. यही उदार और सहिष्णु धर्म विवेकानंद के राष्ट्रवाद का आधार भी है.
मौजूदा समय मे समाज में राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न प्रकार की कट्टर धार्मिक गतिविधियां जारी हैं. अलग-अलग प्रकार के संगठन इस कथित राष्ट्रवाद के विचार को पुष्पित पल्लवित कर रहे हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश संगठन जिस राष्ट्रवाद की अवधारणा को आगे लेकर आते हैं वह अवधारणा बहुसंख्यक समाज के धार्मिक हितों और प्रतीकों को आगे करके गढ़ी जाती है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता का तत्व विलीन होता दिखता है. वह विपरीत मत के धर्मावलंबियों को सुरक्षा का भाव ना देकर, एक अज्ञात भय से भर देता है.
इस प्रकार राष्ट्रवाद के नाम पर जिस प्रकार की धार्मिक अवधारणाओं को आज आगे किया जा रहा है. धार्मिक आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं जिसकी पराकाष्ठा ने कानून के शासन के समक्ष चुनौतियां पेश कर दी है मजबूरन जिस पर सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है ऐसा किसी राष्ट्रीय शर्म से कम नहीं है.
राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसी गतिविधियां, निश्चित रूप से विवेकानंद के बहु-सांस्कृतिक और सहिष्णु राष्ट्रवाद पर चोट करते प्रतीत होती हैं. यही आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती भी है. शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानंद द्वारा धर्म के जिन मूल तत्व को रेखांकित किया, यदि आज हम उन्हें समझने लगें तो, धर्म के आधार पर राष्ट्र के समक्ष उपस्थित समक्ष समस्त खतरे स्वतः समाप्त हो जाएंगे और इस प्रकार की समझ का विकसित होना ही विवेकानंद को सच्ची श्रद्धांजली होगी.
प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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1 Comments
आलोक
आप अपनी बनाई दुनिया मे जी रहे हैं यानी यूटोपिया। आपके हमारे सोच लेने भर से वास्तविकता नही बदल जाती। आज भारत को बाहर से ज्यादा भीतर से खतरा है। टुकड़े टुकड़े और अवार्ड वापसी गैंग को हर हालत में नेस्तनाबूद करना होगा।