घास-पात से निबटकर गोमती भैंस हथियाने गोठ गई हुई थी. असाढ़-ब्याही भैंस थी. कार्तिक तक तो ठीक चलती रही, मगर पूस लगते ही एकदम बिखुड़ गई. कार्तिक तक दोनों वक्त के तीन-साढ़े तीन से नीचे नहीं उतरी थी, मगर पूस की तुषार जैसे उसके थनों पर ही पड़ गई. दुकौली के तीन-साढ़े तीन सेर से इकौली के डेढ़-दो में उतर गई. इस डेढ़-दो सेर को निचोड़ने के लिए भी गोमती को बेर-बेर हथियाना पड़ता, तब कहीं जाके थन पँगुरते थे. (Story of Shailesh Matiyani)
चौमास में कटी सूखी घास की कमी नहीं थी. गाय-बैल वन चरने से लौट कर सूखी घास ही खाते थे. सिर्फ एक भूरी भैंस के लिए गोमती को जंगल जाना पड़ रहा था. दूध का लोभ था, तो हरी घास जुटानी पड़ रही थी. खीमसिंह को चाय का अमल बहुत है. सिर पर का छत्र-जैसा एक वही ठहरा भी गोमती के लिए. उसी को किसी चीज की कमी पड़ जाए, तो मन दुख जाता है कि — एक तो बेचारे वैसे ही परमेश्वर के मारे हुए ठहरे, ऊपर से मेरी ओर से भी खिदमत में कमी रह गई, तो बेचारों का चित्त कितना कलपेगा!
पड़ोसियों और बिरादरों के गोठ की घिनाली — दूध-दही-छाछ-नौनी — का क्या आसरा करना! छोड़े हुए बरतन में कोई डालता ही कितना है! सौ निहोरे करने में अपनी जीभ भी लजाती है. ऐन मौके पर किसी ने नदुली जिठानी की तरह मीठे शब्दों से कानों को भरते हुए ‘द, वे बहू! आज तो मेरे रतनुवा छोकरे के लिए रोटी भिगाने को ही पूरा नहीं दूध, नहीं तो भला क्या तुझे खाली हाथ लौटने देती?’ कहते हुए हाथ का रीता गिलास रीता ही छोड़ दिया, तो और भी खिसिया जाता है अपना मन.
इससे अच्छा तो यही है जरा अपनी ही कमर पर कष्ट झेल लिया जाए. अपने हाथ के दूध-पूत की बरकत ही अलग होती है. कुछ भी नहीं तो दिन-भर में आठ-दस टैम खीमसिंह चाय पीता होगा. प्यास लगती है, तो छाछ के डकौले की तरफ आँखें उठा देता है. इसके अलावा गोमती के पूर्व-जन्म के खोट सामने आए हुए हैं. आधा तन-बदन पक्षाघात से वैसे ही सुन्न और परचेत ठहरा. दूध-घी की टूट पड़ेगी, तो हाड़-ही-हाड़ दिखाई देने लगेंगे.
गोमती ने जब कभी ऐसा सोचा है, उनकी आँखों में दो साल पहले के खीमसिंह की तसवीर उतर आई है, जो बैलों में का साँड़-जैसा सारे गाँव के नौजवानों में एकदम अलग ही दिखाई देता था.
पहले घरवाले मधनसिंह के पलटन में ही फौद हो जाने से, गोमती ने अपने दिल में यही समझ लिया था — अब बाकी उमर तो बिना आधार की लता की तरह लटकते हुए ही काट देनी है, मगर चरेवा-चूड़ी टूटे साल-भर भी नहीं बीता कि नए घर का कारोबार हाथों में आ गया. गोमती खीमसिंह की नौली कहलाने लगी.
आज फिर भैंस के थनों को हथियाते गोमती का मन अतीत की स्मृतियों से भुर-भुर-सा उठा था. गाँव-पड़ोस के लोगों में कानबजाई होगी. थुक्का-फजीती होगी, शूल तो गोमती के कलेजे को बेधता ही रहता था. मगर अनहोनी होनी थी. चमार चित्त काबू में नहीं रहा.
लेकिन पाप का घड़ा कहाँ बहुत दूर की मंजिल तक पहुँचता है. रास्ते में ही ऐसी ठोकर लगती है, वहीं फूट जाता है. गोमती का भाग भी ऐसा ही फूटा. खीमसिंह के घर-बार आकर जैसे ही चार दिन सुख के काटे थे, इसी गए असोज में, वह बाईं ओर के हाथ-पाँव से लाचार हो गया.
भला-चंगा, शहर नंदादेवी के मेले में गया था खीमसिंह. …और इस बरस की नंदादेवी ने गोमती की तकदीर में ऐसी चोट मारी. कहाँ लाल बिंदुली कपाल में रचाए, तीन हाथ का रेशमी धमेला लटी में लगाकर, गले में चाँदी का चमचमाता तीस तोले का सूत और नाक में में पूरे पाँच चंदकों वाली सोने की दमदमाती नथुनी पहन कर मैया नंदादेवी के दर्शन करने गई थी कि देवी मैया के दर्शन भी हो जाएँगे. मेले की रौनक-रंगत भी देखने में आ जाएगी. गाड़ी की सड़क के ‘लच्छी राम ठेटर’ में एकाध सिनेमा भी देखने में आ जाएगा. …और कहाँ खीमसिंह के तन-बदन में प्राणघाती पक्षाघात पड़ गया, तो अपने फूटे कपाल में दोहथिया मारती, विधवा औरतों का जैसा विलाप करती घर को लौटी थी.
गीतों के जोड़ों को गाते-गाते, हुड़क बजाते खीमसिंह को एक चक्कर-जैसा आ गया था. लखुवाबाई का चक्कर था, बाएँ हाथ-पाँव को मरोड़ के रख गया.
उस दिन का एक यह दिन है, गोमती के कलेजे में काँटे-जैसे अटके रहे. सब अपनी करती के फल भुगतने पड़ रहे हैं. धरम के स्वामी मधनसिंह के नाम पर कलंक लगाने का दंड भोगना पड़ रहा है.
भूरी के थनों के साथ-साथ गोमती के आँसू भी उसके घुटनों में अटकी पीतल की तौली में उतरते चले जा रहे थे कि अंदर से खीमसिंह चिल्लाया — ‘अरे, सुसरी, तेरे पालने वालों का प्यारा मर जावे! कानों में कनगू बहुत भर गया क्या? कबसे पिशाब रोकता-रोकता परेशान हो गया. आवाज लगाते-लगाते गला खुश्क हो गया! मगर हट्ट, तेरी कमीन जात को काट फेकूँ, सुसरी! सुने का अनुसना करने न-जाने कहाँ अपने पालनेवालों के हाड़ फँकने में लगी हुई साली! अरी, ओ रंडा…! तीन घंटे से मेरी पिशाब अटकी हुई है. मरती है यहाँ, कि नहीं?’
गोमती ने भूरी के थन ऐसे छोड़ दिए, जैसे खीमसिंह की चीखती हुई आवाज उन्हीं थनों के अंदर से बाहर निकली हो. जैसे थनों से निकल कर तौली में गिरा हुआ दूध ही गोमती के कानों में गूँज उठा हो — कमजात साली, सुने का अनसुना करती!
अधलगाए दूध की तौली लिए गोमती जल्दी-जल्दी गोठ से बाहर निकली. सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर चौंतरे पर पहुँची, तो देखा — खीमसिंह घिसटता-घिसटता देहरी तक पहुँच गया था. गोमती को देखा, तो अपने लूले हाथ-पाँवों को पटपटाते हुए जोर से चीख उठा — ‘कब से पिशाब रोकते-रोकते मेरा दम निकल रहा है और यह कमजात सुसरी अब अपनी सूरत दिखा रही मुझे! ठैर सुसरी, मुझ अपने लूले-लाचार खसम में पेंच-सरपंच क्या लड़ा रही है, भुगतेगी अपने कर्मों को…!’
‘हाथीमार्का गोल डब्बा धर तो गई थी तुम्हारे बिस्तरे के पास ही,’ गोमती करुण-स्वर में बोली — ‘तुम तो एकदम उधेड़ने को आते हो मुझे. आखिर मैं वन घास-पात को भी जाती हूँ तो तुम्हारे ही लिए कि जरा चार तिनके हरी घास के मिलते रहेंगे, तो भूरी चार धार दूध की छोड़ती रहेगी. एक इसी लोभ से वन-वन डोलती हूँ….’
‘अरे, कौन औरत किस लोभ से किस वन में डोलती, इसे कौन जान सकता है! जब तक मुझ पर लखुवाबाई नहीं पड़ा था, तब तक क्यों नहीं उठे तेरे चलुवा पैर जंगलों की तरफ? अरे, मैं लूला-लाचार आदमी तुझ जैसी संड-मुसंड औरत को कैसे काबू में रख सकता…! तुझ ससुरी के पालने वालों में से एक बाकी न बचे! यहाँ मेरी पिशाब के मारे हवा खुश्क हो रही और यह सुसरी जरा सहारा देकर नीचे को कहाँ ले जाएगी, उलटे अपनी चार सौ बीसी की बातों में फँसा रही है! तेरा हाथीमार्का गोल डिब्बा तो दिन में ही भर गया था ससुरी!’ खीमसिंह देहरी से बाहर को लात फेंकते हुए चिल्ला उठा — ‘मार लातों-ही-लातों के सुसरी को चौंतरे से नीचे फेंक दूँगा…!
गोमती की आँखों में आँसू निकल आए. एकदम हड़बड़ाकर दूध की तौली एक ओर रखते हुए, उसने खीमसिंह को सँभाला. अपनी पीठ दी, तो खीमसिंह ने दाँया हाथ उसके गले में डाल दिया और चोट खाए बंदर की तरह उचककर गोमती की पीठ पर चढ़ गया. बोला — ‘सीढ़ियों पर जरा सँभाल के ले जाना मुझे. आजकल बिलकुल भैंस की तरह बमकती हुई चल रही है…’
पेशाब से निबटाकर, गोमती खीमसिंह को अंदर ले आई. एक ओर भोटिया भेड़ की ऊनी खाल पर उसे बिठा कर, घिसटने से मुड़ागुमचा खीमसिंह का बिस्तर ठीक किया. खीमसिंह को उस पर लिटाकर, पेशाब का डिब्बा खाली करने चली गई. वह जब-जब वन जाती, खीमसिंह के लिए डब्बा रख जाया करती थी. घर लौटती तो डब्बा खाली करके, धोकर, बाहर देहरी-आगे के चबूतरे-नीचे वाले आले में रख देती.
बालों से दूध की तौली अंदर लाते गोमती को देखा, तो खीमसिंह अपनी आवाज का अपने ही गले में घोंटा-जैसा लगाते हुए कुड़बुड़ाया — ‘और हाथी की जैसी मगन मस्त चाल से चल सुसरी! अरे साली ने चार घंटे से चहा के बिना मेरा गला खुश्क कर रखा. मुझको जो अगर टैम पर चहा नहीं पिला सकती, तो मैं क्या तेरे दूध का आचार डालूँ?’
गोमती को सचमुच ऐसा लगा, किसी ने चिमटे से उसके कलेजे के किसी कोने को जोर से दबा दिया है — जैसे अक्सर वह चूल्हे में सिंकते हुए खीमसिंह के हिस्से के फुलके को चिमटे से दबाकर घुमाया करती है.
चूल्हे में आग जलाने के लिए, छिलुक की काँडी जलाते हुए गोमती ने अपने कातर-स्वर को अपने ही कंठ में झेल लिया — ‘आज कल तो अब एकदम हड़का कुकुर की तरह काटने को आने लग गए. अनाप-सनाप चहा पीते हैं, फिर मार ‘हाई पिशाब, हाई पिशाब’ करते हुए मेरी जान खाते. अपने गले की खुश्की को मेरे कलेजे में उतारते….’
असोज एक, कार्तिक दो, मंसीर तीन और अब यह पूस — चार महीने से खीमसिंह लखुवाबाई का मारा पड़ा हुआ है.
गोमती कभी-कभी सोचती है, एक ओर तो खेत-वन ठौर-ठौर फिरने वाली वो हवा है, जो असोज से पूस तक, दिन-पर-दिन ठंडी होती चली आई है और एक कोठरी में पड़ा हुआ खीमसिंह है, जो दिन-पर-दिन उसके कलेजे में और लाल चिमटे के जैसे दाग देता जा रहा है.
गोमती सोचती है, परमेश्वर के यहाँ भी किसी किस्म का इन्साफ नहीं है. खीमसिंह के जिस बाएँ हिस्से में लखुवाबाई पड़ा है, उसी ओर उसका दिल भी तो पड़ता है! पहले कितना कोमल था, अब कैसा कठोर!
गोमती को याद आते हैं, अपने पिछले सुख के दिन, जब खीमसिंह पतंग के पीछे की डोरी की तरह, उसके साथ लगा रहता था. खुद उसका भी यही हाल था, किसी दूसरे ही लोग में पहुँची हुई रहती थी. होश सँभालने के समय से ही गोमती को जैसे खसम की ललक थी, खीमसिंह ठीक वैसा ही था.
ब्याहता मधनसिंह पलटन में गया ही था कि खीमसिंह से बोलचाल शुरू हो गई थी. एक गाँव ठहरा. खेतों का सिलसिला एक. दूर का ही सही, मगर देवर-भौजी का जैसा रिश्ता. आते-जाते में ‘क्यों हो, गोमती भौजी, घास काटकर लौट रही हो?’ खीमसिंह ने पूछ लिया, तो ‘होई हो, खीमसींग’ कहते हुए गोमती ने भी एक आँखर पूछ ही लिया – ‘क्यों हो, देवर, तुम किधर को जा रहे हो?’
धीरे-धीरे यही मामूली बोल-चाल यहाँ तक पहुँच गई कि एक दिन खीमसिंह ने घास का गढौल लेकर लौटती गोमती के गालों पर अपना हाथ फिरा दिया – ‘बुरा तो मानना नहीं, गोमती भौजी! मुख में आई हुई बात मुझसे रोकी नहीं जाती. जैसे ऊपर की टुक्की तोड़ देने से हरी मिर्ची के पेड़ों में और ज्यादा अँखुए फूटते, होने को तो बुरा ही हुआ, खैर, परमेश्वर की मरजी पर बस किसका चलने वाला ठहरा — मगर मधनदा के गुजरने के बाद से तुम्हारी खूबसूरती और जोर में आ गई. वन लकड़ी को जाते में कभी-कभी तुम्हारी प्यारी सूरत मुझे रास्ते में देखने को मिल जाती तो फिर उस टक्कर का कोई फूल सारे जंगल में कहीं नहीं दिखाई देता!’
…और ऐसी चाय कहाँ होती है, जो चीनी डालने से मीठी न बने? गोमती के मुख से भी निकल पड़ा था – ‘बस, हो गया हो, खीमसिंह, मेरी मजाक जैसी क्यों बनाते हो? दूसरों की बात चलाते हो बेकार में, तुम कौन से कमती हो? रास्ते में आते-जाते हो, तो औरों से अलग ही दिखाई पड़ती तुम्हारी सूरत.’
यों चिकने पत्थर पर आगे की ओर फिसलते पाँव जैसा गोमती का मन भी ऐसा बेकाबू हुआ कि उधर मधनसिंह के वार्षिक-श्राद्ध का कारज निबटा कि इधर गोमती खीमसिंह के घरबार चली आई. खीमसिंह के नाम का मंगल-सूत्र गले में डालते हुए गोमती की उँगलियाँ कँपकँपा उठी थीं — धरम के स्वामी का सत छोड़कर यों दो घरिया बनना कोई अच्छी बात नहीं!
मगर धीरे-धीरे, गोमती ने अपने चित्त को ज्यों-त्यों समझा ही लिया कि अरे निराधार नारी की और लता-बेल की जिंदगानी करीबन-करीबन एक जैसी होती. या तो खंभे का आधार लेकर रहना, या जमीन पर फैलकर अपने दिन काटना. …और यह तो गोमती रात-दिन खुद अपनी आँखों से देखती आई कि जहाँ खंभे पर चढ़ी लौकी की बेल खूब फलती-फूलती है, वहीं जमीन पर पड़ी हुई एकदम लावारिस, विधवा औरत-जैसी दिखाई देती है. जो जानवर उधर से गुजरा, उसी ने मुँह मारा. कभी-कभार जो कोई फूल-फल लग भी गया, तो जिसके हाथ पड़ी लौकी, उसी ने अपनी कढ़ाई में तेल-मिर्चा का छोंका दिया.
इसके अलावा, एक संतोष गोमती के मन को इस बात से भी था — गए पिछले सावन या भादों की बात है, खुद उसके ससुर गोधनसिंह ने एक लौकी की बेल पुराने ठाँगर (आधार-खंभ) पर लगाई थी. पुराना, मिट्टी-पानी का खाया हुआ ठाँगर ठहरा, जैसे ही लौकी की लता के झब्बदार पात फूटे, टूटकर एक तरफ को लंबा हो गया. गोधनसिंह ने वही किया. उसको फोड़-फाड़कर, चूल्हे तक पहुँचाया और लौकी की लता को एक नए खंभे का आधार दे दिया.
‘इसी तरह से सारी सृष्टि चलती आई है’ — गोमती ने खीमसिंह के घरबार आकर, अपने मन के शूल को मन में ही दबा दिया.
मगर मिट्टी में दबा हुआ काँटा एक-न-एक दिन पाँव में चुभता ही है. खीमसिंह की संगत-सोहबत के सुख के रँगीले चार दिन तो ऐसे बीत गए, जैसे कुसुम्यारू के पेड़ से पंख फड़फड़ाती उड़ी हुई चिड़िया, थोड़ी ही देर बाद, पंख समेटे खुबानी के पेड़ पर बैठ गई हो.
…और पार साल उसके ससुर गोधनसिंह के आँगन-किनारे के खुबानी के पेड़ में एक बज्र गिरा था. …इंदर भी आखिर देवताओं के राजा हैं. मृत्युलोक के मनुष्यों को उनके पाप-पुण्यों का दंड देते रहते हैं. इस साल खीमसिंह पर लखुवाबाई गिराया है. गोमती अपनी बुद्धि के अनुसार इतना ही सोच पाती है और खीमसिंह की सेवा में लगी रहती है — शायद, परमेश्वर ने एक मौका पुराने पापों के प्रायश्चित के लिए दिया है.
पापों के प्रायश्चित की भावना से ही गोमती में इतनी सहन-शक्ति भी आई है कि खीमसिंह के दोतरफा नटौरों को झेल लेती है. बाईं तरफ के पक्षाघात ने खीमसिंह को ऐसा बिगाड़ दिया है कि यही गोमती थी, जिसके बालों की लटों की वह गले में लपेट-लपेट कर कहता था — ‘गोमी, तेरी लटों के गोल घेरे के बीच में तेरी सूरत ऐसी दिखाई पड़ती जैसे काली नागिन की कुंडली के बीच चमचमान नागमणि पड़ी हुई हो.’
…और गोमती वही है, मगर लखुवाबाई क्या पड़ा, खीमसिंह के मुँह से तेज खटाई-जैसी बाहर निकलने लग गई – ‘अरे, राँड़ी, अब क्या तू मेरी परवा करेगी! मेरे सारे लूले-लाचार अंग दिन-पर-दिन सूखते जा रहे हैं, और एक तरफ इस रंडा के गाल फूटे हुए दाड़िम-जैसे लाल होते जा रहे. अरे, तुझ-जैसी चटुली राँड़ के लिए कमी थोड़े ही हुई! …तुझ राँड़ी से एक दीन-दुनिया से बेखबर-जैसा मैं भी हो गया. …और अब मेरा घर-संसार उजड़ता जा रहा. ऐसी अलच्छिनी को घर में लाकर मैं क्या सुखी रहता, जिसने अपने धरम के खसम को पलटन में ही तोड़ के रख दिया! अरे, शकल-सूरत की जैसी भी थी, आखिर सात भाँवर फिराई हुई थी. घरिणी पारबती को अपने बेटे के साथ मैंने सिर्फ तेरे कारण निकाल दिया, उसी के दंड को भोग रहा. अब तुझसे थोड़े ही मिल सकता है मुझे बेटा! वैसे तुझ राँड़ी का क्या भरोस, न-जाने किन लोगों का गू-मूत कब इस घर में फैला सकती.’
खैर, गोमती यह सोच के अपने दिन काटती जा रही है – अब जो बोल रहा है, वह खीमसिंह नहीं बोल रहा है. फूटी हुई तकदीर है, वही काँसे के कटोरे-जैसे कलेजे को पाथरों पर पटकती रहती है. और गोमती को पारबती के कँटीले के भुत्तों-जैसे तीखे वचन याद आते हैं, जो उसने खीमसिंह के घर से निकलकर अपने मायके जाते हुए कहे थे – ठैर राँड़ी! मेरा हक मारके मेरे ही घर में साँड़-जैसी क्या घुस रही है, परमेश्वर करेगा तेरा-मेरा इंसाफ…!
और परमेश्वर का इंसाफ गोमती के सामने है.
खेतों में गेहूँ की फसल बोने का समय आ गया.
खेती के कामों के साथ-साथ, खीमसिंह की सेवा-टहल का सिलसिला भी चल रहा है. खाने-पीने को भी ठीक से जुटाना, टट्टी-पेशाब भी ठीक समय पर निबटवाना और गरम तेल की मालिश भी करना. आजकल भालू की चरबी की मालिश भी शुरू कर रखी है. सवेरे आँगन में धूप खिलते ही, पीठ लगाकर, गोमती खीमसिंह को आँगन में ले आती है और घंटे-दो-घंटे तक हाथों को जरा-सा भी विश्राम नहीं देती कि — कौन जानता है, किस समय परमेश्वर के घट में दया बैठ जाए और खीमसिंह का लखुवाबाई उतर जाए. लखुवाबाई उतरते ही, खीमसिंह के मन की कुंठाएँ भी उतर जाएँगी.
गोमती समझती है, खीमसिंह की आँखों की ज्योति तो सही-सलामत है. उन्हीं आँखों से वह अपने सूखे हुए अंगों को देखता है और गोमती के भरे-पूर शरीर को भी. एक समय वह भी था, खीमसिंह गोमती को एकटक प्यार-भरी आँखों से देखता था और फिर बच्चों की तरह बोल उठता था — ‘तेरी गोल-गोल गोरी सूरत का एक ‘गिडुवा’ बनाया गया होता और मैं बालक-जैसा उससे खेलता रहता. आनंद आ जाता मुझको.’
अंग लाचार हो गए, तो चित्त ऐसा चटक गया है — टूटे हुए काँच-जैसा चुभता रहता है. परसों की ही बात है, गोमती बाहर धूप में खीमसिंह की मालिश कर रही थी. दुखी जीवन ठहरा, मन पंछी-जैसा परलोक-परलोक उड़ता रहता है. ऐसे में जरा मालिश में भी कसर पड़ जाती है. परसों भी ऐसा ही हुआ, तो खीमसिंह ने दाहिने हाथ से तो थप्पड़ मारा ही, मुँह से भी गाज गिराने लगा — ‘अरे, ससुरी, दुनियावालों को अपना चरित्तर-जैसा दिखाने को ले आती है. एक बहाना-जैसा बना रखा है कि — ‘देखो रे, दुनियावालो, मैं अपने लूले-लाचार खसम की मालिश कैसे कर रही हूँ.’ …मगर राँड़ी, तू मालिश क्या, मेरी ऐसी-तैसी करेगी! चित्त तो तेरा यार लोगों के सोच-विचार में मगन ठहरा. बाहर की तरफ ही अपनी बदजात नजर रखती कि कोई यार-दोस्त गुजरता हुआ दिखाई देगा. अरे, मेरे लूले-लाचार अंगों को देखकर तू करेगी भी क्या! ये तो दिन-पर-दिन सूखते ही जा रहे. खैर, मैं तो लाख बातों की एक बात यह जानता हूँ कि जो ससुरी अपने धरम के खसम की नहीं हुई, वह मेरी क्या होगी!’
और गोमती थी कि अपने आँसू पीकर फिर भालू की चरबी का हाथ फिराने लग गई खीमसिंह की बाईं टाँग पर, ताकि एक दिन खीमसिंह खुद कह दे — गोमी, जैसी सेवा-टहल तूने मुझ दूसरे घरबार के लूले-लाचार खसम की की, वैसी कोई औरत अपने धरम के खसम की भी कहाँ कर सकती! …मगर अंदर-ही-अंदर गोमती को हमेशा यही अनुभव होता रहा, इस जनम में तो खीमसिंह के मुख से अच्छे आखरों की उम्मीद करना बेकार ही है.
आज गोमती बाहर आँगन में खीमसिंह की मालिश कर रही थी.
खीमसिंह घोड़ा-मार्का बीड़ी की फूँक खींचते और ओठों को किसी बहुत पुरानी खिड़की के कपाटों की तरह आपस में मिलाते हुए, नकछेदों से बाहर का धुआँ फेंकता जा रहा था.
इतने में कंधे पर हल रखे किसनसिंह उधर आ पहुँचा. खीमसिंह की कुशल बात पूछने के बाद उसने गोमती से कहा — ‘भौजी तुम्हारे भूमियागैर के खेतों में आज फिरा देता हूँ बैलों को. कल-परसों फिर तल्लीसार के खेतों की देखी जाएगी. अब तुम जरा जल्दी बैलों को खोलकर मेरे साथ चलो. बीज की थैली भी साथ में ले लेना.’
गोमती ने मालिशवाले हाथ को ऊपर उठाकर, सिर का आँचल ठीक करते हुए कहा, ‘अच्छा हो, किसनसिंह! जरा इनको अंदर पहुँचाने में एक तरफ से हाथ लगा दो. बिस्तर मैंने पहले से ही बिछा रखा है.’
किसनसिंह ने हल आँगन की दीवार पर रख दिया. खीमसिंह को सिर की तरफ से पकड़ कर बोला — ‘तुम पैरों की तरफ से पकड़ो, गोमती भौजी!’
गोमती ने पाँवों की तरफ से पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए ही थे कि खीमसिंह ने जोर से दाईं लात गोमती को मारी और, हाथ फेरने के बहाने, घोड़ा-मार्का बीड़ी का जलता हुआ टुकड़ा किसनसिंह के हाथों में चिपका दिया — ‘अरे, राँड़ी! अभी से लावारिस लाश की तरह क्यों घसीटने में लगी हुई! अरे, तुझ पापिन के लिए चार दाने गेहूँ के बहुत बड़ी चीज हो गए, मगर मेरी लाचार जिंदगी की कोई कीमत नहीं हुई? ठैर, ससुरी, भुगतेगी अपने पापों को! मुझ लूले-लाचार खसम को जीते जी लाश की तरह उठा रही. पानी के तालाब में गिरे नमक की तरह गल-गल कर मरेगी!’
गोमती ने कातर आँखों से एक बार खिसियाकर किसनसिंह की ओर देखा. फिर खीमसिंह के कड़ीदार चिमटे-जैसे हिलते हाथों को अपने कंधों से आगे को ले लिया — ‘अच्छा हो, पीठ पर चढ़ जाओ.’
किसनसिंह ने खीमसिंह को पीठ की तरफ से सहारा देकर गोमती की पीठ पर चढ़ा दिया. गोमती ने जोर लगाया और अंदर की ओर चल पड़ी. अंदर पहुँची ही थी कि खीमसिंह ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया — ‘अरे, ससुरी तेरे लिए कोई कमी थोड़े ही हुई!’
व्यंग्य के तीव्र दंश से तिलमिलाकर, गोमती रोते-रोते बोली — ‘हँ हो, ऐसे एकदम बेशरमों की तरह बौल्याट-छौल्याट करते हुए तुमको जरा कसक भी नहीं लगती? एकदम तिरशूल-जैसा मारते रहते हो हर बखत कलेजे में! यह नहीं सोचते… खेती-बाड़ी का काम चौपट हो गया, तो चार दाने अन्न के लिए औरों का मुख देखना पड़ेगा. तुम्हारे ही कारण मैं दिन-भर काम में लगी रहती. एक आँखर अच्छे मुख से कहने की जगह हर बखत मेरे सिर पर नटौरे मारते रहते हो. अब किसनसिंह बेचारे भी अपने दिल में क्या सोचते होंगे! बेचारे अपना काम छोड़कर हमारे खेतों में हल फिराने को आए हुए और कहाँ…’
‘अरे, ससुरी, बहुत लेक्चर-जैसा मत झाड़ अब! रहने दे अपना तिरिया-चरित्तर!’ खीमसिंह जोर से चिल्ला उठा — ‘सब समझता हूँ मैं भी कि कौन तेरे पीछे क्यों लगा रहता. हाथ-पाँव में ही बाई पड़ा है, आँखें तो सही-सलामत हैं. खैर, कर ले, ससुरी! मैं तो मुरदास-लाचार आदमी ठहरा, तू अपनी मस्तानी जवानी की तसल्ली कर ले…!’
‘अरे, जबसे तुम्हारे हाथ-पाँव लाचार हुए, तुम्हारा मुख एकदम अर्जुन का तरकस बन गया.’ कहते हुए गोमती बाहर चलने लगी — ‘ऐसे ही मेरे कलेजे को बाणों से छेदते रहोगे, तो इस घर से अपना मुख काला करके चली जाऊँगी…!’
‘अरे, यह बात तू अपने मुँह से क्यों सुनाती मुझे, ससुरी!’ खीमसिंह हाथ-पाँव पटकते हुए रोने लगा — ‘तेरी कमीन औकात को तो मैं खुद ही समझे हुए बैठा कि तू राँड़ मुझ-जैसा लाचार-लावारिस आदमी के पास क्या रहेगी. तुझ जैसी राँड़ों के लिए साँड़ों की कोई कमी थोड़े ही हुई.’ गोमती बिना रुके आँगन में पहुँच गई. गोठ जाकर, बैलों को खोलते-खोलते, उसने अपनी रुलाई के आवेश को उन्मुक्त कर दिया. बाहर खड़े किसनसिंह के कानों तक उसकी सिसकियाँ पहुँचती रहीं.
खेतों में हल जोतते-जोतते किसनसिंह कहता रहा — ‘गोमती भौजी, खिमदा के साथ तुम्हारी जिंदगी कटनी एकदम मुश्किल है. इतनी सेवा करके भी जो आदमी साँप की तरह डँसने को दौड़े, उसके साथ रहना अपनी जिंदगी को बरबाद करने के सिवा और कुछ नहीं.’
‘देवर हो, मुझ अभागिनी की जिंदगी तो उसी दिन बरबाद हो गई, जिस दिन पहला घरबार उजड़ गया. अब तो मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर रही.’ — पिनालू के कढ़ाईनुमा पातों पर से निथरते पानी की बूँदों-जैसे आँसू गिराती हुई, गोमती गेहूँ के बीज बोती रही.
‘बुरा मत मानना हो, गोमती भौजी! मगर तुम अपना मूरखता का फल भोग रही.’ जहाँ तक पापों के प्रायश्चित का सवाल, एक अकेले तुम्हीं ने कौन-सा बड़ा पाप करा था? तुम तो निराधार हो जाने पर खिमदा के घरबार आई हो? यहाँ आजकल की औरतें अपने जीते-जागते खसम को छोड़कर मनमाने घरबार जा रहीं. दूर जाने की क्या जरूरत, मिसाल के तौर पर मैं ही तुम्हारे सामने खड़ा हूँ. अच्छा हो, गोमती भौजी, तुम ही बताओ कि गाँगुली के साथ मैंने कौन-सी बुराई की थी? छाती से लगाकर रखता था ससुरी को! और उसने यह नतीजा दिखलाया कि गुलबिया सिपाही के साथ चली गई. चार महीने के पेट का भी कोई ख्याल नहीं किया. और एक तुम हो, जो बेकार में अपने कलेजे को कपास जैसा धुनता रहती हो. अरे, सच कहता हूँ, गोमती भौजी, कि मुझको जो अगर तुम्हारी-जैसी नेक और दयावान औरत मिल जाती, तो मैं ताबे-जिंदगी-भर तुमको अपने कलेजे से लगाकर रखता.’ कहते-कहते किसनसिंह ने सचमुच हल छोड़कर, गोमती को अपने कलेजे से लगा लिया.
किसनसिंह के इस अप्रत्याशित व्यवहार से, गोमती एकदम अटपटा गई. आर-पार के खेतो में काम करते लोगों में से किसी ने देख लिया, तो…?
प्रयत्न करके किसनसिंह से अलग होते हुए, सिर झुकाए-झुकाए गोमती फिर गेहूँ बुनने में लग गई — ‘देवर हो, ऐसा नहीं करते किसी लाचार औरत के साथ! मुझे एक कलंक और क्यों लगाने की कोशिश करते? अपनी फूटी हुई तकदीर के दुखों को मुझे भोगना ही ठहरा….’
‘तो भोगो फिर…!’ कहते हुए किसनसिंह ने फिर हल का हथिना पकड़ लिया — ‘ह-ह-ह, रे पौंइया! तिर-तिर-तिर-? गोमती भौजी, मेरा क्या बिगड़ने वाला? मेरी भी तकदीर फूटी हुई. घरबार उजड़कर एक तरफ हो गया. तुमको देखकर एक उम्मीद बाँध रहा कि अगर हो सके, तो तुम्हारी-मेरी दोनों की जिंदगी गुलजार हो जाए! तुम भी बहुत चोट खा चुकी हो, मैं भी एक जबरदस्त धोखा खाया हुआ. हम दोनों जितना एक-दूसरे के दुख-सुख को समझ सकते, उतना कोई दूसरा हरगिज नहीं समझ सकता. …और जहाँ तक कलंक या पाप लगने का सवाल है, मैं तो सीधी-सी बात यह जानता हूँ भौजी, कि धोखा एक दफे खाया तो खाया, सौ दफे खाया, तो खाया. फिर इसमें इनसान की मरजी और मौजूदा हालात का भी सवाल है. मेरी गाँगुली ने पलटनिया सिपाही के साथ कूद मार दी, तो मेरे दिल का सबर भी देखो, गोमती भौजी! …और कोई आदमी होता, तो सिर-फोड़ करने को तैयार हो जाता. मैंने चुपचाप तलाक लिख दिया कि — ‘जा ससुरी, जहाँ तेरी तबीयत लगती. मैंने अपने पाँच सौ चालीस रुपए शादी के समय के हरजे-खरचे के वसूल पाए.’ …यही सोच लिया, औरत नहीं एक घोड़ी ले आया था. बिक कई, दाम वसूल हो गए. …इसी तरह से अगर तुम्हारी मरजी हो जाए, तो खीमदा भी अपने हक के रुपए लेकर तुम्हारा तलाकनामा लिख सकता है. …अरे चल्ल् रे, पौंइया, होट मेरे बल्दा! …सीधी लीक क्यों नहीं पकड़ता! तिर-तिर…!
मल्ली बाखली के धरमसिंह चचा ठीक ही कहा करते हैं कि ‘करमगीता किन टारी!’
पिछले जनम के कामों का फेर गोमती का भी ऐसा रहा कि उसने तो यही सोच लिया था — बाकी बची हुई जिंदगानी को अब खीमसिंह की ही खिदमत में लगा देना है. ताकि पापों का प्रायश्चित हो जाए और कहने वालों को यह कहने का मौका भी न मिले कि लूले-लाचार खसम को ऐन मौके पर लात मार गई. …मगर किसनसिंह ने भी कोई गलत बात तो कहीं नहीं कि — गोमती भौजी, बुरा-भला कहने वाले लोग आखिर कितने दिन तक अपनी जबान चलाएँगे? दो दिन, चार दिन. अरे, ज्यादा-से-ज्यादा दो-चार खसम? मगर तुम्हारे-मेरे सामने तो उमर-भर का सवाल है. खिमदा की मति के सुधरने के लच्छन अब कम ही समझो. जिस आदमी के दिल में कोई रहम ही नहीं हो, उसका गू-मूत पोंछते रहने से भी, सिवा गालियों-नटौरों के और कुछ हासिल होने की उम्मीद करना बेकार ठहरा. और फिर तुम्हारी-जैसी औरत की जिंदगानी किसलिए होती, गोमती भौजी? ताकि चार बाल-गोपाल गोदी में खेलने वाले हों और आगे का बंशबेल फैलती चली जाए! औरत के लिए चार दिन सुख के वही होते हैं, जिनमें उसका खसम उसे कलेजे से लगा के रखता है. या फिर चार दिन वही अपने चैन के आते, जब वह बेटे-बहुओं से फली हुई बेल-जैसी लद जाती. नाती-नातिनियों का घेरा उसके चारों ओर पड़ जाता है. …मगर खिमदा के यहाँ अपनी जिंदगानी बरबाद करने से तो तुम्हें इन दोनों में से कोई भी सुख हासिल नहीं हो सकता!’
इन्हीं बातों को सोचते-समझने के बाद, गोमती को भी लगा था — किसनसिंह कोई गलत बात तो कह नहीं रहे हैं.
अब वह सोच रही थी, खीमसिंह उसका तलाकनामा किसनसिंह के नाम पर लिख दे, तो अच्छा ही है. मगर खीमसिंह लिख देगा, ऐसी उम्मीद कम ही थी. यही सोचते-सोचते, आज उसे रह-रहकर कल वाली बात याद आ रही थी, जब वह अपनी जिठानी सरुली के साथ पानी भरने गई थी. पनघट जाने का रास्ता एकदम सँकरा था और उसी पर जितुवा कोढ़ी आराम से लेटा हुआ था. सरुली ने मुँह बिचकाते हुए कहा था — ‘द, यह जितुवा कोढ़ी न खुद मरता है, न औरों को रास्ता देता है!’ …और उस समय खीमसिंह का ध्यान आते ही, गोमती ने अपने मन-ही-मन में दोहराया था कि — सरुली दीदी बिल्कुल ठीक कहती हैं. न तो कोढ़ी खुद मरता है, न दूसरों को रास्ता देता है!
खीमसिंह का तो यही हाल था कि दिन-पर-दिन निठुर और कटखना होता जा रहा था. गोमती अपनी ओर से सेवा-टहल में जी-जान से लगी रहती थी, मगर खीमसिंह के मुख से ‘अच्छा कर रही है, गोमी, मुझ लूले-लाचार की सेवा-टहल कर रही है’ शब्द कभी नहीं निकले! उलटे लखुवाबाई के मरोड़े हुए मुख से साबुन का जैसा झाग छोड़ता रहा कि — अरे, सुसरी, दुनिया के देखने को पतिभक्ति में जोर दिखा रही है, मगर तेरे मतकाकड़ी-जैसे जोमन पर आजकल मेरा काबू थोड़े ही ठहरा… मैं तो विधाता का मारा लाचार प्राणी हुआ…
खीमसिंह को हमेशा यही लगता, गोमती-जैसी जवान और सुंदर औरत उस अपंग के साथ नहीं रह सकती.
आजकल जब गोमती बाहर के काम से निबटकर पहुँचती, तो खीमसिंह अपने लखवाबाई से ऐंठे होंठों को बड़बड़ाकर, बड़े वीभत्स स्वर में गाने लगता – ‘अरे, रामा, तन मरारे, मेरा मन मरा…आ…आ… मर गया मेरा शरीर! …अरे, सुसरी, एक तेरा गमकना नहीं मरा… आ-आ कह गए दास कबीर…’
भलाई के बदले में मिलने वाली बुराई को कोई कब तक झेले! गोमती का मन भी खीमसिंह की ओर से दिन-पर-दिन दूर हटता चला गया. अब उसे यही लग रहा था, खीमसिंह उसकी जिंदगी के रास्ते में ठीक जितुवा कोढ़ी की तरह ही लेटा हुआ है. न यह खुद रास्ता देगा, न गोमती उसे एक ओर हटा सकेगी.
ऐसे में जब एक तो अपना ही दुख दूर ले जा रहा था, किसनसिंह के कंधों का सहारा भी मिल गया, तो उसके मुख से ही निकल पड़ा – ‘किसनसिंह हो, मेरा कलेजा तो फट के एक तरफ चला गया है. मैंने तो यह सोचा था कि — अब बाकी जिंदगानी उनकी सेवा-टहल में काट दूँगी. पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहती थी. मगर उनकी मति ऐसी निठुर हो गई हे कि मेरे लिए यह रास्ता भी बंद ही जैसा होता जा रहा. आखिर मैं इनसान ही हूँ. वो तो बिल्कुल आरी-जैसी चलाने लग गए आजकल कलेजे में. कभी-कभी तो फाँसी लगाकर मर जाने की इच्छा होती.’
और किसनसिंह ने उसे आज फिर अपने कलेजे से लगा लिया — ‘अलच्छिन आँखर मत बोल, गोमी! जरा सबर से काम लेके देख कि मैं कैसे तेरी जिंदगानी को एकदम गुलजार बना के रखता. चल, अभी मेरे साथ चल. कुछ करने और रोकने वाले सालों को मैं देख लूँगा. धरमसिंह चचा कल कह रहे कि — खिमुवा खुद तो मर ही रहा, बेचारी गोमती की जिंदगानी को भी बरबाद कर रहा. अच्छा होता, बेचारी अगर कोई दूसरी ठौर ठीक कर लेती अपने लिए. — मैं कल ही उनको भेज दूँगा — यह कहलाने के लिए कि अपने हरजे-खरचे के जो कुछ भी चार-पाँच सौ, बल्कि एक हजार तक पकड़ने हों, पकड़ लेवे… और तेरा तलाकनामा लिख देवे. इसके अलावा उसकी पहली घरवाली पारबती को भी मैंने पिछले मंगलवार को भेंट होने पर यह समझा दिया था, कि ‘गोमती भौजी तो वहाँ से बाहर जाने वाली है. तू बेटे वाली है, अभी तक कहीं दूसरी जगह गई भी नहीं है.’ जाने को तो खैर, वह क्या नहीं जाती, मगर एक तो पहले ही काली-कुरूप थी, उस पर मायके जाते ही एक आँख भी फूट गई! इसलिए वह खिमदा के घर लौट आने को भी तैयार है कि उसे तो आखिर जल्दी-से-जल्दी मरना ही है. घर-जमीन वगैरह पर पारबती भौजी के बेटे का हक हो जाएगा. बस, तुम फौरन राजी होकर मेरे साथ चली आओ.’
‘अब मैं क्या कहूँ हो, किसनसिंह! जैसी परमेश्वर की इच्छा!’ — कहते हुए गोमती किसनसिंह के साथ चल पड़ी. चलते-चलते उसने घूँघट निकाल लिया. कोई इधर-उधर से आता-जाता कहीं देख न ले कि गोमती किसनसिंह के घरबार जा रही!
किसनसिंह का सिर्फ दो जनों का परिवार था. एक वह, एक उसकी माँ. वह गोमती को लेकर पिछवाड़े के रास्ते घर के अंदर पहुँचा. माँ उस समय आँगन में बैठी धान सुखा रही थी. किसनसिंह गोमती को अपने वाले कमरे में बुला ले गया और साँझ पड़ने तक गोमती उसी कमरे में छिपी रही. उसके मन-प्राण लाज और व्यथा की कचोट से थरथरा रहे थे कि जैसे ही वह बाहर निकलेगी, लोग उस पर थूकना शुरू कर देंगे — ‘लूले-लाचार खसम को छोड़कर तीसरे घरबार जाते हुए जरा भी लाज नहीं लगी बेशरम को…!’
धान बटोरकर अंदर रखने के बाद, किसनसिंह की माँ तल्ली-बाखली की ओर चली गई थी. वहाँ से लौटी, किसनसिंह देहरी पर बैठा हुआ मिला. वह बोली — ‘किसनुवा रे, तूने कहीं गोमती छोरी को देखा क्या? नीचे वाले तो कह रहे हैं कि दिन में तेरे साथ खेती का काम-काज कर रही थी?’
किसनसिंह जल्दी-जल्दी बोला, ‘मैंने तो फिर नहीं देखा.’
‘अरे, फिर कहाँ मर गई वह राँड़!’ – किसनसिंह की माँ चिल्लाकर बोली – ‘सबेरे की गई, साँझ तक लापता! यह भी जरा होश-खबर नहीं कि घर में लूला-लाचार खसम पड़ा हुआ. हे राम, खिमुवा तो घर में हाहाकार कर रहा. छाती पीट-पीटकर रोदन कर रहा. अरे, लाचार आदमी ठहरा. टट्टी-पिशाब भी लगे तो कौन सहारा दे बिचारे को? हे राम, उस राँड़ को जरा तो दया-माया होनी चाहिए थी अपने खसम की!’
‘हो गया, वे महतारी? अब बहुत बकमध्यायी मत लगा. हमने किसी को टट्टी-पेशाब करवाने का ठेका थोड़े ले रखा?’ — किसनसिंह ने अपनी माँ को डाँट दिया कि कहीं भीतर गोमती सुनेगी ऐसी बातों को, बेकार में उसे दुख पहुँचेगा.
इतने में चूड़ियों की छनछनाहट-जैसी सुनाई पड़ी, तो किसनसिंह अंदर लपका. देखा, गोमती पिछवाड़े के रास्ते बाहर को निकल रही थी. किसनसिंह ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया — ‘ठैर, गोमती, तू कहाँ जा रही है?’
मगर गोमती के कानों में जैसे अभी तक खीमसिंह का हाहाकर गूँज रहा था… अरे, सुसरी, कबसे टट्टी-पिशाब रोकते-रोकते परेशान हो गया! अरे, रंडा, कब से आवाज लगाते-लगाते मेरा गला खुश्क हो गया…!
पिछवाड़े के रास्ते पर खड़ा किसनसिंह उसे हाथ पकड़कर पीछे को खींच रहा था, मगर गोमती ने, एक जोर का झटका देकर, अपना हाथ छुड़ा लिया – ‘मुझको जाने दो हो, किसनसिंह! मेरा रास्ता मत रोको. इस समय मेरा चित्त ठीक नहीं. …वो बेचारे तकलीफ से तड़फड़ा रहे होंगे…’ (Story of Shailesh Matiyani)
एक शब्दहीन नदी: हंसा और शंकर के बहाने न जाने कितने पहाड़ियों का सच कहती शैलेश मटियानी की कहानी
हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.
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