समाज

अल्मोड़ा हुक्का क्लब से इंग्लैण्ड के मैदान तक एकता बिष्ट का सफ़र : एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

विश्व में जब भी सर्वश्रेष्ठ महिला गेंदबाजों की बात की जायेगी तो एकता बिष्ट का नाम हमेशा याद किया जाएगा. अल्मोड़ा में हुक्का क्लब के छोटे से मैदान में पलास्टिक की बॉल से इंग्लैण्ड के चमकदार बड़े मैदानों तक का उनका सफ़र दुनिया के हर उस शख्स के लिये प्रेरणादायी है जो सपने देखता है और अपने सपनों के लिए हाड़तोड़ मेहनत करता है. भारत के लिये टी-20 में हैट्रिक लेने वाली वह भारत की पहली गेंदबाज हैं. एकता बिष्ट का बीस सालों का यह सफ़र किसी कहानी से कम नहीं है. काफल ट्री के लिए एकता बिष्ट से गिरीश लोहनी की एक लम्बी बातचीत :
(Ekta Bisht Interview)

बचपन के विषय में

मैं अपने भाई लोगों के साथ घर के पास ही हुक्का क्लब के छोटे से मैदान में बचपन से क्रिकेट खेलती थी. अब तो वो मैदान भी नहीं रहा वहां स्टेज वगैरह बन गये हैं. ऐसे ही प्लास्टिक की बॉल से लड़कों के साथ खेलती थी. फिर जब एक भैय्या ने मुझे देखा की ये लड़कों के साथ अच्छा खेल रही है तो उन्होंने मुझे सजेस्ट किया अल्मोड़ा स्टेडियम जाने को. फिर एक दिन शाम को वो मुझे ख़ुद ही सर के पास ले गये. वहीं मैं पहली बार अपने सर लियाकत अली खान सर से मिली. और 2001 से वहीं एक सफ़र शुरु हो गया.

हुक्का क्लब की यादें  

तब वहां पर छोटे-छोटे टूर्नामेंट होते थे. सेवन-ए-साइड, फोर-ए-साइड मैच होते थे तो उसमें मेरे तीन दोस्त वो नेपाल के थे. कंच्छा, भम्पू और मद्दी उस उम्र में मेरे बेस्ट फ्रेंड हुआ करते थे. फिर वो नेपाल चले गये बोजा वगैरा ढोने के लिये. हम छोटे-छोटे होते थे तो हमें कोई खिलाता नहीं था तब मेरा ददा एक टूर्नामेंट कराता था जिसमें हमारी टीम की एंट्री भी होती होती थी. मैं तो सुबह से शाम तक बस खेलने में रहती थी. मैं वहां बैटिंग करती थी. बायें हाथ से बल्लेबाजी करना मुझे बड़ा पसंद था और गेंदबाजी में मीडियम पेस ही करती थी. बाद में लियाकत सर ने मुझे स्पिन डालने का सुझाव दिया और उन्होंने ही मुझे स्पिन गेंदबाज बनाया. 2001 से में सर के साथ ही प्रेक्टिस कर रही थी.

एकता के माता-पिता

अपने गांव और परिवार के बारे में

हमारा गाँव देओली हुआ. अल्मोड़े से थोड़ा दूर है. जब गांव पूजा-पाठ हुआ तो हम लोग अभी भी जाते हैं गांव अपने. मैं सबसे छोटी हूँ परिवार में, एक दीदी और बड़ा भाई है. मैं लखनऊ में पैदा हुई तब पापा की पोस्टिंग थी वहां. जब में एक महीने की हुई तो हम लोग अल्मोड़ा ही आ गये. पापा जब फ़ौज से रिटायर हुए तो उन्होंने अल्मोड़ा में चाय की दुकान की दुकान खोल ली.  

अल्मोड़ा में स्कूल की यादें

अल्मोड़ा में मैंने तीसरी में एड्म्स गर्ल्स इंटर कालेज से पढ़ा. वैसे मैंने फर्स्ट और सैकेंड क्लास पढ़ा ही नहीं. पहले हमारे हुक्का क्लब के बगल में ही एक छोटा सा स्कूल था वहां नर्सरी जैसा कुछ पड़ा फिर एक हवेली हाउस में नर्सरी पढ़कर एडम्स सीधे तीन में ही एडमिशन लिया. स्कूल में बैडमिंटन खेलती थी टाइम पास को. स्कूल में हमने कितना कहा मैडम क्रिकेट प्रैक्टिस कराइये पर वो कराते नहीं थे. वैसे स्कूल में किसी को पता नहीं था कि मैं क्रिकेट प्रैक्टिस के लिये जाती हूँ करके. तो जैसे स्कूल चार बजे छूटता था मैं सबसे पहले निकलती थी और दौड़ लगाती थी. घर में चेंज करके खाना खाके सीधे ग्राउंड. जब मैं ग्राउंड में प्रेक्टिस कर रही होती थी तो थी तो मेरी दोस्त लोग तब आ रही होती थी. ऐसे ही एक मेरी फ्रैंड थी उसको पता नहीं था कि मैं ऐसे क्रिकेट खेलती हूँ वो बोलती थी –  यार तेरे जैसी लड़की एक सेम, स्टेडियम में भी खेलती है. मैंने कहा हां, वो मेरा जुड़वा भाई है.
(Ekta Bisht Interview)

कॉलेज के समय की यादें

स्कूल के बाद सोबन सिंह जीना अल्मोड़ा कैम्पस से मैंने बीकॉम और फिर एमकॉम किया. वहां मैंने यूनिवर्सिटी की टीम से भी खेला. मैं कालेज की टीम के साथ नैनीताल वगैरह खेलने भी जाती थी. इस दौरान मैंने नीतू डेविड जी को खेलते हुए टीवी में देखा उस मैच में वो प्लेयर ऑफ़ द मैच हुई तब मुझे इन्डियन वुमेन्स क्रिकेट टीम का भी पता चला. उन्हें देखकर मैंने भी एक दिन भारत के लिये खेलने का मन बनाया.  

इस दौरान आपका परिवार आपके क्रिकेट खेलने के बारे में क्या सोचता था?

बिना फैमली सपोर्ट के तो क्या ही हो सकता है. मेरे घर वालों का मुझे पूरा सपोर्ट रहा है. मेरे मम्मी-पापा ने कभी ऐसे मत कर, ऐसे लड़कों के साथ मत खेल, यहां मत जा, ऐसा कुछ नहीं कहा. बल्कि मेरी मम्मी कहती थी – जा-जा अपने बाल कटा के ला, ये लम्बे बाल अच्छे नि लगरे तुझ में. पहनने के लिये जिन्स टी-शर्ट भी मम्मी ख़ुद बाज़ार से लाती थी. कभी ऐसे तू फ्रॉक पहन घर से मत निकल, ऐसा कुछ नहीं कहा. जैसे इस समय लियाकत सर मुझे कभी लड़कों की टीम से खिलाने ले जाते थे. कभी नैनीताल, कभी हल्द्वानी मैच खेलने जाते थे तो इतनी दूर-दूर मैच खिलाने ले जाते थे तो मम्मी लोग कभी मना नहीं करते थे, तू मत खेल, तेरे चोट लग जायेगी, लड़कों की बॉल तेज आयेगी. तुझे लग जायेगी, ऐसे कभी मुझे मना नहीं किया गया.
(Ekta Bisht Interview)

जब आप लड़कों की टीम से खेलती थी तो लड़कों का कैसा व्यवहार रहता था?

उस समय जो अल्मोड़ा के लड़कों का बैच था वो तो बड़ा सपोर्टिव था वो लोग मुझे बड़ा सपोर्ट करते थे. अगर एक गेंदबाज बीस ओवर डाल सकता तो वो लोग मुझे बीस ओवर देते. हां और जैसे बाहर के लड़के होते थे, जैसे मैं स्टेडियम में दिन में प्रेक्टिस करती थी, दिन में ढाई बजे तो सर मुझे फील्डिंग प्रेक्टिस कराते थे एक घंटा. उस समय लोग मुझे बहुत कमेन्ट करते थे, ये क्या करेगी सर के साथ लगे रहती है इसका कुछ करियर नहीं है ऐसे पागलों जैसे लगी रहती है. लेकिन जो क्रिकेट टीम थी वो लोग बहुत सपोर्टिव थे. आज जो भी हूँ मैं उन लोगों के उससे ही हूँ. क्योंकि जब मैं बॉउलिंग करती थी तो मुझे विकेटकीपर की जरूरत होती थी तो उन लोगों का तब तीन घंटे बॉल पकड़ना सिर्फ इसलिये की ये खेलेगी आगे करके. तो ये जो भी हूँ मैं आज उन लोगों की ही वजह से हूँ.

कोई ऐसा मैच याद है जब आपको लड़की होने के कारण परेशानी का सामना करना पड़ा?

हां एक मैच याद है, 2006 के आस-पास का. तब हम अल्मोड़ा में थे. तब कुमाऊं यूनिवर्सिटी की टीम गयी थी नैनीताल. तो वहां दिल्ली से मैच था तो मैं तो पूरी लड़कों टाइप थी तो जब वार्म-अप वगैरह कर लिया तो दिल्ली वालों को पता नहीं चला ये लड़की है फिर जब दिल्ली वालों को पता चला की ये लड़की है तो उन्होंने खेलने से मना कर दिया कि हम नहीं खेलेंगे, कहीं इसको चोट लग गयी या कुछ हो गया तो हम नहीं खेलेंगे. तो नैनीताल में एक साह सर थे उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं ये खेलेगी, नहीं तो हमारी टीम भी नहीं खेलेगी. तो मैंने उस टीम में खेला और दस ओवर डाले और पच्चीस रन देकर तीन विकेट लिये. बाद में दिल्ली वालों ने मेरा गेम देख लिया तो मेरी पूरी वीडियो बनाई और लेकर गये.

क्रिकेट में करियर के बारे में कब सोचा

पहले तो मुझे अच्छा लगता था क्रिकेट खेलना बैट बॉल पकड़ना. 2001 में जब में अल्मोड़ा स्टेडियम गयी तब जो पहली बार लैदर की बॉल पकड़ी थी. कॉलेज के दौरान नीतू दी को देखेने के बाद मैंने तय कर लिया था की मैंने क्रिकेट को ही करियर बनाना है.

प्रोफेशनल क्रिकेट की शुरुआत कब से हुई

प्रोफेशनल क्रिकेट की शुरुआत में कॉलेज से कहूंगी फिर यूनिवर्सिटी से खेला, उत्तराखंड से खेला. उस समय पैसा तो होता नहीं था तब ट्रेन में जाते थे कई बार तो हमने ट्रेन में सामान रखने वाली बोगी में भी सफ़र किया है. फिर जब महिला क्रिकेट बीसीसीआई से जुड़ गया 2006 में तो मैं उत्तर प्रदेश से खेलने लगी क्योंकि उस समय उत्तराखंड की एसोसिएशन नहीं बनी थी.

उत्तर प्रदेश की टीम का हिस्सा कैसे बनीं?

उत्तराखंड की टीम से खेलते हुए मेरी उत्तर प्रदेश की टीम की कुछ खिलाड़ियों से अच्छी दोस्ती हो गयी थी तो उन लोगों ने ही मुझे बताया कि यूपी में ट्रायल है, कानपुर में, तू आना करके. वहां से मेरा यूपी की टीम में सलेक्शन हो गया.

अल्मोड़ा से कानपुर तक के इस सफ़र के बारे में बताइए?

उस टाइम तो मैं अकेले जाती नहीं थी और कानपुर से अल्मोड़ा तो बहुत दूर हो गया मेरे लिये. उस समय ट्रेन भी नहीं चलती थी, बस चलती थी हल्द्वानी से शाम सात बजे. ददा के एक दोस्त हैं दीवान बिष्ट वो मुझे छोड़ने आये कानपुर. हमने अल्मोड़ा से ढाई बजे वाली लखनऊ वाली बस ली और हम साढ़े छः बजे हल्द्वानी पहुंचे वहां से सात बजे वाली कानपुर की बस ली फिर हम कानपुर पहुंचे सुबह चार बजे. उस समय कमला क्लब में कोई नहीं था. उस टाइम तो इतनी पहचान भी नहीं थी तो मैं जाकर किनारे में चद्दर लगाकर सो गयी और वो दा देखते रहे कोई आ रा नहीं आ रा करके. उन्होंने कहा – तुझे ट्रायल देना है तू सो जा करके. फिर नौ बजे मैंने दोस्त से बात की और ट्रायल हुआ.   

उत्तर प्रदेश की टीम के साथ अपना अनुभव बताइये

2007 से मैंने उत्तर प्रदेश के लिये खेलना शुरु किया, मैंने दो साल वहां कप्तानी भी की है. यहां सीनियर दीदी लोगों ने मेरी बहुत मदद भी की है. यहां मुझे अक्सर नीतू दीदी मिल जाती थी उन्होंने मुझे काफी कुछ सिखाया. फिर जब 2012 में मेरी जॉब लग गयी रेलवे में तो फिर नीतू दी वहीं से हुई सो लगातार मुलाकात बड़ गयी. जब हमारा एक महीने कैम्प होता था वो बहुत हैल्प करती थी. कानपुर में रहकर जब भी मैं उनसे बोलती थी दीदी आज मेरा मैच है मेरी बॉलिंग देखने आइये तो वो आ जाते थी.
(Ekta Bisht Interview)

एकता के बड़े भाई

साल 2011 में पहली बार भारत की टीम में चयनित होने की ख़बर कैसे और कहाँ मिली?

उस टाइम तो मैं अल्मोड़ा में ही थी सोफे में लेटकर आराम से टीवी देख रही थी और मम्मी खिड़की के पास बैठी थी. बीसीसीआई में एक विकास सर हैं उनका मुझे फोन आया कि हैलो अपने कपड़ों का साइज बता दो. तब तो मेरे समझ में नहीं आया तो मैंने पूछा क्यों सर, तो बोले कि तुम्हारा इंडियन टीम में सलेक्शन हो गया है. तो मुझे तो उस समय कुछ आया ही नहीं मैंने मम्मी से चुपके से कहा – मम्मी मेरा सलेक्शन हो गया है. उस टाइम तो मुझे ऐसा कुछ आया ही नहीं दिमाग में. फिर जब मैं जाने लगी तो सब मुझे मिलने आने लगे, मुझे फूल दे रहे थे तब मुझे लगा अरे भई, मैंने कुछ बड़ा कर लिया है. तब मुझे बहुत ख़ुशी हुई मुझे रोना भी आ रहा था कि अब मेरा एक नया सफ़र शुरु हो गया है अब मुझे अकेले ट्रेवल करना है.

परिवार और आपके कोच के भाव क्या थे इस समय?

सब बहुत खुश हो गये थे. जब मैंने मम्मी को बताया तो उन्होंने तुरंत लियाकत सर को फोन किया सर उस समय हल्द्वानी में थे. जब मम्मी ने उन्हें बोला तो वो फोन पर ही रोने लगे और कहने लगे कि चलो हम दोनों की मेहनत सफ़ल हो गयी.

पहली बार भारत की जर्सी मिलने पर कैसा लगा?

इंग्लैंड के दौरे से पहले जब भारत में हमारा कैम्प लगा तो हमको जर्सी मिल गयी थी. उस दिन इतनी ख़ुशी हुई क्योंकि इसको पाने के लिये पिछले दस सालों से मेहनत की थी. हां, उसे देखकर अल्मोड़ा में हुक्का क्लब में प्लास्टिक की बॉल से अब तक का पूरा स्ट्रगल एक फिल्म की तरह आँखों के सामने चलने लगा. सब कुछ याद आ गया. अपने कमरे में आकर में खूब रो रही थी. फिर किट की पूजा पाठ की. जिस दिन किट पहनने का दिन था उससे पहली रात मैं बस उसे ही देख रही थी और सोच रही थी कि अब कुछ अच्छा करना है. अगले दिन जब किट पहनी तो सबसे पहले मैंने लोगो को चूमा. उस भाव को शब्दों में कभी बयां नहीं कर सकती.
(Ekta Bisht Interview)

पहला अन्तराष्ट्रीय मैच

मेरा डेब्यू पहले टी-20 में हुआ. पहले मैच में इंग्लैंड में आस्ट्रेलिया के खिलाफ़ खेला था. इस मैच में मुझे कोई विकेट नहीं मिला. वहां मैच के दौरान हवा चलती है जिसकी वजह से मेरी बॉल का टप्पा सही जगह नहीं पड़ रहा था. दो टी-20 के बाद जो गैप था उसमें इंग्लैंड की कंडिशन समझ आई. और पहले वन्डे में मुझे 2 विकेट भी मिले.

अल्मोड़ा से क्वींस पार्क तक के इस सफ़र को कैसे देखती हैं?

अल्मोड़ा एक छोटा सा शहर है वहां एक स्टेडियम है जिसमें फुटबाल-हॉकी-क्रिकेट सब एक साथ होता था. जब हम प्रेक्टिस करते थे तो बीच में क्रिकेट वाले, इधर हॉकी वाले उधर फुटबाल वाले होते थे. तब हमारा खेलने से ज्यादा कॉम्पटिशन इस बात का होता था कि दूसरे के वहां बॉल मारी जाये. उसकी बॉल हमारे यहां आ गयी अब हमारी भी वहीं जानी है. एक तरह का मजा आता था न उसमें भी. और फिर मैं तो ग्राउंड में कहीं भी स्टम्प लगा लेती थी बाईस कदम नापे और प्रेक्टिस शुरु. फिर जो मुझसे कोई कुछ कहने आता था मैं उससे लड़ती थी. मतलब जब मैं यूपी में गयी तब मैंने फर्स्ट टाइम देखा की ऐसे अच्छे टर्फ विकेट होते हैं क्योंकि जब हम डब्ल्यूसीए से खेलते थे तो इतने अच्छे टर्फ विकेट नहीं मिलते थे. यूपी में फर्स्ट टाइम देखा की ऐसा टर्फ विकेट होता है. फिर उस हिसाब से बॉलिंग सीखी. ऐसी जगह से दुनिया के सबसे खूबसूरत मैदानों वाले इंग्लैंड जाना अपने आप में एक सपने जैसा ही है.

भारतीय टीम में सीनियर खिलाड़ियों के साथ

जब मैं टीम में गयी तो वहां बहुत सारे सीनियर खिलाड़ी थे. मिताली दी, एमी दी, झुलू दी थी उनके सामने एक ख़ास तरह की रिस्पेक्ट होती थी. जब हम यूपी से खेलते थे तो सीनियर खिलाड़ी रेलवे की टीम से आते थे. जब रेलवे टीम ग्राउंड में आती थी तो हम सब उन्हीं को देखते रहते थे कि मतलब ये इण्डिया प्लेयर हैं. सलेक्शन के बाद उनके साथ ड्रेसिंग रुम शेयर करने का एक अलग अनुभव रहता है. मेरा डेब्यू झूलू दी (झूलन गोस्वामी) के अंडर हुआ उन्होंने मुझे अपने बच्चे की तरह समझाया तो बड़ा अच्छा लगा.

पहले अन्तराष्ट्रीय दौरे के बाद अल्मोड़ा में

जब मैं पहली बार अल्मोड़ा लौटी तो लोधिया से मेरा स्वागत शुरु हुआ. ओपन जिप्सी में बैठाकर मुझे लाया गया, चार-पांच सौ लोगों का बाईक में काफ़िला चल रहा था, बैण्ड बाजे के साथ अल्मोड़ा के लोगों ने मेरा और सर का स्वागत किया. जो लोग पहले तक कमेन्ट करते थे तो वही लोग आ-आ कर बधाई दे रहे थे तो वो अपने आप में ही गर्व का मौका था कि मैंने कुछ हासिल किया है.
(Ekta Bisht Interview)

2012 में कोच के साथ

पिछले दस सालों में भारतीय महिला क्रिकेट बहुत बदला है आप लगातार टीम का हिस्सा रही है, आप इस पूरे दशक को कैसे देखती हैं?

व्यक्तिगत तौर पर तो पहले हम जूनियर होते थे अब धीरे-धीरे सीनियर की लिस्ट में आ गये हैं. जूनियर होने की वजह से हम चुपचाप से बैठे रहते थे आपस में ही मस्ती करते रहते थे. अब हम पूरी टीम को छेड़ते रहते हैं. ड्रेसिंग रूम का माहौल भी काफ़ी बदला है जैसे आज कल काफ़ी हल्का फुल्का माहौल रहता है गाने बजते हैं नाचना भी होता है पहले ऐसा कुछ नहीं था. हंसी मजाक से खिलाड़ियों के बीच बॉन्डिंग अच्छी हो जाती है. दूसरा 2017 के बाद से काफ़ी कुछ बदला है. हमें पहले से यह लगता था कि जब हम कोई बड़ा टूर्नामेंट जीतेंगे या वर्ल्ड कप में अच्छा करके आयेंगे तो जरुर बदलाव आयेंगे. हुआ भी ऐसा ही. आज के दिन कोई भी लड़की क्रिकेट में अपना फुलटाइम करियर देख सकती है. वो सपना देख सकती है क्योंकि अब यहाँ पैसा भी है नाम और शोहरत तो है ही. आने वाले समय में चीजें और अच्छी हो जाएँगी. हमारी ट्रेनिंग वगैरह में भी काफ़ी कुछ बदलाव आया है पहले सिर्फ मेन कोच और फील्डिंग कोच मिलते थे अब तो स्टाफ़ भी काफ़ी बड़ा है. बीसीसीआई ने 2017 से कांट्रेक्ट सिस्टम किया तो उसका काफ़ी फायदा हुआ. हम अच्छा करेंगे तो चीजें और ज्यादा अच्छी हो जायेंगी.

नये खिलाड़ियों के लिये सलाह

पहले के खिलाड़ी अपने खेल को लेकर काफ़ी समर्पित थे जैसे मीत्तू दी, झुलू दी के वर्षों की मेहनत का नतीजा है कि भारतीय महिला क्रिकेट इस मुकाम पर पहुंचा है. नये खिलाड़ी कम मेहनत में ज्यादा परिणाम चाहते हैं वो जल्दी से सब कुछ हासिल करना चाहते हैं. उसके लिये कोई शार्टकट नहीं आप मेहनत करो चीजें आपको जरुर मिलेंगी.      
(Ekta Bisht Interview)

आईसीसी वर्ल्ड कप भारत बनाम पाकिस्तान

मेरे लिये एक यादगार मैच था. उसमें पहले बैटिंग करते हुए हमने काफ़ी कम रन बनाये थे पर मैं ड्रेसिंग रूम में सभी से यही कह रही थी कि 150 अगर बन गये तो हम जीत जायेंगे. उस दिन शुरुआत से ही मुझे एक अच्छी वाली फीलिंग आ रही थी. बॉलिंग में मुझे उस दिन दूसरा ओवर करने का मौका मिला. मुझे नई बॉल से बॉलिंग बहुत पसंद है. क्योंकि दूसरी पारी तक भी पिच पर नमी काफ़ी थी तो मुझे करना ये था कि सही टप्पे पर बॉल डालनी थी बाक़ी बॉल अपना काम कर रही थी. उस दिन के मैच में इतने दर्शक थे वो काफ़ी मजा आया.
(Ekta Bisht Interview)

आप लोगों ने बिना दर्शकों के भी अन्तराष्ट्रीय मैच खेले और अब इतने सारे दर्शकों के बीच खेल रहे हैं यह कैसा अनुभव है?

दर्शकों के होने से ज्यादा दबाव तो होता है इतने ज्यादा शोर में जब आप किसी फिल्डर को बार-बार आवाज देते हो तो आपकी आवाज नहीं पहुँचती है तो खीज तो होती है लेकिन दर्शक आत्मविश्वास काफ़ी बढ़ाते हैं. वैसे मुझे दर्शकों के बीच खेलने में ज्यादा आनंद आता है.

भारतीय क्रिकेट टीम में किस साथी के साथ गेंदबाजी करना सबसे ज्यादा पसंद है?

मुझे सबसे ज्यादा झुलू दी के साथ गेंदबाजी करना पसंद है. दरसल वो एक एंड से दबाव बनाती हैं और मुझे विकेट मिल जाती थी तो मुझे ज्यादा विकेट मिल जाती हैं. नहीं तो मुझे रन रोकने पड़ते हैं और दूसरे विकेट मिल जाती है. (मजाकिया अंदाज में)

वर्ल्ड कप के बाद एकता और उनकी मां. फोटो : रोहित भट्ट

पहाड़ में रहकर अगर कोई लड़की भारत की टीम से खेलने का सपना देखना चाहती है तो उसे क्या कहेंगी?

अब तो जैसे एसोसिएशन बन गयी, उत्तराखंड की अपनी टीम है. अब तो लड़कियों को मेहनत करनी है. पहले आपको यूपी जाना था वहां से खेलना है. उतने बड़े यूपी में 15 लड़कियों में चुना जाना मुश्किल है. जब मैं यूपी ट्रायल के लिये गयी तो उस समय वहां 195 लड़कियां थी उसमें 15 लड़कियों को चुना जाना था. अब तो उत्तराखंड में काफ़ी एकेडमी भी खुल गयी हैं. जैसे इन दिनों में काशीपुर में हाईलैंडर स्पोर्ट्स एकेडमी में ट्रेनिंग कर रही हूँ. ऐसे ही देहरादून में अभिमन्यु एकेडमी है वो लोग भी लड़कियों को खेलने देते हैं. आने वाले समय उत्तराखंड से और भी बहुत सी लड़कियां निकलेंगी. बस मेहनत करने की देर है.     
(Ekta Bisht Interview)

हाईलैंडर स्पोर्ट्स एकेडमी क्या है?

हाईलैंडर स्पोर्ट्स एकेडमी हम लोगों की ही क्रिकेट एकेडमी है. यहां काफ़ी टर्फ विकेट है, इंडोर टर्फ विकेट है बॉलिंग मशीन है काफ़ी कुछ है. मेहनत और लगन से खेलने वाले आर्थिक रूप से कमजोर खिलाड़ियों को एकेडमी निःशुल्क ट्रेनिंग देती है. एकेडमी को सच्चे मन से मेहनत करने वाले बच्चे चाहिये.

इन दिनों क्या कर रही हैं?

इन दिनों में फिटनेस में ध्यान दे रही हूँ. मैं पूरा टाइम लॉकडाउन में अल्मोड़ा में थी. 2011 से लेकर अब तक मैं पहली बार इतने लम्बे समय के लिये अल्मोड़ा रही. फ़िलहाल तो मैं आगे आने वाली सीरीज की तैयारी कर रही हूँ.

बातचीत के लिये शुक्रिया एकता. उज्ज्वल भविष्य के लिये शुभकामनाएं

शुक्रिया   
(Ekta Bisht Interview)

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