न किताब छन- न किताबें हैं
न मासाब छन- न मास्टर साहब हैं
की छ पें?- क्या है फिर?
कि चैं पें?- क्या चाहिये फिर?
किताब और मासाब- किताब और मास्टर साहब
यह पोस्टर बनाया है पिथौरागढ़ के लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के छात्रों ने जो पिछले 23 दिनों से महाविद्यालय में किताबों व शिक्षकों की कमी के चलते शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलनरत है.
अगर विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की अनुपलब्धता का राष्ट्रीय औसत देखा जाए तो वह 45 से 50% है. यह हाल सिर्फ पिथौरागढ़ महाविद्यालय का है ऐसा नही है. आप देश के किसी भी जिले के एक विश्वविद्यालय को चुन लीजिये और उसका आंकलन कीजिये तो पाएँगे स्थिति बद से बदतर है. कुँमाऊ विश्वविद्यालय से लेकर गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय तक हालात एक जैसे हैं. शिक्षकों की कमी के चलते शोध छात्र पढ़ाने को मजबूर हैं. अब जब शोध छात्र ही दिनभर पढ़ाने में व्यस्त रहेगा तो शोध कब करेगा?
पिथौरागढ़ महाविद्यालय की पुस्तकों का तो ये हाल है की 90 के दशक की पुस्तकें ही आज तक पुस्तकालय से वितरित की जा रही हैं. आज भी छात्र यही पढ़ रहे हैं कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चल रहा है और बर्लिन की दीवार जस की तस खड़ी है. रूस को बने आज 29 साल हो गए लेकिन पिथौरागढ़ महाविद्यालय का पुस्तकालय आज भी 29 साल पीछे चल रहा है. बजट सत्र में जब वित्त मंत्री 400 करोड़ उच्च शिक्षा में ख़र्च करने का प्रावधान रखती हैं उसी समय संसद से लगभग 500 किलोमीटर दूर एक विश्वविद्यालय के छात्र मूलभूत सुविधाओं के लिए आंदोलित हो रहे होते हैं जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं.
नई शिक्षा नीति की बातें तो संसद के गलियारों में ज़ोर-शोर से गूँजती है लेकिन बात जब धरातल पर आती है तो निल बट्टे सन्नाटा हो जाती है. दुनिया के अव्वल 100 विश्वविद्यालयों में से हमारा एक भी विश्वविद्यालय नहीं आता और ये हालात तब हैं जब हम विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं. NIRF (National Institute Ranking Framework) की रैंकिंग देखी जाए तो उसमें उत्तराखंड के किसी भी विश्वविद्यालय का नाम प्रथम 150 में नज़र नहीं आता. कहने को शिक्षा के मामले में उत्तराखंड को बेहतर विकल्प बताया जाता रहा है लेकिन नैनीताल, मसूरी व देहरादून के प्राइवेट स्कूलों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूलों व विश्वविद्यालयों के हालात बहुत बुरे हैं.
आप इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हैं कि कई महीनों तक आंदोलनरत रहने के बाद एनआईटी श्रीनगर गढ़वाल के छात्रों को मजबूरन एनआईटी जयपुर कैंपस जाना पड़ा. हमारी सरकारें इतने वर्षों में एक कैंपस का निर्माण नही करवा पाई जबकि उसके लिए ज़मीन का आवंटन कब का हो चुका था. यही हालत श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज की है जिसे सरकार ने चलाने से मना तर दिया और आर्मी को इसे चलाने के लिए कह दिया. आर्मी के असमर्थता जताने के बाद अब पुन: सरकार मेडिकल कॉलेज चलाने को राज़ी हुई है लेकिन सरकार की दिली इच्छा इसे चलाने की नही है. मेडिकल कॉलेज के अंदर आप एक बार हो आएँ तो आपको उसकी दिशा-दशा का सारा मंज़र समझ आ जाएगा.
पहली बार देखने में आया है कि छात्र पुस्तकों व अध्यापकों की माँग को लेकर अनशन कर रहे हैं और उस पर भी सोने में सुहागा ये कि उनके माता पिता भी इस आंदोलन में उनका भरपूर साथ दे रहे हैं. इस आंदोलन का देशव्यापी होना बहुत ज़रूरी है. पिथौरागढ़ के छात्रों का आंदोलन देशव्यापी आंदोलन के लिए चिंगारी का काम कर सकता है. एक बेहतर पुस्तकालय और शिक्षकों की मांग के लिए देश के हर विश्वविद्यालय के छात्रों को बाहर निकलना चाहिये. नई शिक्षा नीति सिर्फ तभी कारगर साबित हो सकती है जब नीतियॉं छात्र हितों में धरातल पर अपनाई जाएँ. काग़ज़ी नीतियों से आज तक न विश्वविद्यालयों का भला हुआ है न ही छात्रों का.
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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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