साल के आख़िरी दिनों में जब हमारी पीढ़ी के पढ़े-लिखे-एम एन सी जैसी अबूझ नागरिकता वाली कम्पनियों में लगे, ज़्यादातर दोस्त शैम्पेन की बोतल और केक थामे कहवाघरों से निकलते दिख रहे हैं, ऐसी बहसों में मुब्तिला होना किसी दर्द से गुज़रने से कम नहीं है. लेकिन उसी दर्द के बरक्स वो दर्द भी है जो हमारे बाद की पीढ़ी अपने हाथों में कंधे से ऊपर उठी तख्तियों में ढो रही है. आपने कहा है, तो है! क्या इतना आसान हो चुका है ये कहना? Sundry Year End Ruminations on Democracy
एक सादा पन्ना लीजिये. ठीक बीच में पन्ने के एक बिंदु रखिये. डॉट. उस बिंदु से दाहिने और नीचे, दो रेखाएं खींचिए. ये बहस आपसे दो दिशाओं में चलने को कह रही है. वो बिंदु बहुत मासूम दिखता है. बहुत छोटा. ‘इस-देश-की-नींव-धर्म-की-पीठ-पर-है,-मान-लो.’ बस इतना सा. Sundry Year End Ruminations on Democracy
मान लेने में कोई बुराई नहीं है, अगर इस बिंदु से कोई रेखा न निकलती हो. निकले भी तो मान लेने में कोई बुराई नहीं है अगर इन रेखाओं पर कोई पूर्ण विराम यहीं लग जाए. कॉमा
दोनों ही दिशाओं में खिंची रेखाओं पर एक पॉज़ आता है, कॉमा लगता है और…!
उस बिंदु पर बिछे वाक्य का उत्तरार्ध ये दबाव बनाता है कि आप मानें ‘जो उधर गए वो मुस्लिम थे और जो इधर हुए उन्होंने एक हिन्दू राष्ट्र में रहनवारी की.’ ये उस रेखा पर ही औंधा पड़ा वाक्य है. इसके बाद एक छोटा पॉज़ आता है, जिसके लिए कॉमा सही चिह्न नहीं होगा, फिर एक-एक करके कई वाक्यांश आते हैं, जिन्हें मान लेने की मजबूरी का कोई निश्चित चेहरा नहीं होगा. इन वाक्यांशों में ज़्यादा ज़ोर उन स्थापित हो चुकी मान्यताओं का होगा जो आपने अभी-अभी स्वीकार की हैं.
मसलन रमिया चमार को इस नौकरी के आवेदन का क्या हक़? शूद्र है. वर्ण व्यवस्था के निम्नतम पायदान पर. धर्म, जो कि बताने वाले का हिन्दू धर्म है, जो कि मान लेने वाले का भी हिन्दू धर्म है, यही कहता है. संविधान का चुप रहना आपकी मान्यता के अनुरूप होगा. उसके जवाब के पहले वो दोनों स्थापनाएं होंगी, जो `क्योंकि-इसलिए’ के सरलतम अनुपात में होंगी. आपने माना है कि आप एक हिन्दू राष्ट्र में हैं, क्योंकि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था, इसलिए.
कुछ और कॉमा या पॉज़ या डैश होते जाएंगे मसलन मिश्र जी के पुत्र का सिंह साहब की पुत्री से विवाह कैसे होगा? बल्कि क्यों होगा? कानून की ख़ामोशी और प्रेम की असहायता आपकी मान्यताओं से एकमएक होगी. जाति…गोत्र… पत्री… पंडित… आपने माना है कि आप एक हिन्दू राष्ट्र में हैं, क्योंकि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था.
दूसरी रेखा पर नज़र रखिये. उस बिंदु से निकल कर ये बहुत गठीले आत्म विश्वास के साथ संस्थाओं में पैठ बना रही है. अब इन संस्थाओं के जटिल व्याकरण को हल करना बहुत मुश्किल होता जाएगा. एक धुंधली सी रेख तो हमेशा से रहती आई है, नियम-क़ानून की चौड़ी पट्टियों के बीच चुपचाप, डिसक्रीशन का झीना सा आवरण चढ़ाए. अब ये आवरण उड़ जाएगा. हठधर्मिता उसकी जगह पर काबिज़ हो जाएगी. Sundry Year End Ruminations on Democracy
मसलन एक टीचर ताल ठोक कर राष्ट्रगीत न गाने पर देर तक मुर्गा बनाए रख सकेगा किसी ख़ास रंग के कपड़े पहने शागिर्दों को. भर सकेगा अपनी पसंद की तारीखें इतिहास के टूटे हिज्जों में. क्या पता किसी निहित उद्देश्य की ख़ातिर अंगूठा ही मांग ले सवालों के जरिये मुंह बाँध देने की क्षमता रखने वालों से. तर्क हाथ बांधे सिर झुका लेगा और ये झुकाव आपकी मान्यताओं से आंखे चुराएगा. आपने माना है कि आप एक हिन्दू राष्ट्र में हैं, क्योंकि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था.
मसलन पुलिस, पुलिस के पुरातन रूप में होने को होगी. पुलिस के पास कुछ किताबें हैं जिनके अंदर या बहुत पास-पास बंधी, एक दायरे में काम कर लेती है. किताब से जितना ज़्यादा विचलन होता है, आपको दर्द उतना ज़्यादा होता है और उसे सहूलियत. वैसे भी उसने अपनी वर्दी ऊपर तक खींच ली है. उसकी आँखों पर ख़ाकी पट्टी है. उसे पता भी नहीं चलेगा कि कोई वो किताबें उससे ले रहा है. अब उसके पास कई रंगों के लिफ़ाफ़े होंगे. वो अपनी मर्ज़ी से उन लिफाफों में घटनाओं, परिस्थितियों, व्यक्तियों, सबूतों को डाल, मुंह सिल देगी. वो किताबें रद्दी के ढेर पर पड़ी मिलेंगी. उस ढेर को कुरेदने में आपकी मान्यताएं हाथ रोक देंगी. आपने माना है कि आप एक हिन्दू राष्ट्र में हैं क्योंकि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था.
मसलन एक पटवारी वरासतन प्रमाण से इनकार कर देगा. मसलन एक डॉक्टर दवा देने से पहले, तीखी मुस्कान के साथ, होने वाले बच्चे की संख्या के आधार पर आपको दूसरी लाइन में आने को कहेगा. मसलन मुंसिफ आपका नाम सुनकर दूसरी किताब खोल लेगा. तार्किकता, संवैधानिकता, न्याय-सम्मति, एक-एक करके बाहर की ओर चल देंगे और दरवाज़े पर खड़ी आपकी मान्यताएं उनकी पीठ पर `बहिष्कृत’ की मुहर ठोंकती जाएंगी. आपने माना है कि आप एक हिन्दू राष्ट्र में हैं, क्योंकि इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था. Sundry Year End Ruminations on Democracy
दोनों रेखाओं के रुकने की कोई सूरत नज़र नहीं आती. क्या गारंटी है कि ये उन्नीस सौ सैंतालीस पर रुक जाएंगी, अट्ठारह सौ सत्तावन तक नहीं जाएंगी, अट्ठारह सौ उनत्तीस तक नहीं जाएंगी, पन्द्रह सौ छब्बीस तक नहीं जाएंगी, चार सौ या बारह सौ बी.सी. तक नहीं चली जाएगी? क्या गारंटी है कि ये रेखा धर्म पर ही टूट जाएगी, पन्थ तक नहीं खिंचेगी, जाति तक नहीं खिंचेगी, मत तक नहीं खिंचेगी, भाषा तक नहीं खिंचेगी, लिंग तक नहीं खिंच जाएगी?
मायनों के बीच मनुष्य गिर पड़े तो आशयों की तलाश मुश्किल हो जाती है. आशय में लोकतंत्र, बहुसँख्यवाद नहीं होता लेकिन किताबों के जिल्द ढीले पड़ जाने पर, उसे वैसा होने से रोकना उतना ही मुश्किल हो जाता है. Sundry Year End Ruminations on Democracy
इसलिए मैं उस डॉट पर रुकना चाहता हूँ. उसे उलट-पलट कर परखना चाहता हूँ. इस भाषा और इन आंकड़ो से जूझना चाहता हूँ. साल के इन आख़िरी दिनों में, तर्क से तलाक़शुदा मेरी पीढ़ी के दोस्त, जब तुम शैम्पेन के झाग से खेल रहे होगे तुम्हारा एक बेहद मनहूस दोस्त गणित और व्याकरण की इन गुत्थियों में सर खपाए रेखाओं की लम्बाई नाप रहा होगा.
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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