भले ही देश आर्थिक उदारीकरण के लिए सरदार मनमोहन सिहं और नब्बे के दशक को याद रखता हो लेकिन मेरे पिताजी परिवार के हित में ऐसी कोशिश उससे भी पाँच बरस पहले भैंस खरीदकर कर चुके थे. पिताजी जब भैंस खरीद कर लाये तो घर मे जश्न सरीखा माहौल था. ऐसा लग रहा था मानो उस दिन ही भारत आजाद हुआ हो. हाड़-तोड़ मेहनत के बाद अच्छी फ़सल के लिए आसमान पर भरोसा हमारे क्षेत्र की नियति थी. कई बार सावन-भादों बिना बरसे ही गुजर जाते. नहर जैसी व्यवस्था तो वहाँ आज भी नहीं है. कभी-कभी तीसरे या चौथे साल एक बार कायदे की फ़सल हो जाय तो समझो मेहनत सफ़ल हुई अन्यथा अनेकों बार तो बीज के भी लाले पड़ जाते. भले ही जनप्रतिनिधि सरकार से सूखे और बाढ़ के नाम पर आपदा घोषित करवा कर फ़ण्ड हासिल कर लाते लेकिन इस फ़ण्ड का आम लोगों से कोई सरोकार न होता. (Struggle in Mountains Story Subhash Taraan)
पिताजी ने नाते-रिश्तेदारों से कर्जा लेकर भैंस खरीद ली. यह पिताजी का परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु एक नया प्रयोग था. आस पास के लोगों के बीच हमारी भैंस के गुणों की चर्चा होने लगी. भैंस की गाय से तुलना की जाने लगी. गाय दो किलो दूध देती है, भैंस दस किलो. गाय का गोबर एक टोकरी, भैंस का पाँच टोकरी. माँ पिताजी खुश थे, अब घर में दूघ-घी बेचकर नगद रुपया आएगा जो उस समय हमारे यहाँ की खेती बाड़ी से संभव ही नही था. सारा परिवार भैंस की सेवा-सुश्रुषा में जुट गया. जंगल में चारा प्रचुर मात्रा में था क्योंकि उस वर्ष बरसात अच्छी हुई थी. मगर यह काला जानवर कितना खाता है, इस बात का किसी को पहले से इल्म न था. पहाड़ों पर बरसात खत्म होते ही जंगल से घास को काटकर सुखाया जाता है ताकि सर्दियों में जब पहाड़ों में वनस्पति सृजन नगण्य होता है तब यह सूखा घास पशु चारे के रुप में इस्तेमाल किया जाता है. घर में रुपये की आमद शुरु तो हुई किन्तु खली, चोकर और घास कटवाने की मजदूरी में बराबर जाता भी रहा. हाँ, घर में दूध, दही, मक्खन और घी प्रचुर मात्रा में मिलने लगा. पूरा परिवार बिना किसी अवकाश के भैंस की तीमारदारी में जुटा रहता. सुबह स्कूल जाने से पहले मुझे भी माँ के साथ जाकर एक बड़ा गट्ठर घास लाना पड़ता और स्कूल से आने के बाद भैंस को चराने हेतु खेत-जंगल खटना पड़ता. यह सिलसिला साल भर चलता रहा. (Struggle in Mountains Story Subhash Taraan)
जैसी कि क्षेत्र की नियति थी, दूसरे साल बारिश नहीं हुई. सावन भादौं बिना बूँद बरसाये ही निकल गये. उन्ही दिनों मेरे घर के नीचे नदी पर पुल बनने का काम शुरु हुआ. वो पुल तो तभी बन गया किन्तु आज से तीस बरस पहले बननी शुरु हुई वो सड़क जिसको जोड़ने हेतु पुल बनाया जा रहा था, एक पढे लिखे एवं राजनैतिक रुसूख वाले परिवार की हठ-धर्मिता के चलते आज तक हाशिये पर है. पुल के ठेकेदार ने नदी के उस पार काम करने हेतु मजदूरों, सीमेंट, लोहा एवं अन्य सामान ले जाने के लिए एक लोहे की तार पर ट्राली लगायी गयी थी. क्योंकि पिताजी की देखा देखी में अन्य बिरादरी वालों ने भी भैंसे खरीद ली इसलिए अब सूखे के कारण घास एवं पत्तियों के लिए नदी पार वाले जंगल जाने की व्यवस्था के बारे में सामुहिक रुप से योजना बनाई गयी. अब मेरी दिनचर्या यह तय थी कि बिरादरी के घसियारों के साथ घर से सुबह-सुबह निकलना, तार पर लगी ट्राली से नदी पार करना, घास एवं पत्तियाँ काटना, उसका गट्ठर बनाना और फ़िर ट्राली में घास का गट्ठर रख कर नदी पास कर घर आना. पढने वालों के लिए यह रोमाँच हो सकता है लेकिन हमारे लिए यह हमारी जरुरत थी. ट्राली को घास के गट्ठर के साथ सावन-भादों की उफनती टोंस नदी के उपर से पार करने के लिए, लोहे के तारों को हाथों से खिंचना अब भी जब कभी याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. एक समय यह मेरा रोज का काम था. ज़रा सी चूक से ट्राली का पहिया तारों को खींचते हुए हाथों पर चढ़ सकता था. यहाँ लगी ट्राली से कभी किसी की जान तो नहीं गयी लेकिन इसकी सवारी में कई लोग अपने हाथों की उँगलियाँ ज़रूर खो चुके थे. शुरुआती डर के बाद मैं इस काम में पारंगत हो गया था. जीवन के यह तजुर्बे जीवन मूल्यों की शिक्षा हेतु किताबों से बेहतर साबित हुए. यह मुझे इतना तो सिखा ही गये कि जीवन मुश्किल परिस्थितियों में भी रुकता नहीं है और यह जीवन की प्रकृति ही है जो जूझने को प्रेरित करती है. (Struggle in Mountains Story Subhash Taraan)
किसी तरह बिना बरसी बरसात और सर्दियाँ गुजरी. जाते चैत और आते बैसाख तक मवेशियों को खिलाने के लिए कुछ भी नहीं बचा. थक हार कर पिताजी ने एक वन गूजर से बात कर उसके परिवार और मवेशियों के साथ मुझे भी भैंस संग पहाड़ों में उपर बुग्यालों की ओर चलता कर दिया. वन गूजर नूर मोहम्मद के पास मवेशियों के चरान-चुगान हेतु जंगल परमिट था. मैं अपने समेत तीन जीवों को लेकर नूर मोहम्मद के परिवार एवं उसके मवेशियों के साथ शामिल हो लिया.
मौसम गर्म हो रहा था इसलिए हम लोग मवेशियों के साथ रात को ही चलते. दिन को किसी छायादार जगह पर डेरा जमा दिया जाता और रातों को सफ़र जारी रहता. दो रात लगातार चलने के बाद तीसरे रोज, जो कि इस यात्रा का अन्तिम दिन था, मैं और नूर मोहम्मद सुबह-सुबह छोटे बछड़ों को दूध पिलाने के बाद, उन्हें हाँककर आगे चले दिये जबकि उसके परिवार के सदस्य बड़े मवेशियों को चराते हुए हमारे पीछे आने लगा.
भले ही हम और हमारे मवेशी काफ़ी ऊँचाई पर पहुँच चुके थे, जहाँ मौसम सुहाना था लेकिन दो रोज चलने के बाद थके-माँदे छोटे बछड़े पस्त हो चुके थे. तीसरे दिन के सफ़र में हम मात्र 3 किलो मीटर के लगभग ही चल पाये क्योंकि नूर मोहम्मद के नवजात बछड़े ने थक हार कर घुटने टेक दिये थे जबकि बड़े मवेशी और नूर मोहम्मद का परिवार दूसरे रास्ते से उस गंतव्य के पास पहुँच चुके थे जहाँ नूर मोहम्मद सपरिवार अपने जानवरों के साथ हर साल की गर्मियों मे विचरते. क्योंकि बछड़े आज अपनी तय शुदा यात्रा पूरी करने में असमर्थ थे. इस चिन्ता के चलते नूर मोहम्मद जले-भुने जा रहा था बिना बछड़ों के भैंसे आज रात आसमान सर पर उठा लेंगी. (Struggle in Mountains Story Subhash Taraan)
अब रात होने को थी ऐसे में रात को चलना खतरे से खाली न था, सो एक ऐसी जगह तलाश की गयी जहाँ रात गुजारी जा सके. मेरा बिस्तर और बर्तन मेरी पीठ में एक बोरे में लदे थे. नूर मोहम्मद के पास दूध के लिए इस्तेमाल होने वाले दो बड़े बर्तन थे. वह इस रास्ते का पुराना मुसाफ़िर रह चुका था. उसने लगभग 200 मीटर आगे किसी अपने जैसे खानाबदोश का उजड़ा झौंपड़ा खोज निकाला. जिसके उपर छ्प्पर तो ठीक ठाक ही थी लेकिन दिवारों को देख कर झौंपड़ा, झौंपड़ा नहीं बल्कि झौंपड़े का कंकाल मालूम पड़ रहा था. मेरे पास खाना पकाने के बर्तन तो थे लेकिन राशन नहीं था. राशन नूर मोहम्मद के लड़कों की पीठ पर लदा था और वो लोग हमसे काफ़ी आगे निकल चुके थे. चलते समय माँ ने मक्का के भुने दाने बाँध दिये थे, आज की रात इन्हीं मक्का के भुने दानो के सहारे थी. दोनो नें वही मक्का के भुने दाने खाये, पानी पिया और कमर को सीधा करने की तैयारी करने लगे. झौंपड़े की तीन दिवारें उधड़ी पड़ी थी इसलिए तीनों तरफ़ आग जला दी गयी क्योंकि रात में बाघ और तेंदुआ जैसे जंगली जानवर बछड़ों पर हमला बोल सकते थे. नूर मोहम्मद जानता था कि जंगली जानवर आग के नजदीक कभी नहीं आते. झौंपड़े के अन्दर सोने के लिए बनाये गये ठीयों पर गुजारे भर के बिस्तर बिछाये गये. जमीन से लगभग दो फ़ुट उंचे उठे इन ठीयों की खासियत यह होती है कि गर्मी के दौरान पहाड़ के सदाबहार जंगलों में रोजाना होने वाली बारिश से जमीन हमेशा ही गीली रहती है. यह ठीये जहाँ एक ओर बिस्तर को भिगने से बचाते है वहीं इन ठियों के पाये छोटे बछड़े, जिन्हे जंगली जानवरों का डर होता है, को बाँधने के काम लाये जाते हैं. बड़े बछड़ों को मेरी तरफ़ बांधा गया जबकि एक कमजोर से बछड़े को, जिसकी बजह से हम आगे नहीं बढ पाये थे, को नूर मोहम्मद नें अपने ठीये के पाये से बाँध दिया. दिन भर के थके माँदे हम जैसे ही बिस्तर पर लेटे, पता ही नहीं चला कि कब हमारी आँख लग गयी.
शायद कुछ ही समय हुआ होगा कि तभी आसमान गरजने लगा और हल्की बूँदा-बाँदी शुरु हो गयी. आसमान ऐसे गरज रहा था मानो अभी टूट कर गिरना चाह रहा हो. गर्म होते सदा बहार वनों में इस तरह का मौसम आम होता है. थके होने के कारण मेरी शायद तब भी आँख न खुलती लेकिन नूर मोहम्मद की चिन्ता यह थी की जो बाहर आग जल रही थी वो बुझने को हो रही थी. तेज होती बारिश ने बाहर जल रही आग की लपटों को पस्त कर दिया. जंगल के खतरों से वाकिफ़ नूर मोहम्मद ने मुझे भी आवाज़ देकर जगा दिया. वह मुझ से बात कर ही रहा था कि तभी घात में बैठे तेंदुए ने नूर मोहम्मद के ठीये के पाये में बंधे नवजात बछड़े पर हमला कर दिया. बाघ ने बछड़े को गरदन से पकड़ा और एक झटके के साथ बाहार खुले मैदान की तरफ़ उछाल दिया. इस झटके नें बछड़े के गले में बंधी मजबूत प्लास्टिक की रस्सी को ठीये के पाये समैत उखाड़ दिया. जहाँ बछड़ा रस्सी और ठीये के पाये सहित झौंपड़ी के बाहार था वहीं ठीया नूर मोहम्मद समेत रणक्षेत्र में भाले के आघात से घायल घोड़े की तरह भरभरा कर जमीन पर फ़ैल गया. रात के दूसरे पहर के समय गरजते बरसते आसमान ने वैसे ही मेरे हालात खराब किये हुए थे ऐसे में बछड़े पर तेंदुए के हमले ने मेरी घिग्घी बन्द कर दी. वहीं नूर मोहम्मद जमीन पर गिरने के बाद भी तुरन्त खड़ा हो गया और बाहर की तरफ़ शोर मचाते हुए भागा. मैं बहुत जोर से चिल्लाना चाहता था लेकिन मेरी आवाज निकल ही नहीं पा रही थी. कुछ क्षण पश्चात मेरे होश दुरुस्त हुए. हिम्मत जीवन की जरुरत होती है. जीना भले ही मुश्किल हो लेकिन नामुमकिन नही होता. इस समय मेरी हिम्मत भी नूर मोहम्मद ही था सो मैं बड़ी तेजी के साथ बाहर निकला. टार्च का उजाला लिए वो पता नहीं क्या बड़बड़ाये जा रहा था. मैने उसके हाथ से टार्च ली और बछड़े का जायजा लेने लगा. नूर मोहम्मद के शोर मचाने पर बाघ ने बछड़े को छोड़ तो दिया था लेकिन बछड़ा अब इस हालात में न था कि उसको फ़िर से खड़ा किया जा सके. उसकी गरदन पर लगे बाघ के दाँत की जगहों पर खून उबल रहा था. बारिश और तेज हो गयी थी. बाघ नूर मोहम्मद के परिवार के भविष्य की संपत्ति में सेंध लगा चुका था. नूर मोहम्मद सर पकड़ कर जमीन पर बैठा हुआ था. मैंने बछड़े को उठा कर अन्दर झौंपड़े में रखना चाहा लेकिन उसने मुझे ऐसा करने से रोक दिया, वह जानता था कि अब यह कामयाब नही हो पायेगा. बारिश अब विकराल रुप ले चुकी थी, लग रहा था कि बादलों को फ़ाड़ कर उनके उपर वाला नीला सिंधु धरती पर उतरने का मन बना चुका हो. पहाड़ में बारिश के दौरान पानी ठहरता तो है नहीं किन्तु बहता द्रुत वेग से है. देखते ही देखते उपर की ओर से आते पानी ने झौंपड़े के अन्दर के सामान, जो जमीन पर था, बहाना शुरु कर दिया. (Struggle in Mountains Story Subhash Taraan)
बादलों के बीच ढका चाँद अपने प्रभाव के चलते मामूली सा धुंधलका किये हुए था. इसी धुंधलके में झौंपड़े के अन्दर रखा नूर मोहम्मद के दूध का बर्तन पानी में बहता दिखाई देने लगा. यह कोढ़ के बाद खाज जैसा था. नूर मोहम्मद ने तुरन्त बछड़े को उसके हाल पर छोड़ कर नीचे की ओर नीम होते अन्धेरे में पतीले के पीछे दौड़ लगाई. भारी बारिश के चलते बगल में बह रहा गदेरा सचमुच का समन्दर हुआ जा रहा था. गदेरा ऐसा भान करवा रहा था मानो कोई पागल हाथी चिंघाड़ रहा हो, किन्तु नूर मोहम्मद इस सब से बेपरवाह पतीले के पीछे नीचे गदेरे की तरफ़ तेजी से उतरने लगा. मानव अधिकारों की वकालत करने वाले लोग भले ही जीवन को बेश-कीमती बताते रहें हों लेकिन इस समय नूर मोहम्मद के जीवन का मोल उस पतीले के समकक्ष था जो पानी के बहाव के साथ नीचे गदेरे में उतरने को हुआ जा रहा था. यह गरीब की बिडम्बना है कि उसके जीवन में अनेकों बार उसके जीवन का मोल किसी बर्तन के समकक्ष हो जाता है.
कुछ देर बाद नूर मोहम्मद हारे हुए योद्धा की तरह सर झुकाए वापिस आता दिखाई दिया. बारिश बछड़े की साँसों की तरह अब रुकने को हो रही थी केवल बगल में बह रहे गदेरे का शोर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे उस शिकारी की धड़कनों को जज्ब कर था जो शायद वहीं कहीं घात लगाये बैठा हमारे वहाँ से जाने का इंतजार कर रहा होगा.
-सुभाष तराण
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स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
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2 Comments
वीरेंद्र सिंह विष्ट
वाह! बहुत सुंदर। ऐसा लग रहा था कि हम भी साथ साथ चल रहे हैं और उस भयंकर रात के वर्णन से तो सिहर ही उठे।
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उस भयानक रात का वर्णन सिहरा देने वाला रहा।