पहाड़ और मेरा जीवन- 56
मैं विद्यार्थी जीवन के दौरान और बाद में भी कई बार पैसों को लेकर थोड़ी तंगी में जरूर रहा, पर मैंने कभी पैसों की बहुत ज्यादा परवाह की हो, मुझे याद नहीं. उस लिहाज से देखा जाए, तो आज भी पैसों को लेकर संभवत: मैं सबसे ज्यादा तंगी में हूं क्योंकि बेटी की अमेरिका में पढ़ाई करने की इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूं, जिसने आर्थिक रूप से मेरी हवा टाइट कर दी है, लेकिन मैं फिर भी इसकी बहुत ज्यादा परवाह नहीं करना चाहता. शायद बहुत गहरे मैं यह जानता हूं कि जरूरत पड़ने पर मैं एकदम फकीरों जैसा जीवन भी जी सकता हूं. सिर छिपाने के लिए एक अदद छत चाहिए, तो उतना तो काफलपानी चला रहा हलद्वानी का अपना यार अशोक पांडे ही कर ही देगा. Sundar Chand Thakur Memoir 56
खाने-पीने में वैसे ही मैं अब पूरी तरह से शाकाहारी हो चुका हूं. नशा कोई मैं अब करता नहीं. तो मन में यह भरोसा आ चुका है कि मैं बहुत कम में भी गुजर-बशर कर लूंगा. लेकिन विद्यार्थी जीवन में कम में गुजर-बशर नहीं हो पा रही थी. Sundar Chand Thakur Memoir 56
बारहवीं में मैं अठारह वर्ष की उम्र को छू रहा था. इस उम्र में शरीर बहुत भोजन की मांग करता है. पिताजी का 500 रुपया महीने का मनीऑर्डर पूरा नहीं पड़ता था. कुजौली गांव में जिन कमरों में हम रहते थे, उनका किराया भी कोई कम न था. सौ रुपये तक तो किराए में ही निकल जाता था. मैं बहुत-सी खाने की चीजें ठूलीगाड़ से ले आता था, जहां राजू दी और उनके परिवार से हमारे अब भी घनिष्ठ संबंध बने हुए थे.
दीदी मुझे सब्जियों के अलावा कई बार अपने घर के मंदिर से पैसे भी दे दिया करती थी. पर पैसा फिर भी पूरा नहीं पड़ता था. अब बात कक्षा नौ जैसी नहीं रह गई थी जब मैं दस रुपये के यू आकार के कच्छे को दौड़ने वाली नेकर समझ कर सुबह डिग्री कॉलेज के ग्राउंड में दौड़ते हुए गर्व से भरा उसका प्रदर्शन करता था. अब मेरा वाकई अच्छे कपड़े पहनने का मन करता था और मेरे बजट में वे कपड़े खरीदना मुमकिन न था. इसलिए ये वे दिन थे, जब मैं पैसे कमाने के नए तरीके खोज रहा था.
इन्हीं दिनों मेरे पास राजू दी के पिताजी यानी अपने दिवंगत बम अंकल जिन्हें मैं कर्नल साहब कहकर पुकारता था का एक ऑफर आया. उनके दफ्तर में ही एक उप्रेती जी काम करते थे, जिनका बेटा दसवीं में आ गया था. वे कुजौली ही रहते थे. उन्होंने अपने बेटे को ट्यूशन पढ़ाने की पेशकश की. मुझे याद नहीं उन दिनों मैंने ट्यूशन के कितने पैसे लिए, परंतु उप्रेती जी के बेटे को मैंने पढ़ाना शुरू कर दिया. मुझे याद आ रहा है कि मैं न सिर्फ पढ़ाता था बल्कि साथ ही पढ़ने वाले लड़कों में भविष्य को लेकर बेपनाह उत्साह भी भरता था. मैं भले ही पढ़ाई में खुद बहुत जीनियस नहीं था, परंतु दसवीं की गणित मैं बिना दिक्कत के पढ़ा लेता था. कहीं-कहीं किसी सवाल को करने में अटकता जरूर था, पर अंतत: उसे हल करके ही छोड़ता. यह एक मजेदार खेल था.
मेरी पढ़ाने की काबिलियत से ज्यादा मेरे जोश भरने और बेहतर भविष्य को लेकर अच्छा मार्गदर्शन दे पाने की कला के चलते जल्दी ही मेरे पास तीन-चार लड़के ट्यूशन पढ़ने आने लगे. इनमें एक तो उप्रेती जी का बेटा था संजू, जो बहुत ही सीधा था. उससे मुझे बहुत अपेक्षाएं थीं, किंतु वह मेरी अपेक्षाओं पर खरा न उतरा. सुनने में आया है कि उसने बाद में एक दुकान खोल ली और इन दिनों वह दुकान में ही बैठता है. राजू दीदी का छोटा भाई हरीश, जो जब-तब मेरे लिए ठुलीगाड़ से सब्जी और भोजन ले आता था, उसे भी मैंने एक साल पढ़ाया. पढ़ाई पूरी करके उसने कई साल सेल्स और मार्केटिंग का काम किया और पिछले पंद्रह साल से वह टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रेस में काम कर रहा है. एक तीसरा बहुत ही होनहार बालक था मेरे फिजिक्स के गुरूजी श्री आर.सी.पांडे जी का छोटा बेटा चिंटू, जिसका पूरा नाम अभिषेक पांडे है.
अभिषेक कुछ साल पहले मुझे मुंबई में मिला था बाद में उसने कंपनी बदल ली और अब शायद वह गल्फ बेस्ड हो गया है और वहीं से काम के सिलसिले में देश-विदेश घूमता रहता है. जाहिर है वह बहुत अच्छी कंपनी में और उतने ही अच्छे पद पर काम कर रहा है. चिंटू, जैसा कि नाम से जाहिर है, बचपन से ही चंटू था. वह बहुत हंसी-मजाक करते हुए पढ़ाई करता था. शक्ल से वह अपने माता-पिता पर गया था, इतना खूबसूरत कि कॉलेज जाने के बाद, बावजूद इसके कि कद में वह बहुत लंबा न था, उसने लड़कियों पर कहर बरपाया ही होगा. उसने बहुत गंभीरता से मुझसे गणित पढ़ी और उसके नंबर भी अच्छे आए. इनके अलावा पिथौरागढ़ में इन दिनों अपनी पत्रकारिता के जलवे दिखा रहे क्रांतिकारी पत्रकार विजय उप्रेती के बड़े भाई, नीलम को भी मैंने पढ़ाया था. इन दिनों दिल्ली में उसने अपनी ही कंपनी खोल ली है, जो चल पड़ी है और यह बालक एक सुखी, समृद्ध जीवन जी रहा है.
यह सब लिखते हुए मुझे याद आ रहा है कि मैं इन सभी को बीच-बीच में ‘जीवन में ऐसा कुछ नहीं, जो हम नहीं कर सकते’ जैसे टॉपिक पर खूब जोश में भरकर बातें करता था. ऐसी प्रेरित करने वाली बातें करना अब तक की जीवन-यात्रा में हमेशा मेरी आदत बना रहा और इन दिनों यह आदत सर्वाधिक मुखर दिख रही है क्योंकि मैं आए दिन सोशल मीडिया में ऐसे प्रेरणादायक विडियो बनाकर डालता रहता हूं.
बहरहाल, दसवीं में पढ़ने वाले ये चार लड़के आज भी कभी अगर मुझे याद करते होंगे, तो जैसा कि भारतीय परंपराओं में गुरुओं के प्रति शिष्यों का रवैया रहता है, इनके मन में भी मेरे प्रति एक सम्मान का भाव ही होगा, ऐसा मेरा अनुमान है. मेरे पढ़ाए जाने से इन चारों का कितना भला हुआ मैं नहीं कह सकता, आखिर एक साल पढ़ाकर कौन-सा मैंने उनके दिमाग के तंतु बदल डाले होंगे, लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया. बाद में कॉलेज जाकर मैंने हमारे डिग्री कॉलेज में मनोविज्ञान विभाग के हैड ऑफ डिपार्टमेंट हस्नेन साहब की बेटी निशात अंजुम और मेरे साथ एनसीसी कैंप करते हुए दोस्त बनी निर्मला पुनेठा की छोटी बहन गीता, जो कि इन दिनों हलद्वानी में सुखी, दाम्पत्य जीवन जी रही है, को भी ट्यूशन पढ़ाया. दोनों ही केंद्रीय विद्यालय में पढ़ती थीं.
निशात पर मैं अलग से बाद में लिखूंगा, फिलहाल बताना यह चाहता हूं कि कुजौली गांव में इन चार लड़कों को पढ़ाते हुए मुझे तीन-चार सौ रुपये मिलते थे जबकि निशात और गीता को पढ़ाते हुए मुझे हजार रुपये तक तो मिलता ही रहा होगा, हालांकि मुझे अब पैसों की जरा भी याद नहीं. जितना भी मिलता था, मुझे यह मालूम है कि मेरे लिए वह पैसा कमाने का एक नया विकल्प था और इसने मेरे आत्मविश्वास में जबरदस्त इजाफा किया था. न सिर्फ इतना बल्कि ईमानदारी से कहूं तो सच यह है कि अगर मैं इन बच्चों को गणित नहीं पढ़ाता, तो कॉलेज के बाद पहले ही प्रयास में सीडीएस की लिखित परीक्षा पास भी नहीं कर पाता. इन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ही मुझे यह सीख मिली कि अगर किसी काम में पारंगत होना है, तो उसे दूसरों को सिखाने की जिम्मेदारी ले लो.
इस कॉलम के जरिए मैं एक तरह से संजू, चिंटू, हरसू और नीलम का धन्यवाद कर रहा हूं कि मुझसे ट्यूशन पढ़कर न सिर्फ उन्होंने मुझे आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने में मेरी मदद की बल्कि मुझे बहुत कुछ सीखने का मौका दिया, जो आज भी मेरे काम आ रहा है. एक सीधा फायदा यह भी हुआ कि जब मैं बीएससी पूरी करने के बाद दिल्ली गया और वहां मुझे सीडीएस की लिखित परीक्षा और सर्विस सेलेक्शन बोर्ड का इंटरव्यू पास करने के बाद ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकैडमी जाने से पहले जो नौ महीने अपने अब विवाहित बड़े भाई के साथ किराए के कमरे में भाभी की मौजूदगी में रहना पड़ा, उन संघर्ष से भरे दिनों में ट्यूशन ही मेरे काम आया. मैंने उन दिनों पांच-पांच ट्यूशन पढ़ाए.
मैं नानकपुरा से दोपहर में निकलता था और आरके पुरम में दो ट्यूशन पढ़ाकर सरोजनी नगर जाता था जहां से मैं नॉर्थ ऐवेन्यू में तत्कालीन सांसद हरीश रावत के बेटों को गणित पढ़ाकर अपनी हरे रंग की हरक्यूलिस साइकल में एसपी मार्ग के रास्ते हवा में बात करते हुए रात को ही घर लौट पाता था. इन ट्यूशनों से मैं उन दिनों 1900 रुपये महीने कमाता था, जो कि यह देखते हुए कि मुझे फौज में अफसर बनने के बाद पहली पगार के रूप में करीब 3400 रुपये मिले थे, बहुत अच्छी कमाई थी. मैं जिस तरह अपने में खुश उस हरी साइकल पर सवार होकर हवा से बात करता दिल्ली की सड़कों पर उड़ता था, किसी की उस पर नजर लगना तय था और यही हुआ. एक दिन कोई मेरी साइकल उड़ा ले गया. साइकल चली गई और ट्यूशन भी बंद हुए पर दोनों ने मुझे भीतर से इतना ताकतवर बना दिया कि उसके बाद जीवन में कभी कोई ऐसी स्थिति नहीं आई, जिसका सामना करते हुए मुझे कोई घबराहट हुई हो.
(पिछली क़िस्त: मास्साब ने लड़कों से कहा, देखो इसे, ये अंग्रेजी का अखबार पढ़ता है
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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