पहाड़ और मेरा जीवन – 63
(पिछली क़िस्त: और मैंने कसम खाई कि लड़कियों के भरोसे कॉलेज में कोई चुनाव नहीं लड़ूंगा
कॉलेज में मैं तीन विषय पढ़ रहा था – पीसीएम यानी फीजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ. लेकिन कॉलेज सिर्फ ये तीन विषय पढ़ने तक सीमित नहीं था. वे व्यक्तित्व के निर्माण के निर्णायक साल थे. मुझमें लिखने का जो कीड़ा था वह खा-पीकर बड़ा होता जा रहा था. Sundar Chand Thakur Memoir 63
कॉलेज की एक पत्रिका निकला करती थी उन दिनों. उसका नाम था सीमा. मैं जब तक कॉलेज में रहा हर साल उसमें मेरी कोई न कोई रचना प्रकाशित हुई. मैं तीन विधाओं में काम कर रहा था. कविता, लघुकथा और व्यंग्य. मनोविज्ञान विभाग ने मेरी जिस कहानी को पुरस्कृत किया था, वह मैंने सिर्फ पुरस्कार पाने के लिए ही लिखी थी. मैं तब तक बहुत सारा साहित्य पढ़ चुका था और उसके प्रभाव में आकर खुद भी साहित्यकार ही बनना चाहता था. इसलिए साहित्य से जुड़े लोगों से मेरी दोस्ती होना शुरू हो गई. उन्हीं दिनों मैंने बड़े साहित्यकारों को पत्र लिखना भी शुरू किया. Sundar Chand Thakur Memoir 63
ऐसा पहला पत्र मैंने ‘छाया मत छूना मन’ और ‘कगार पर आग’ के लेखक हिंमांशु जोशी को लिखा था. उन्होंने जवाब भी दिया. पिथौरागढ़ जैसी जगह में रहते हुए पत्र का जवाब आना ही अपने में बहुत बड़ी बात होती थी. इतनी बड़ी वह अगले कुछ दिनों तक खुश रहने के लिए जरूरी इंधन का काम करती थी. इसी तरह मुझे कमलेश्वर का भी जवाब मिला था.
मैंने जागरण में प्रकाशन के लिए उन्हें दो कविताएं भेजी थीं. उन्होंने कविताएं प्रकाशित करने का कोई आश्वासन तो नहीं दिया, लेकिन ये जरूर हिदायत दी की कविताओं में आग होनी चाहिए. हमारे शहर में उन दिनों साहित्यकार के नाम पर एक तो गंभीर सिंह पालनी थे, जो नैनीताल बैंक में काम करते थे और जिनकी ‘मेंढक’ कहानी बहुत चर्चित हुई थी और दूसरे महेंद्र सिंह मटियानी थे, जो कुमाऊंनी में कविताएं लिखते थे लेकिन गजल पर भी उनका काम था.
पालनी जी से मेरा परिचय शायद एक लघुकथा प्रतियोगिता के जरिए हुआ था जिसमें मुझे प्रथम पुरस्कार के रूप में पचास रुपये का चैक मिला था, जिसे लेने मुझे नैनीताल बैंक जाना पड़ा. क्योंकि मैं पत्रकारों के बीच उठता-बैठता था इसलिए सहज ही पत्रकारिता से भी खुद को जोड़े रखना चाहता था. इसलिए जब एक दिन मुझे मालूम चला कि शहर में सुंदर लाल बहुगुणा पधार रहे हैं, मुझे यह आइडिया आने में देर नहीं लगी कि उनका इंटरव्यू किया जाना चाहिए. वे बहुत नामी व्यक्ति थे. उनकी ख्याति उन दिनों चिपको आंदोलन के चंडी प्रसाद भट्ट से भी बढ़कर थी.
उन दिनों मैं कुजौली गांव में ही रह रहा था. मुझे यह मालूम चला कि बहुगुणा जी चंडाक रोड पर पीडब्ल्यूडी के गेस्ट हाउस में रुके हुए हैं. मैंने अपनी दस रुपये में खरीदी पॉकेट से कुछ बड़े साइज की डायरी निकाली और सूरज के उगने से पहले ही कमरे से निकल पड़ा. सर्दियों के दिन थे, तो अभी अंधेरा था और मुंह अंधेरे कुत्तों का बहुत डर रहता था, सो मैंने हाथ में एक कामचलाऊ डंडा पकड़ लिया था.
ठंड थी पर मैं सफेद रंग की नेकर पहनकर निकला, यह सोचते हुए कि वहां तक बीच-बीच में कुछ दौड़ भी लगा लूंगा. मैं जब गेस्ट हाउस पहुंचा तो वहां उनके कमरे के बाहर शहर के चार-पांच गणमान्यों को विराजमान पाया. सुंदर लाल बहुगुणा एक सिलेब्रिटी थे. वे लोग भी उनसे मिलने को उतावले थे. मैं भी वहां एक खाली कुर्सी पर बैठ गया. कुछ देर बाद दरवाजा खुला और बहुगुणा जी की सुंदर मुखाकृति दिखी. उन्होंने एक नजर सबको देखा और मुझे पास बुलाया.
मैं करीब गया तो पूछा – ‘तुम क्यों आए हो?’ मैंने तपाक से कहा- ‘आपका साक्षात्कार करने.’ उन्होंने पूछा – ‘किस पर बात करोगे?’ मैंने कहा – ‘पर्यावरण पर.’ उन्होंने तुरंत पूछा – ‘पर्यावरण से तुम क्या समझते हो.’ मैंने तुरंत अपनी समझ के मुताबिक कुछ ऐसा उत्तर दिया – ‘हमारे चारों ओर फैले पहाड़, जंगल, नदी, हवा, धूप और वनस्पतियां, जिनसे मनुष्य को जीवन प्राप्त होता है, मिलकर हमारे पर्यावरण को बनाते हैं, जिसकी सुरक्षा हमारा नैतिक धर्म है. आज हम इसी धर्म का पालन नहीं कर पा रहे.’
मेरे ऐसे ही जवाब को सुनकर उन्होंने तुरंत बाहर बैठे लोगों से कहा – ‘जरा मैं पहले इस नौजवान से बातें कर लूं. आप लोग बैठिए अभी.’ ऐसा कहकर उन्होंने दरवाजे को पूरा खोल दिया, ताकि मैं अंदर प्रवेश करूं. अंदर घुसते-धुसते मेरी बाहर बैठे लोगों के चेहरों पर नजर गई. उन चेहरों पर थोड़ा हैरान होने का भाव था. हैरान होने की बात भी थी. वे बेचारे जाने कब से मिलने की आस में बैठे हुए थे और मैं कुछ मिनट पहले ही आया था. बहुगुणा जी ने उनसे पहले मुझे अंदर बुला लिया.
मैंने काफी लंबी बातचीत की बहुगुणा जी से. वह मेरे जीवन का पहला साक्षात्कार था. मैं इस बात पर ही कुर्बान जा रहा था कि उन्होंने बाकी लोगों से पहले मुझे बात करने का मौका दिया. मैं उनसे पूछने को गई रात देर तक जागकर कई सवाल बनाकर आया था. वे सवाल बहुत ज्यादा सवाल जैसे थे, पारंपरिक सवाल जैसे. लेकिन बहुगुणा जी ने बहुत धैर्य से उनका जवाब दिया. बल्कि मुझे याद पड़ता है कि उन्होंने बहुत रुचि के साथ मेरे सवालों का जवाब दिया.
सवाल पूरे होने के बाद मैंने थोड़ा सकुचाते हुए उनकी ओर अपनी डायरी बढ़ाकर कहा – इस पर कुछ लिख देते अगर सर. यह ऑटोग्राफ लेने जैसा ही था. उन दिनों ऑटोग्राफ लेना युवाओं में बहुत प्रचलन में था. बहुगुणा जी ने मुस्कराते हुए मेरी डायरी ली और उस पर लिखना शुरू किया, तो लिखते चले गए. जैसे-जैसे वे मेरी डायरी के पन्ने पर लिखते हुए आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे मैं आश्वस्त होते जा रहा था कि यह डायरी बेशकीमती होती जा रही है.
डायरी मेरे हाथ वापस आई तो मैंने देखा कि उन्होंने डायरी के तीन पन्ने भर डाले थे. उन्होंने गांधी जी के सत्याग्रह में शामिल किस्से से अपने संवाद पर लिखा था. वह इतना अच्छा है कि उसे मैं पूरा का पूरा मैं यहां शब्दश: उतार रहा हूं क्योंकि वह डायरी आज भी मेरे पास अमानत के रूप में सुरक्षित है –
मैं जब तरुण था तो मुझे गांधी जी के सत्याग्रही शिष्य ने सवाल पूछा था कि तुम पढ़-लिखकर क्या करोगे? और मेरा उत्तर वही था जो आज के अधिकांश तरुणों में होगा कि मैं पढ़-लिखकर दरबार की सेवा करूंगा. इस पर उन्होंने दूसरा प्रश्न किया कि जो दुखी और गरीब हैं उनकी सेवा कौन करेगा? मैंने कहा – हम ही. तो उनका अगला सवाल था – एक व्यक्ति के दो भगवान कैसे हो सकते हैं? हमने कहा कि – आप हमसे क्या चाहते हैं? उनका उत्तर था – यह तो तुम्हें तय करना है. पर क्या तुम अपने को चांदी के चंद टुकड़ों के बदले बेच दोगे?
यही सवाल मैं अपने तरुण मित्रों तक पहुंचाना चाहता हूं. हमारी तरुणाई में हमारे हमारे सामने देश की गुलामी को समाप्त करने की चुनौती थी. हमने इस चुनौती को स्वीकार किया और तय किया कि हम गुलाम होकर पैदा हुए हैं, आजाद होकर मरेंगे. आपके सामने उससे भी गंभीर चुनौतियां हैं. आज तो प्राणीमात्र का अस्तित्व ही खतरे में है क्योंकि हमारे सामने युद्ध, प्रदूषण और गरीबी के तीन महादैत्य मुंहबाए खड़े हैं. क्या आप इनके पेट में समा जाओगे या इनका संहार कर एक ऐसी दुनिया बनाओगे जिसमें शांति, स्वच्छ पर्यावरण और समृद्धि हो. प्राणी मात्र को सुख, शांति और संतोष मिले.
मैं इन प्रयासों में हमेशा आपके साथ हूं!
3.10.87 सुंदर लाल बहुगुणा
बहुगुणा जी का वह साक्षात्कार उत्तरउजाला में प्रकाशित हुआ था. उसकी प्रति जब मेरे हाथ आई और मैंने काले बोल्ड अक्षरों में बाइलाइन की जगह अपना नाम देखा तो मैं गर्वानुभूति से फूला न समाया. शायद उसी अनुभूति की मिठास थी कि फौज छोड़ने के बाद मैंने हर हाल पर पत्रकारिता में आने की कोशिश की और अंतत: आया. Sundar Chand Thakur Memoir 63
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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