समाज

सुरेंद्र सिंह वल्दिया : सोर घाटी से अर्जुन अवार्ड तक एक ठेठ पहाड़ी की यात्रा

सोर घाटी में जूनून की हद तक खेलों की दीवानगी रही है. छोटे बड़े मैदानों में सुबह शाम जमा होते खिलंदड़े, अपने बदन की ताकत को एक फन में बदलते, मांसपेशियों का जोर दिखाते, भुजाओं में उभर आ रही मछलियों में ताकत को एकाग्र करतेखूब पसीना बहाते. उनकी देखादेखी कम उमर के लौंडे भी खेल के मैदान में उतरने को अपना सपना बना लेते. लड़कियां भी कम नहीं जिन्होंने हंसा मनराल की तर्ज पर कई एथेलेटिक्स में भाग लिया और जीत हासिल की.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

गाँव देहात की आबो हवा. घर का दूध दन्याली, हर काम के लिए हाड़ तोड़ परिश्रम, चाहे वह स्कूल जाना हो, धर में उग रही साग सब्जी बाजार ले जानी हो और फिर जहां से सौदा बस्ता भी बोक के लाना हो. चढाई उतार . कांटे कुरमुले किस्म किस्म के जानवर. खड़ंजे पडंजे तो बहुत बाद में विकास की गति के साथ पड़े. पहले तो पगडंडियां थीं. आगे बढ़ने में गाड़ गधेरों का अवरोध था. नदियाँ थीं, छोटी-बड़ी जिनको पार करना हुनर मांगता था. हर जगह पुल की सुविधा नहीं देता था. पुल भी थे कई ऐसे, कि दो से तीन आदमीं चलें तो वो डगमगाए. कहीं तार झूल रहा कहीं, लकड़ी के पट्टे ऐसे चरमरा रहे कि लगे अब टूटा और नदी में जा समाया. अब जहां ऐसे पुल नहीं तो वेगवती नदी को पार करने के लिए तैर के जाना है और वह भी धारा के विरुद्ध. जिसने ये साहस कर लिया वह सपड़ गया. फिर कइयों को अपने साथ ले चला.

पिथौरागढ़ में खेल जगत की ऐसी ही एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में उभरे सुरेंद्र सिंह वल्दिया. जिनके जूनून ने उन्हें सोर घाटी से राष्ट्रीय स्तर और फिर वैश्विक स्तर पर भी विख्यात कर दिया. उनकी चाहत उनका शौक उनकी ऊर्जा परंपरागत खेलों से हट ऐसे इवेंट में डूब उतर रही थी जिसमें वेग था, उतार चढ़ाव था, थपेड़े थे, भंवर थे और ये खेल था नौकायन जो इस इलाके में बिलकुल अनजाना था और यह डल झील या नैनीताल भीमताल में आमोद -प्रमोद के लिए की जाने वाली बोटिंग तो बिलकुल ही ना थी. बस वेगवती नदी के हर थपेड़े को सह, हर लहर को संतुलन के साथ साधते हुए बढ़ना था और वह भी अगेंस्ट द स्ट्रीम .

और खेलों को देखने- खेलने- समझने के लिए सोर घाटी में देव सिंह मैदान था.इंटर कॉलेज -डिग्री कॉलेज के, बजेटी के जैसे छिटपुट क्रीड़ांगन थे. भोर की बेला से सूरज के छुप जाने तक हर मौसम में यहाँ कुछ ना कुछ खेल चलता रहता. पिथौरागढ़ का फेमस फुट बॉल भी, जो घनघोर बारिश के आ जाने और मिट्टी कीचड़ से लथपथ होने पर भी रुकता नहीं अनवरत चलता था पूरे टाइम तक.  रपट रहे हैं, फिसल रहे हैं पर खेले जा रहे हैं. और दर्शक भी देखे जा रहे हैं. भले ही भीग भाग मिट्टी से सनी ढाई किलो की फुटबॉल दन्न से आ उन्हें सुन्न ही क्योँ ना कर दे. ऐसे गुलज़ार रहते खेल के मैदानों में अक्सर तिल धरने की जगह ना होती. पर प्रेमी हैं ऐसे कि प्ले ग्राउंड की झलक दिखा देने वाले पेड़ों और दुमंजिले चौमंजिले मकानों पे चढ़ कर भी इस नज़ारे के रोमांच को रोमांस में बदल देते. आस पास की कई दुकानों में टिक्की -समोसा, बन मक्खन, चाय -कॉफी, दूध -दही की बिक्री बढ़ती रहती. देव सिंह मैदान में स्टेट बैंक बिल्डिंग का अहाता और स्टेडियम की सीढ़ियां खचाखच भरी होतीं. मैच के छूटने के साथ तमाम चर्चाओं का बखान करती बातें जो ज्यादातर खेल और खिलाडियों पर टिकी होतीं. दर्शकों में भी खेल के मैदान में जमे रहने, चीयर अप करने की अद्भुत दीवानगी थी.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

 पर सुरेंद्र को वाहवाही देने वाले इस मैदान में न होते क्योंकि उसका अभ्यास तो पानी की लहरों के साथ बंधा था. उसने अपने रिश्ते इन लहरों को तेजी से चीर होने वाले इवेंट नौकायन से जो जोड़ लिया था. सब यही कहते कि फुट बॉल खेलो, वहां कोच ही कोच हैं, टक्कर देने वाले खिलाडी हैं. धीरेन्द्र चौहान हैं, मऊ भाई साब हैं. क्रिकेट है जिसको टी वी में चिपक ही कैसे कैसे गुगलीबाज पैदा हो रहे. फिर मुक्केबाजी है. थापा जी जैसे कोच हैं जिसमें. अब ये नौकायन? काली धौली में नाव चलाएगा क्या? क्योँ रे सुरिंदर पोथिया !

पिथौरागढ़ शहर से सटा गाँव है पौण. हरियाली से भरा, समृद्ध, साग सब्जी उत्पादन में अव्वल. इसी शांत सजीले गाँव में 29 दिसंबर 1962 को श्री राम सिंह वल्दिया के घर जन्म लिया सुरेंद्र ने. और पेंतीस वर्षों की अनवरत साधना के बाद अगस्त 1997 में अर्जुन पुरस्कार प्राप्त कर पूरे देश में कीर्तिमान रच दिया. वर्ष 1996 के घोषित अर्जुन पुरस्कारों में नौकायन पर अर्जुन पुरस्कार उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन द्वारा प्रदान किया गया. पुरस्कार एवं पदकों को राष्ट्रीय -अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हासिल करने वाले जुझारू खिलाडियों की पिथौरागढ़ में कमी नहीं. पर यह उपलब्धि एक ऐसे दौर में सामने आई जब नौकायन कम से कम पहाड़ के लिए एक नई विधा थी. उन्होंने एक नया खेल और उसमें पारंगत बनने कर हुनर सामने रखा.

राष्ट्रपति के करकमलों से अर्जुन पुरस्कार ले, पहली सितम्बर 1997 को जब सुरेंद्र अपने गाँव आए तो पूरी सोर घाटी अपने ऐसे खिलाड़ी का स्वागत करने को बेताब थी जिसने एक नया रास्ता दिखाया और उन सारी मुश्किलों को पार कर आखिरकार वह लक्ष्य पा ही लिया जिसके अभ्यास के लिए सुरेंद्र ने बहुत परिश्रम किया. गुरू और कोच भी सब बाहर ही मिले. अपने शहर से उसे मिली खेल की वह अभिरुचि जो क्रीड़ा मैदान की तमाम हलचलों से घनीभूत हो कर उनके लिए एक ठोस इरादा बन उभर रही थी. जवानी आते आते पूरी तरह तैयार हो चुकी थी.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

पिथौरागढ़ के देव सिंह कॉलेज के खेल परिसर में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया जिसमें खेलप्रेमी व जनता उमड़ पड़ी. वैसे भी पिथौरागढ़ की जनता बड़े खुले दिल वाली और सम्मान देने में हमेशा आतुर रही. अब तो उनका मान देश विदेश तक फहरा देने वाला उनके बीच था. उनका अपना, उनके बीच पढ़ा -खेला -कूदा. युवा बस यही सोच उत्साहित थे कि अब नये खेल नये इवेंट में कुछ कर गुजरने के मौके उन्हें मिलेंगे. इतने सवाल, इतनी उत्कंठा, खेल के लिए इस हद की जागरूकता कि अपने सम्मान समारोह में सुरेंद्र भावुक हो पड़े. बोले कि राजधानी दिल्ली के अशोका हॉल में माननीय राष्ट्रपति जी के कर कमलों से अर्जुन पुरस्कार ग्रहण करने से जो ख़ुशी मुझे मिली उससे ज्यादा मुझे वह संतुष्टि मेरे जनपद के निवासियों के चेहरों में दिखाई दे रही है. जो मेरे खेल के साथ आज मेरे साथ खड़े हो गए हैं, मुझे शाबाशी दे रहे हैं. मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं . नौकायन में अभी और कई कई मंजिलें छूनीं हैं. देश का द्रोणाचार्य पुरस्कार है तो अन्तर्राष्ट्रीय कई पदक जैसे बाट जोह रहे हैं. मेरा ही नहीं उस हर नौजवान का जो खेल में समर्पण को अपने दिल अपने दिमाग में बसा ले. बस जरुरी है कि एक लहर तो उपजे. पहाड़ के पानी और यहाँ की जवानी ने अपने मजबूत जिस्म, कदकाठी और अभावों के बीच रह कर वह ट्रेनिंग पा ली है जिसे कोई भी संस्थान तराश सकता है.

पर रास्ते इतने आसान भी नहीं होते. सबसे मुश्किल होता है जज़्बे को बनाये रखना. आज जब पहाड़ में पहले से ज्यादा नौजवान शिक्षा की सुविधा पा रहे हैं. प्रशिक्षण के रास्ते खुल रहे. वहीं दिशा हीन दिमाग भी बढ़ते जा रहे हैं जो जरा सी असफलता से नशे की ओर खिंचते जा रहे हैं. बीड़ी सिगरेट से शुरू हो कर इनमें घुल गांजे -चरस का धुवां नौजवानों में भर रहा है जो लोकल में तो होती ही है नेपाल से भी खूब आती रही है. कई अच्छे खिलाडी भी इसकी चपेट में आ अपने केरियर को चौपट कर चुके हैं. यह फेफड़ा खा जाती है तो फिर स्टैमिना कहाँ? खेल के लिए तो यही जरुरी है. संयम भी, धैर्य भी. शरीर की ताकत भी और निरन्तर अभ्यास भी. पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी ऐसे ही बर्बाद न हो उनकी ऐसी कामना है जो उनको मिले पुरस्कार से झूमते चेहरों में साफ झलक रही है. एक प्रशिक्षक की परंपरा का पालन करना अब उनके लिए द्रोणाचार्य पुरस्कार से कम न होगा.

सत्रहवाँ साल लगा सुरेंद्र को तो 1979 में एक सिपाही के रूप में बंगाल इंजीनियर ग्रुप में प्रवेश ले लिया. उनके पिता श्री राम सिंह वल्दिया भी बंगाल इंजीनियर ग्रुप में सेवारत रहे और सूबेदार मेजर, ओनरेरी कैप्टेन के पद से सेवानिवृत हुए. बंगाल अभियंता समूह में जुड़ सुरेन्द्र ने अपनी कड़ी मेहनत, आदेशों के अनुपालन और सौम्य शिष्ट व्यवहार से अपनी अलग सी पहचान बनाई जिसमें एक ठेठ पहाड़ी पन था. एक तरफ यह सरल बच्चों सा भोला भी था तो दूसरी ओर अपनी जिद और इरादे को पूरा करने में चट्टानों सा दृढ़ भी. उनकी नौकायन की अभिरूचि को उच्च प्रतिमानों तक पहुँचाने में उनके सीनियर्स कैप्टेन बी. एस. धारीवाल, कमांडर जर्नल सचदेवा, मेजर ग्रेवाल और श्री पी. के. ओबेराय का मार्गदर्शन रहा. जिनसे वो सभी बारीकियां सीखने में सुरेंद्र के पहले चार साल लगे और जिसके बाद उन्हें लगातार नई नई लहरों को छू जाने उन्हें पार कर जाने का अवसर मिला.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

1983 में पूना में आयोजित नेशनल चैंपियन शिप में वह चौथे स्थान पर रहे तो अगले ही बरस कोलकाता के आयोजन में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता. यह उनका टेक ऑफ था. 1985 में मद्रास, 1986 में हैदराबाद, 1987 में पूना में हुए राष्ट्रीय आयोजन में उन्होंने लगातार स्वर्ण पदक जीता. 1988 व 1989 में उन्हें कांस्य पदक मिले थे.

1985 के राष्ट्रीय खेलों की प्रतिस्पर्धा में नई दिल्ली में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता. इसी के बाद अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उनकी हिस्सेदारी बढ़ी. 1986 में सियोल कोरिया में आयोजित दसवें एशियाई खेलों में उन्होंने चतुर्थ स्थान प्राप्त किया तो पहली एशियन नौकायन प्रतियोगिता में, जो हांगकांग में संपन्न हुई में उन्होंने कांस्य पदक जीत लिया. फिर तीसरी एशियन नौकायन प्रतिस्पर्धा, चंडीगढ़ में पुनः कांस्य पदक जीता. 1989 में स्विट्ज़रलैंड में संपन्न सारनेन इंटरनेशनल में उनको रजत पदक मिला. 1990 के एशियाई खेल जो बीजिंग में संपन्न हुए वह कांस्य पदक जीत लाये. तो इसी बरस मॉस्को इंटरनेशनल में उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया. इससे पहले 1984 -1985 में कोलकत्ता व स्विट्ज़रलैंड में आयोजित एमे च्योर रोइंग ऎसीयन ऑफ द ईस्ट में वह दोनों बार स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके थे.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

1990 के दशक में वह एक प्रशिक्षक के रूप में उभरे. उनके मार्गदर्शन में नौकायन की बारीकियां समझने और तकनीक के स्तर पर इस क्रीड़ा को अधिक लोकप्रिय बनाने पर उनका सारा ध्यान केंद्रित रहा.1991, 1992, 1996व 1997 में आयोजित राष्ट्रीय नौकायन चैंपियनशिप में उन्हें स्वर्ण व रजत पदक मिले. बैंगलोर में आयोजित 1997 के राष्ट्रीय खेलों में उन्हें चार स्वर्ण पदक मिले. वहीं 1993 से 1996 के बीच सियोल, यूक्रेन, चीन व जापान की अन्तर्राष्ट्रीय समागम गतिविधियों में हिस्सेदारी कर अपना विशेष स्थान बनाये रखा.

नौकायन में उनकी अभिरुचि अपनी इच्छित पराकाष्ठा तक पहुंची. उनके धैर्य और आत्मविश्वास का प्रदर्शन हुआ और इसके प्रतिफल में उन्हें अर्जुन पुरस्कार मिला. नौकायन के क्षेत्र में अर्जुन पुरस्कार प्राप्त करने वाले वह पांचवे विजेता रहे. 1983 में पहला अर्जुन पुरस्कार नौकायन में श्री पी के ओबेराय को मिला जिन्होंने सुरेंद्र सिंह वल्दिया को प्रशिक्षित किया और शिष्य ने गुरू का मान बढ़ा स्वयं भी यह सम्मान प्राप्त किया. सुरेंद्र ने अपने खेल का प्रदर्शन और सहभागिता अठारह देशों में किया और अपने पथ के हज़ारों अनुयायी बनाये. पहाड़ के पानी और जवानी की सफलता गाथाओं में उनका नाम है और बना रहेगा.
(Surendra Singh Waldiya Pithauragarh)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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