कला साहित्य

कहानी : ज़िंदगी से प्यार

-जैक लंडन

“सब कुछ में से बस यह बचा रह जाएगा-
उन्होंने जिन्दगी जी है और अपना पासा फ़ेंका है
खेल में बहुत कुछ जीता जाएगा
पर पासे का सोना तो हारा जा चुका है.”
(Story by Jack London)

वे दर्द से लँगड़ाते हुए कगार से उतरे, और आगे चल रहा आदमी रुखड़े पत्थरों के बीच एक बार लड़खड़ा गया. वे थके ओर कमजोर थे, और उनके चेहरों पर धीरज का वह भाव था जो लम्बे समय तक कठिनाई का सामना करने से आ जाता है. उनके कन्धों पर भारी पिट्ठू और लपेटे हुए कम्बल लदे थे. उनके माथे से गुजरता पिट्ठू का चौड़ा पट्टा उसे सहारा दे रहा था. दोनों के पास एक-एक राइफ़ल थी. वे झुके हुए चल रहे थे; कन्धे आगे को निकले और सिर और भी आगे बढ़ा हुआ, आँखें जमीन पर गड़ी हुई. काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

“काश हमारे पास उनमें बस दो ही कारतूस होते जो हमारे उस भण्डार में पड़े हुए हैं,” दूसरे आदमी ने कहा.

उसकी आवाज एकदम भावहीन और नीरस थी. उसकी बात में कोई उत्साह नहीं था; और चट्टानों के ऊपर से बहती फ़ेनिल दूधिया धारा में लँगड़ाते हुए चलते पहले आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया.

दूसरा आदमी उसके पीछे-पीछे चलता रहा. उन्होंने अपने जूते उतारे नहीं थे, हालाँकि पानी बर्फ़-सा ठण्डा था-इतना ठण्डा कि उनके टखने दुखने लगे और उनके पाँव सुन्न हो गये. कहीं-कहीं पानी उनके घुटनों से टकराता था और दोनों को डगमगाते हुए अपने पैर ठीक से टिकाने पड़ते थे.

पीछे चल रहा आदमी एक चिकने पत्थर पर फि़सलकर करीब-करीब गिर पड़ा; उसने पूरा जोर लगाकर खुद को सँभाला, लेकिन उसके मुँह से दर्द की तेज चीख निकल पड़ी. उसे चक्कर-सा आ गया और घूमते हुए उसने अपना खाली हाथ आगे बढ़ाया, मानो हवा को थामना चाह रहा हो. सँभलने के बाद उसने आगे कदम बढ़ाया, लेकिन एक बार फि़र लड़खड़ाकर लगभग गिर पड़ा. फि़र वह स्थिर खड़ा होकर आगेवाले को देखने लगा, जिसने एक बार भी सिर नहीं घुमाया था.

आदमी पूरे एक मिनट तक चुपचाप खड़ा रहा, जैसे दुविधा में हो. फि़र उसने पुकारा.

“सुनो, बिल, मेरे टखने में मोच आ गयी है.”

बिल दूधिया पानी से होकर डगमगाता हुआ बढ़ता गया. उसने मुड़कर देखा नहीं. पहला आदमी उसे जाते हुए देखता रहा, और हालाँकि उसका चेहरा अब भी पहले की तरह भावहीन था, पर उसकी आँखें घायल हिरन-सी हो गयी थीं.

दूसरा आदमी लँगड़ाते हुए उस पार के तट पर चढ़ा और पीछे देखे बिना सीधे चलता गया. धारा के बीच खड़ा आदमी उसे देख रहा था. उसके होंठ हल्के-से काँपे, जिससे उन्हें ढँके हुए भूरे बालों के गुच्छे में हलचल साफ़ दिखाई दी. उसने मूँछों पर जुबान फि़राई.

“बिल!” उसने फि़र आवाज लगाई. यह एक मुसीबतजदा इनसान की मदद की गुहार थी, लेकिन बिल की गर्दन नहीं घूमी. आदमी उसे जाता देखता रहा. वह भयानक ढंग से लँगड़ाते और आगे की ओर झुके हुए नीची पहाड़ी के हल्के उभार पर चला जा रहा था. वह उसे जाते हुए देखता रहा जब तक कि वह उभार के दूसरी ओर पहुँचकर आँख से ओझल नहीं हो गया. फि़र उसने नजर घुमाई और धीरे-धीरे अपने चारों ओर की उस दुनिया को देखा जिसमें बिल उसे अकेला छोड़ गया था.

क्षितिज के पास सूरज का सुलगता गोला कुहासे और भाप के बीच से धुँधला-सा दिख रहा था. आदमी ने एक टाँग पर वजन देकर खड़े होते हुए जेब से घड़ी निकाली. चार बज रहे थे, और चूँकि जुलाई का आखिरी या अगस्त का पहला दिन था-उसे तारीख ठीक-ठीक नहीं मालूम थी-इससे उसने अनुमान लगाया कि सूरज लगभग उत्तर-पश्चिम में था. उसने दक्षिण की ओर देखा. उसे मालूम था कि उन धुँधली पहाड़ियों के पार कहीं ग्रेट बियर लेक है. उसे यह भी पता था कि उस दिशा में कनाडियन बैरन के उजाड़ विस्तार को बीच से काटता हुआ आर्कटिक घेरा गुजरता है. जिस धारा में वह खड़ा था, वह कॉपरमाइन नदी में जाकर मिलती थी जो उत्तर की ओर बहकर कोरोनेशन खाड़ी और आर्कटिक सागर में गिरती थी. वह कभी वहाँ गया नहीं था, पर उसने एक बार हडसन बे कम्पनी के चार्ट पर इसे देखा था.

एक बार फि़र उसने अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाई. यह कोई उत्साहजनक दृश्य नहीं था. हर ओर क्षितिज धुँधुला-सा था. सारी पहाड़ियाँ नीची थीं. कहीं कोई पेड़ नहीं था, न कोई झाड़ी, न घास-कुछ नहीं, बस एक जबर्दस्त और भयंकर वीरानी जो उसकी आँखों में डर भरती जा रही थी.

“बिल!” वह फ़ुसफ़ुसाया, पहले एक बार, फि़र दोबारा, “बिल!“

वह दूधिया पानी के बीच खड़ा ऐसे दुबक रहा था जैसे दृश्य की विराटता उसे बेपनाह ताकत से दबा रही हो, अपनी भीषणता से उसे बुरी तरह कुचले डाल रही हो. वह जूड़ी के दौरे की तरह काँपने लगा और छपाक की आवाज के साथ बन्दूक उसके हाथ से गिर पड़ी. इससे वह चौंक गया. उसने अपने दिल से डर दूर किया और खुद को सँभालकर पानी में टटोलते हुए हथियार बाहर निकाल लिया. उसने अपना पिट्ठू बाएँ कन्धे पर और ऊपर चढ़ा लिया ताकि चोटिल टखने पर उसका वजन कुछ कम हो सके. फि़र वह धीरे-धीरे और सावधानी के साथ तट की ओर चल दिया. हर कदम पर दर्द की लहर उसके पैर से होते हुए बदन में दौड़ जाती थी.

वह रुका नहीं. पागलपन की हद तक पहुँची बदहवासी के साथ दर्द पर ध्यान दिये बिना, वह हड़बड़ाते हुए उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया जिसके दूसरी ओर उसका साथी गुम हो गया था. वह लँगड़ाते और भचकते अपने साथी से भी ज्यादा भद्दा और विद्रूप लग रहा था. ऊपर पहुँचकर उसने एक छिछली, वीरान घाटी देखी. उसने एक बार फि़र अपने डर पर काबू पाया, पिट्ठू को बाएँ कन्धे पर और ऊपर चढ़ाया और एक ओर को झुके हुए ढलान से नीचे उतरने लगा.

घाटी की तलहटी एकदम गीली थी. घनी, मोटी काई पानी को स्पंज की तरह सतह के करीब रखती थी. हर कदम पर उसके पैरों के नीचे से पानी छलछलाकर निकलता था और हर बार जब वह पैर उठाता था तो काई से ‘सक्क’ की आवाज होती थी. वह काई के समुद्र में छोटे-छोटे टापुओं की तरह उभरी चट्टानों पर पैर रखते हुए पहले आदमी के पदचिद्दों पर चल रहा था.

वह अकेला था, पर खोया नहीं था. उसे मालूम था कि और आगे, वह एक ऐसी जगह पहुँचेगा जहाँ छोटे-छोटे सूखे फ़र वृक्षों से घिरी एक छोटी-सी झील तित्चिन निचिली थी, उस इलाके की जुबान में जिसका अर्थ था “नन्ही छड़ियों की भूमि.” और उस झील में एक छोटी धारा बहकर आती थी, जिसका पानी दूधिया नहीं था. उस धारा के किनारे ऊँची घास थी-यह उसे अच्छी तरह याद था-लेकिन पेड़ नहीं थे. वह इस धारा के साथ-साथ वहाँ तक जायेगा जहाँ यह खड़ी चट्टान तक पहुँचकर खत्म हो जाती है. वह इस चट्टान को पार करेगा और पश्चिम की ओर बहनेवाली दूसरी धारा के साथ-साथ वहाँ तक जायेगा जहाँ यह डीज नदी में गिरती है. और वहाँ उसे कई चट्टानों से ढँकी एक उल्टी डोंगी के नीचे छिपा अपना गुप्त भण्डार मिलेगा. इस भण्डार में हैं उसकी खाली बन्दूक के लिए गोलियाँ, मछली पकड़ने के काँटे और डोरी और छोटा-सा जाल-खाना जुटाने के लिए पर्याप्त साजो-सामान. साथ ही, उसे थोड़ा-सा आटा, नमक लगे सुअर के मांस का एक टुकड़ा और कुछ बीन्स भी मिल जायेंगी.

बिल वहाँ उसका इन्तजार कर रहा होगा, और वे दोनों डोंगी में साथ-साथ डीज की धारा के साथ दक्षिण की ओर ग्रेट बियर लेक तक निकल जायेंगे. और फि़र वे विशाल झील के पार, और दक्षिण की ओर चलते जायेंगे, जब तक कि वे मैकेंजी नहीं पहुँच जाते. जाड़ा उनका पीछा करेगा पर वे दक्षिण, और दक्षिण चलते जायेंगे. नदियाँ-धाराएँ सब जम जायेंगी और दिन ठण्डे और शुष्क होते जायेंगे, पर वे आर्कटिक के जाड़े की पकड़ से दूर, हडसन बे कम्पनी की किसी गर्म चौकी पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पेड़ ऊँचे और घने होंगे और खाने को भरपूर होगा.

आगे बढ़ते हुए वह आदमी यही सब सोच रहा था. लेकिन वह अपने शरीर से जितना जोर लगा रहा था, उतना ही जोर उसका दिमाग भी लगा रहा था, यह सोचने में कि बिल उससे दगा नहीं कर गया था, कि बिल उस भण्डार के पास उसका इन्तजार जरूर करेगा. उसे ऐसा सोचना ही था, वरना कोशिश करने का कोई मतलब नहीं रह जाता, और वह वहीं पड़े-पड़े मर जाता. और जब सूरज का धुँधला गोला उत्तर-पश्चिम में धीरे-धीरे डूब रहा था, तब तक वह आनेवाले जाड़े के पहले अपने और बिल के दक्षिण की ओर पलायन का पूरा रास्ता, एक-एक इंच, कई बार मन में तय कर चुका था. और वह अपने गुप्त भण्डार का खाना तथा हडसन बे कम्पनी की चौकी का खाना कई-कई बार हड़प कर चुका था. पिछले दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था. उसके पहले भी काफ़ी समय से उसे जीभर के खाने को नहीं मिला था. बीच-बीच में वह रुककर बेरंग मस्केग बेरियाँ उठाकर मुँह में रखता और उन्हें चबाकर निगल लेता था. मस्केग बेरी के पनीले गूदे के भीतर एक छोटा-सा बीज होता है. मुँह में रखते ही गूदा पानी हो जाता है और बीज चबाने पर तीखा लगता है. वह आदमी जानता था कि बेरियों में जरा भी पोषण नहीं है, लेकिन वह उस उम्मीद के साथ उन्हें चबाये जा रहा था जो ज्ञान से बड़ी होती है और अनुभव को झुठलाती है.

नौ बजे उसे एक बाहर निकली हुई चट्टान से ठोकर लगी, और थकान और कमजोरी से लड़खड़ाकर वह गिर पड़ा. कुछ देर तक वह बिना हिले-डुले बाईं करवट पड़ा रहा. फि़र वह पिट्ठू के पट्टों से सरककर निकल आया और किसी तरह घिसटकर बैठने की मुद्रा में आ गया. अभी अँधेरा नहीं हुआ था, और ढलती रात के झुटपुटे में वह चट्टानों के बीच सूखी काई टटोलने लगा. जब एक ढेरभर जुट गया तो उसने आग जलाई-सुलगती, धुआँ देती आग-और टीन के एक बर्तन में पानी उबलने को रख दिया.

उसने अपना पिट्ठू खोला और सबसे पहले माचिस की तीलियाँ गिनीं. कुल सड़सठ थीं. उसने पक्का करने के लिए उन्हें तीन बार गिना. फि़र उसने उनके कई हिस्से किये और उन्हें मोमिया कागज में लपेट दिया. एक पुड़िया उसने तम्बाकू की खाली थैली में रखी, एक अपने मुड़े-तुड़े टोप के अन्दरवाले फ़ीते में फ़ँसाई और तीसरी को कमीज के अन्दर डाल लिया. यह कर चुकने के बाद वह एकदम से घबरा उठा और उसने सबको खोलकर फि़र से गिना. वे अब भी सड़सठ थीं.

उसने आग के पास बैठकर अपने भीगे-जूते और जुराबें सुखाईं. हिरन की खाल के जूते भीगकर फ़ूले और तार-तार हो रहे थे. मोटी ऊनी जुराबें जगह-जगह घिस गयी थीं और उसके जख्मी पैरों से खून बह रहा था. उसका टखना दर्द से थरथरा रहा था. उसने गौर से उसका मुआइना किया. वह सूजकर उसके घुटने के बराबर हो गया था. उसने अपने दो कम्बलों में से एक से एक लम्बी पट्टी फ़ाड़ी और टखने को कसकर बाँध दिया. उसने कुछ और पट्टियाँ फ़ाड़ीं और उन्हें अपने पैरों पर लपेट लिया ताकि वे जूते-मोजे दोनों का काम करें. फि़र उसने भाप छोड़ता उबला पानी पिया, घड़ी में चाभी दी और कम्बल में घुस गया.

वह मुर्दे की तरह सोया. आधी रात के करीब कुछ देर के लिए अँधेरा छाया और छँट गया. उत्तर-पूर्व में सूरज उगा-या यूँ कहें कि उस तरफ़ से पौ फ़टी क्योंकि सूरज तो भूरे बादलों से ढँका हुआ था.

छह बजे वह जागा, पर चुपचाप पीठ के बल लेटा रहा. भूरे आसमान को निहारते हुए उसे भूख महसूस हुई. कोहनी के बल करवट बदलते ही जोर से घुरघुराने की आवाज से वह चौंका और देखा कि एक नर रेण्डियर चौकन्ने कुतूहल से उसे देख रहा है. जानवर उससे पचास फ़ीट से ज्यादा दूरी पर नहीं था और आदमी के मन में फ़ौरन ही आग पर भुनते रेण्डियर के मांस का दृश्य और स्वाद कौंध गया. यंत्रवत उसने खाली बन्दूक उठाई, घोड़ा चढ़ाया और ट्रिगर दबा दिया. हिरन ने फ़ुफ़कार मारी और पत्थरों पर खुरों की तेज आवाज के साथ उछलकर भागा.

आदमी ने गाली देकर खाली बन्दूक दूर फ़ेंक दी. खड़े होने की कोशिश करते हुए उसने जोर से कराह भरी. यह धीमा और मुश्किल काम था. उसके जोड़ जंग खाये कब्जों की तरह हो गये थे. हर हरकत पर उसका जोड़-जोड़ कड़कड़ कर उठता था और पूरा जोर लगाकर ही वह हाथ-पैर मोड़ या खोल पा रहा था. आखिरकार, जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो गया, उसके बाद भी इनसान की तरह सीधा खड़ा होने में उसे एक मिनट और लग गया.

वह एक छोटे-से टीले पर चढ़ गया और चारों ओर देखा. कहीं न कोई पेड़ था, न झाड़ी, बस काई का धूसर समुद्र था जिसके बीच-बीच में कहीं-कहीं धूसर चट्टानें, धूसर जलकुण्ड और धूसर जलधाराएँ कुछ विविधता पैदा कर रही थीं. आसमान भी धूसर था. सूरज या धूप का नामो-निशान नहीं था. उसे उत्तर दिशा का कोई बोध नहीं था और वह भूल चुका था कि पिछली रात किस रास्ते से यहाँ पहुँचा था. लेकिन वह भटका नहीं था. उसे यह यकीन था. जल्दी ही वह नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँच जायेगा. उसे लगा कि वह बाईं ओर कहीं थी, ज्यादा दूर नहीं-शायद उस नीची पहाड़ी के पार ही.

वह लौटकर अपना पिट्ठू यात्रा के लिए तैयार करने लगा. उसने माचिस की तीनों पुड़ियों को टटोलकर देखा, हालाँकि उसने फि़र से उन्हें गिना नहीं. लेकिन वह बारहसिंगे के चमड़े की एक मोटी-सी थैली को लेकर कुछ देर असमंजस में रहा. वह ज्यादा बड़ी नहीं थी. वह अपनी दोनों हथेलियों से उसे ढँक सकता था. लेकिन उसका वजन पन्द्रह पौण्ड था-बाकी के सारे बोझ के बराबर-और इस बात से उसे चिन्ता हो रही थी. आखिर, उसने थैली एक किनारे रख दी और कम्बलों को लपेटने लगा. वह रुका और बारहसिंगे के चमड़े की मोटी-सी थैली पर नजर डाली. फि़र उसने अपने इर्द-गिर्द एक उद्धत निगाह के साथ उसे उठा लिया, मानो यह वीराना इसे उससे छीनने की कोशिश कर रहा हो; और जब वह डगमगाते कदमों से सफ़र जारी रखने के लिए उठा, तो यह उसके पिट्ठू में शामिल थी.

वह बाईं ओर चलता रहा, बस बीच-बीच में रुककर मस्केग बेरियाँ खाते हुए. उसका टखना अकड़ गया था और वह पहले से ज्यादा लँगड़ा रहा था, लेकिन उसका दर्द पेट के दर्द के आगे कुछ नहीं था. भूख से आँतें कुलबुला रही थीं. उनकी कुलबुलाहट इतनी बढ़ गयी कि उसके लिए नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँचने के रास्ते पर ध्यान टिकाये रहना मुश्किल हो गया. मस्केग बेरियों से आँतों की जलन कम नहीं हो रही थी पर उनके कड़वे रस से उसकी जुबान और तालू में छाले पड़ गये थे.

वह एक घाटी में पहुँचा जहाँ भटतीतरों का एक झुण्ड पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए चट्टानों और मस्केग के पौधों से अचानक उड़ा. वे केर्-केर्-केर् की आवाज निकाल रहे थे. उसने उन पर पत्थर फ़ेंके लेकिन कोई निशाना सही नहीं बैठा. उसने अपना पिट्ठू जमीन पर रख दिया और गौरैया के पीछे लगी बिल्ली की तरह उनके पीछे लग लिया. नुकीले पत्थरों से उसकी पतलून कट गयी और उसके घुटनों से खून बहने लगा; लेकिन इसकी पीड़ा को भूख की पीड़ा ने दबा दिया. गीली काई पर रेंगते हुए उसके कपड़े तर-बतर हो गये और बदन ठण्डा होने लगा; पर भूख का ज्वर इतना तेज था कि उसे इसका भान भी नहीं था. हर बार भटतीतर उसके सामने से पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए उड़ जाते थे. उनकी केर्-केर्-केर् से उसे चिढ़ होने लगी और वह गालियाँ बकते हुए उन्हीं की आवाज में उन पर चिल्लाने लगा.

एक बार वह रेंगकर एक के पास तक पहुँच गया जो शायद सोया हुआ था. आदमी ने भी उसे तब तक नहीं देखा था जब तक वह चट्टान के गड्ढे से उछलकर एकदम उसके चेहरे के सामने नहीं आ गया. उसने हड़बड़ाकर पकड़ने की कोशिश की पर उसके हाथ में पूँछ के तीन पंख ही आये. उसे उड़ता देख वह नफ़रत से भर उठा, मानो चिड़िया ने उसके खिलाफ़ कोई जुर्म कर दिया हो. फि़र वह लौट आया और पिट्ठू कन्धे पर लाद लिया.

जैसे-जैसे दिन बीतता गया वह ऐसी घाटियों से होकर गुजरा जहाँ पशु-पक्षी और भी ज्यादा थे. रेण्डियर का एक झुण्ड कुछ दूरी से गुजरा. उसमें बीसेक जानवर थे और एकदम राइफ़ल की रेंज में थे. उसने अपने भीतर उनके पीछे दौड़ पड़ने की एक उन्मत्त इच्छा महसूस की, उसे एकदम पक्का लग रहा था कि वह दौड़कर उन्हें पकड़ सकता है. फि़र एक काली लोमड़ी उसे अपनी ओर आती दिखाई दी जिसके मुँह में एक भटतीतर था. आदमी चिल्लाया. यह एक डरावनी चीख थी लेकिन डरकर भागी लोमड़ी ने भटतीतर को छोड़ा नहीं. दोपहर बाद वह एक धारा के साथ-साथ चलने लगा जो यहाँ-वहाँ उगी नरकट के झुरमुटों से होकर बह रही थी. चूने की वजह से इसका पानी दूधिया था. नरकट को जड़ों के पास मजबूती से पकड़कर उसने खींचा और एक छोटे प्याज जैसी गाँठ निकाली. वह नर्म थी और उसमें दाँत धँसाते ही हुई कच्च की आवाज स्वादिष्ट भोजन का वादा कर रही थी. लेकिन इसके रेशे सख्त थे. उसमें बेरियों की तरह बस पानी से भरे ताँत जैसे रेशे थे जिनमें कोई पोषक तत्व नहीं था. उसने अपना पिट्ठू पटक दिया और घुटनों के बल नरकट के झुरमुट में घुसकर चरनेवाले जानवर की तरह गाँठें निकाल-निकालकर चबाने लगा.

वह बहुत थका हुआ था और आराम करने की इच्छा अकसर उसके मन में आती थी; वह कहीं भी लेटकर सो जाना चाहता था, लेकिन वह लगातार चलता जा रहा था. अब उसे नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँचने की इच्छा नहीं बल्कि पेट में जलती आग हाँक रही थी. वह छोटे जलकुण्डों में मेढ़क ढूँढ़ता था और केंचुओं की तलाश में नाखूनों से मिट्टी खोद डालता था, हालाँकि वह जानता था कि इस सुदूर उत्तर में न तो मेढ़क होते हैं और न ही केंचुए.

वह हर जलकुण्ड में झुक-झुककर झाँकता था और आखिरकार जब लम्बी शाम ढलनी शुरू हो गयी तो उसे ऐसे ही एक कुण्ड में एक अकेली छोटी-सी मछली दिखायी दी. वह पकड़ने के लिए लपका और कन्धे तक उसका हाथ पानी में डूब गया, पर मछली पकड़ में नहीं आयी. उसने दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश की जिससे तली की दूधिया मिट्टी हिल गयी. उत्तेजना में वह पानी में गिर पड़ा और कमर तक भीग गया. अब पानी इतना गँदला हो गया था कि वह मछली को देख नहीं सकता था और उसे पानी थिरा जाने और मिट्टी नीचे बैठ जाने तक इन्तजार करना पड़ा.

कोशिश फि़र शुरू हुई और एक बार फि़र पानी गँदला हो गया. लेकिन वह इन्तजार नहीं कर सकता था. उसने टीन की बाल्टी निकाली और कुण्ड को खाली करने लगा. शुरू में वह पागलों की तरह पानी फ़ेंकने लगा जिससे वह खुद भी भीग रहा था और पानी इतना नजदीक गिर रहा था कि बहकर वापस चला जाता था. फि़र वह ज्यादा सावधानी से काम करने लगा. वह शान्त रहने की पूरी कोशिश कर रहा था हालाँकि उसका दिल जोरों से धड़क रहा था और उसके हाथ काँप रहे थे. आधे घण्टे बाद कुण्ड करीब-करीब सूख चुका था. उसमें एक कप भी पानी नहीं था. लेकिन मछली का अता-पता नहीं था. उसे पत्थरों के बीच एक दरार दिखायी दी जिससे होकर वह बगल के एक बड़े कुण्ड में भाग गयी थी जिसे वह सारा दिन और सारी रात काम करके भी खाली नहीं कर सकता था. अगर उसे दरार का पता होता तो वह शुरू में ही एक पत्थर से उसे बन्द कर सकता था और तब मछली उसकी हो चुकी होती.

यह सोचते हुए वह भहराकर भीगी जमीन पर धम्म से बैठ गया. पहले तो वह अपने आप से धीमे-धीमे सुबकता रहा, फि़र वह चारों ओर फ़ैले निर्मम वीराने में ऊँची आवाज में रो पड़ा और काफ़ी देर तक उसका शरीर सिसकियों और हिचकियों से काँपता रहा.

उसने आग जलाई और गरम पानी पी-पीकर अपने भीतर गर्मी पैदा की और पिछली रात की तरह एक चट्टान पर लेट गया. सोने से पहले उसने अपनी माचिस की तीलियों को टटोला और घड़ी में चाभी दी. कम्बल भीगकर लिसलिसे हो गये थे. उसका टखना दर्द से थरथरा रहा था. लेकिन उसे सिर्फ़ भूख का अहसास हो रहा था और अपनी बेचैनीभरी नींद के दौरान वह दावतों और भोजों और तरह-तरह से सजी खाने की चीजों के सपने देखता रहा.

वह जागा तो ठण्ड उसकी हड्डियों में समा चुकी थी और वह बीमार महसूस कर रहा था. सूरज का कहीं पता नहीं था. धरती और आसमान का धूसर रंग और गहरा, और गाढ़ा हो गया था. ठण्डी, खुश्क हवा बह रही थी और पहाड़ियों की चोटियाँ मौसम की पहली बर्फ़ से सफ़ेद दिखने लगी थीं. जितनी देर में उसने आग जलायी और पानी उबाला उतने में ही उसके इर्द-गिर्द की हवा गाढ़ी और सफ़ेद होने लगी. यह भीगी बर्फ़ थी; बर्फ़ के फ़ाहे बड़े और गीले थे. शुरू में वे धरती को छूते ही पिघल जाते थे, लेकिन फि़र उनकी तादाद बढ़ती गयी. उन्होंने जमीन को ढँक लिया, आग बुझा दी और सूखी काई का उसका ईंधन बरबाद कर दिया.

उसके लिए यह संकेत था कि अपना पिट्ठू लादे और गिरते-पड़ते आगे चल पड़े. कहाँ जाना है अब यह उसे पता नहीं था. अब उसे न तो नन्ही छड़ियों की भूमि की फि़क्र थी, न बिल की और न डीज नदी के किनारे उल्टी डोंगी के नीचे छुपे भण्डार की. उस पर बस एक विचार हावी था, “कुछ खाना है.” वह भूख से पागल हो रहा था. उसे इस बात का जरा भी ध्यान नहीं था कि वह किधर जा रहा था. बस वह रास्ता घाटियों की तली से गुजरना चाहिए था ताकि वह भीगी बर्फ़ में टटोलकर मस्केग बेरियाँ और गाँठोंवाली घास खींचकर निकाल सके. लेकिन ये सब एकदम बेस्वाद थे और उनसे तसल्ली नहीं मिलती थी. उसे एक सेवार मिली जिसका स्वाद खट्टा-सा था और वह जितनी भी ढूँढ़ पाया सब खा गया. हालाँकि यह ज्यादा नहीं थी क्योंकि उसकी लता कई इंच बर्फ़ के नीचे छुप गयी थी.

उस रात उसे आग और गर्म पानी के बिना ही काम चलाना पड़ा, और वह भीगे कम्बलों में लिपटा भूख के सपने देखता हुआ सो गया. बर्फ़ ठण्डी बारिश में बदल गयी. वह कई बार जागा और अपने चेहरे पर इसे महसूस किया. दिन निकला-एक और धूसर, बिना सूरजवाला दिन. बारिश बन्द हो गयी थी. उसकी भूख अब पैनी नहीं रह गयी थी. जहाँ तक खाने की लालसा का सवाल था, उसकी इन्द्रियाँ मर चुकी थीं. उसे अपने पेट में एक धीमा, भारी-सा दर्द महसूस हो रहा था, लेकिन इससे ज्यादा परेशानी नहीं हो रही थी. अब वह पहले से ज्यादा तार्किक ढंग से सोच पा रहा था और एक बार फि़र उसका ध्यान नन्ही छड़ियों की भूमि और डीज नदी के पास के गुप्त भण्डार पर था.

उसने एक कम्बल के बचे हुए हिस्से से और पट्टियाँ फ़ाड़ीं और अपने लहूलुहान पैरों पर लपेट लीं. उसने घायल टखने को भी फि़र से कसा और सफ़र के लिए तैयार हो गया. पिट्ठू के पास आकर वह देर तक बारहसिंगे के चमड़े की मोटी थैली को देखता रहा लेकिन आखिरकार उसे साथ ले लिया. बारिश से बर्फ़ पिघल गयी थी और सिर्फ़ पहाड़ियों की चोटियों पर सफ़ेदी दिख रही थी. सूरज निकल आया और उसे दिशाओं का पता चल गया पर वह यह भी जान गया कि वह भटक गया है. शायद, पिछले दो दिनों में वह भटकते हुए कुछ ज्यादा ही बाईं ओर चला गया था. अब वह नाक की सीध में दाईं ओर चल पड़ा ताकि इस विचलन की भरपायी हो सके.

हालाँकि भूख अब उस तरह कचोट नहीं रही थी पर वह बहुत कमजोर महसूस कर रहा था. उसे अकसर सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था और रुकते ही वह मस्केग बेरियों और घास की गाँठों पर टूट पड़ता था. उसकी जुबान सूखी और बढ़ी हुई महसूस हो रही थी, मानो उस पर रोएँ उग आये हों, और उसका मुँह कड़वाहट से भरा था. उसका दिल भी उसे काफ़ी परेशान कर रहा था. जैसे ही वह कुछ मिनट तक चलता था वह जोर से धकधक करने लगता और फि़र इस तरह उछलकर उसके मुँह को आ जाता कि उसे घुटन-सी होने लगती और उसका सिर चकराने लगता था. दोपहर के समय उसे पानी से भरे एक गड्ढे में दो नन्ही मछलियाँ दिखाई दीं. उसे खाली करना तो नामुमकिन था लेकिन अब वह पहले से ज्यादा शान्त था और अपनी टीन की बाल्टी में उन्हें पकड़ने में कामयाब रहा. वे उसकी छोटी उँगली से बड़ी नहीं थीं लेकिन वह ज्यादा भूखा नहीं था. उसके पेट का हल्का दर्द और भी हल्का और मन्द पड़ता जा रहा था. ऐसा लगता था मानो उसका पेट ऊँघ रहा हो. वह दोनों मछलियाँ कच्ची ही खा गया. वह बड़े ध्यान से धीरे-धीरे चबा रहा था क्योंकि इस समय खाना उसके लिए एक विशुद्ध बौद्धिक क्रिया थी. उसे खाने की कोई इच्छा नहीं थी, पर वह जानता था कि जिन्दा रहने के लिए उसे खाना होगा.

शाम को उसने तीन और मछलियाँ पकड़ीं, दो को खा लिया और तीसरी को नाश्ते के लिए रख लिया. धूप से काई कहीं-कहीं सूख गयी थी और उसे एक बार फि़र गर्म पानी मिल गया. उस दिन वह दस मील से ज्यादा नहीं तय कर पाया; और अगले दिन वह पाँच मील ही चल सका. वह तभी तक चल पाता था जब तक उसका कलेजा मुँह को नहीं आने लगता. लेकिन उसका पेट अब उसे जरा भी परेशान नहीं कर रहा था. वह सो चुका था. अब वह एक नये इलाके में पहुँच गया था जहाँ रेण्डियर ज्यादा थे, और साथ ही भेड़िये भी. अकसर उनकी चिल्लाहट वीराने में तैरती हुई उसके पास तक पहुँचती थी और एक बार उसने अपने रास्ते में तीन भेड़िये देखे थे जो उसे देखते ही वहाँ से खिसक गये.

एक और रात गुजरी, और सुबह उसका दिमाग पहले से ज्यादा साफ़ था. उसने बारहसिंगे के चमड़े की मोटी थैली का चमड़े का फ़ीता खोल दिया. थैली से सोने के मोटे-मोटे कणों और ढेलों की पीली धारा जमीन पर बिखर गयी. उसने सोने को दो हिस्सों में बाँटा, आधे को कम्बल के एक टुकड़े में लपेटकर एक अलग-सी दिख रही चट्टान के नीचे छुपाया और बाकी आधे को पिट्ठू में रख लिया. बचे हुए एक कम्बल से भी पट्टियाँ फ़ाड़कर उसने पैरों पर लपेट लीं. वह अब भी अपनी बन्दूक लिये हुए था क्योंकि वहाँ डीज नदी के किनारे के भण्डार में कारतूस भी रखे थे. यह दिन कुहासेभरा था और एक बार फि़र उसकी भूख जाग गयी. वह बेहद कमजोर था और उसका सिर इस कदर चकरा रहा था कि कभी-कभी उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता था. अब वह अकसर ही ठोकर खाकर गिर पड़ता था; और एक बार वह सीधा भटतीतर के एक घोंसले पर गिर पड़ा. उसमें चार बच्चे थे-शायद एक दिन पहले ही जन्मे हुए. वह उन्हें जिन्दा ही चबा गया. उनकी माँ जोर से चीखते और पंख पटकते हुए उसके चारों ओर नाच रही थी. उसने अपनी बन्दूक के कुन्दे से उसे मार गिराने की कोशिश की, पर वह बच निकली. उसने उस पर पत्थर फ़ेंके और तुक्के से एक पत्थर उसे लग गया जिससे

उसका एक पंख टूट गया. फि़र वह टूटा पंख घसीटते हुए वहाँ से भागी. आदमी उसके पीछे था.

चिड़िया के बच्चों से उसकी भूख और भड़क उठी थी. वह घायल टखने पर फ़ुदकते और घिसटते हुए चिड़िया के पीछे लगा था. कभी वह गला फ़ाड़कर चिल्लाते हुए उस पर पत्थर फ़ेंकता था, तो कभी चुपचाप धीरज के साथ गिरते-पड़ते पीछा करता था. कई बार उसे कुछ सुझाई नहीं देता था और तब वह रुककर अपनी आँखों और माथे को मलता रहता था.

पीछा करते हुए वह घाटी के बीच में दलदली जमीन पर चला गया और उसे भीगी काई पर कदमों के निशान दिखाई दिये. वे उसके नहीं थे-यह तो साफ़ था. जरूर वे बिल के होंगे. लेकिन वह रुक नहीं सकता था, क्योंकि भटतीतर भागी जा रही थी. पहले वह उसे पकड़ेगा, फि़र लौटकर जाँच करेगा.

उसने भटतीतर को थका दिया, लेकिन वह खुद भी बेतरह थक गया. वह हाफ़ँते हुए लुढ़की पड़ी थी, और दस कदम पर वह भी हाफ़ँते हुए लुढ़का पड़ा था. उसमें इतनी भी ताकत नहीं थी कि रेंगकर चिड़िया के पास चला जाये. जब तक वह सँभला, तब तक चिड़िया भी सँभल गयी और पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए उसके भूखे हाथ की पकड़ से निकल गयी. शिकार फि़र शुरू हो गया. रात घिर आयी और वह बचकर भाग निकली. आदमी कमजोरी से लड़खड़ा गया और पीठ पर पिट्ठू लिये-दिये मुँह के बल गिर पड़ा. उसका गाल कट गया. काफ़ी देर तक वह ऐसे ही पड़ा रहा; फि़र करवट बदली, घड़ी में चाभी दी और सुबह तक वहीं लेटा रहा.

अगला दिन भी कुहासे से भरा था. उसके आखिरी कम्बल का आधा हिस्सा पैरों की पट्टियों की भेंट चढ़ चुका था. वह बिल के कदमों के निशान ढूँढ़ने में नाकाम रहा था. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. उसकी भूख उसे इस कदर हाँक रही थी कि वह सोचने लगा कि शायद बिल भी रास्ता भटक गया था. दोपहर तक उसकी पीठ का बोझ असह्य हो उठा. एक बार फि़र उसने सोने को दो हिस्सों में बाँटा, पर इस बार आधा हिस्सा यूँ ही जमीन पर गिरा दिया. दोपहर बाद उसने बाकी को भी फ़ेंक दिया और अब उसके पास सिर्फ़ आधा कम्बल, टीन की बाल्टी और राइफ़ल रह गयी थी.

एक मतिभ्रम उसे परेशान करने लगा. उसे यकीन-सा होने लगा कि उसके पास एक कारतूस बचा हुआ है. उसे लगा कि वह राइफ़ल के चैम्बर में पड़ा था लेकिन उसका ध्यान इस ओर नहीं गया. दूसरी ओर, वह जानता था कि चैम्बर खाली है. लेकिन मतिभ्रम बना रहा. वह घण्टों तक इसे दूर करने की कोशिश करता रहा, फि़र उसने राइफ़ल खोल दी और चैम्बर खाली पाया. वह इस कदर हताश हुआ मानो उसे वाकई वहाँ कारतूस होने की उम्मीद थी.

वह भारी कदमों से आधे घण्टे तक और चलता रहा, जब वह मतिभ्रम फि़र से उस पर हावी हो गया. वह फि़र उसे दिमाग से दूर करने की कोशिश करने लगा और आखिरकार उसने दिमाग को राहत देने के लिए राइफ़ल खोल डाली. कई बार उसका दिमाग कहीं बहुत दूर चला जाता था और वह यंत्रवत चलता रहता था; अजीबोगरीब सनकभरे ख्याल कीड़ों की तरह उसके दिमाग में कुलबुलाते रहते थे. लेकिन वास्तविकता से बाहर की ये यात्रएँ संक्षिप्त होती थीं क्योंकि भूख की कचोट उसे वापस खींच लाती थी. एक बार जब वह ऐसी ही एक यात्रा पर था तो एक ऐसे दृश्य ने उसे यथार्थ में धक्का दिया कि वह गश खाते-खाते बचा. वह नशे में धुत व्यक्ति की तरह आगे-पीछे झूलता हुआ गिरने से बचने की कोशिश कर रहा था. उसके सामने एक घोड़ा खड़ा था. घोड़ा! उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. उनमें घना कुहरा था जिसके बीच-बीच में रोशनी चुँधिया रही थी. उसने अपनी आँखें जोर से रगड़ीं और देखा कि घोड़ा नहीं, वह एक बड़ा-सा भूरा भालू है. जानवर उसे आक्रामक कुतूहल के साथ देख रहा था.

आदमी ने अपनी बन्दूक आधी उठाई, तभी उसे ध्यान आया कि वह खाली है. उसने बन्दूक नीचे कर ली और कमर पर बँधी म्यान से शिकारी चाकू निकाला. उसके सामने मांस और जीवन था. उसने चाकू की धार पर अँगूठा फि़राया. वह तेज थी. नोक भी तेज थी. वह भालू पर झपटकर उसे मार डालेगा. लेकिन उसका दिल धक्-धक्-धक् की चेतावनी देने लगा; फि़र सीने में जोरों से उछलने लगा. उसके माथे को जैसे लोहे के पट्टे ने जकड़ लिया और दिमाग चकराने लगा.

उसकी बदहवासी भरी हिम्मत को डर के उबाल ने बेदखल कर दिया. अगर उस जानवर ने हमला कर दिया तो क्या होगा? वह जितना तन सकता था, तनकर खड़ा हो गया, चाकू को कसकर पकड़ लिया और भालू को घूरने लगा. भालू धीरे से दो कदम आगे बढ़ा, पिछली टाँगों पर खड़ा हो गया और हल्के से गुर्राया. अगर सामनेवाला भागेगा तो वह उसका पीछा करेगा; लेकिन आदमी दौड़ा नहीं. अब वह डर से उपजी हिम्मत से काम कर रहा था. वह भी गुर्राया, वहशियों की तरह, भयानक आवाज में; इनसान के भीतर गहराइयों में छिपे हर भय को स्वर देते हुए.

भालू डरावने ढंग से गुर्राते हुए एक ओर हट गया. वह खुद इस रहस्यमय प्राणी से आतंकित था जो सीधा खड़ा था और डर नहीं रहा था. लेकिन आदमी हिला नहीं. वह मूरत की तरह खड़ा रहा जब तक कि खतरा टल नहीं गया. फि़र वह बुरी तरह काँपने लगा और गीली काई में बैठ गया.

उसने खुद को सँभाला और चल पड़ा. अब एक नया डर उस पर तारी हो रहा था. यह चुपचाप भूख से मर जाने का डर नहीं बल्कि यह डर था कि जीने की हर कोशिश भूख के आगे नाकाम होने से पहले ही कहीं उसे हिंसक तरीके से खत्म न कर दिया जाये. वहाँ भेड़िये भी थे. वीराने में सुनाई देती उनकी चीखों से हवा एक ऐसे डरावने कफ़न जैसी लगने लगती थी कि कई बार वह अनजाने ही दोनों हाथों से उसे पीछे धकेलने लगता था.

कभी-कभी दो-तीन की टोली में भेड़िये उसकी राह में मिलते थे. लेकिन वे उससे दूर ही रहते थे. एक तो वे पर्याप्त संख्या में नहीं होते थे, दूसरे वे रेण्डियर की ताक में थे जो लड़ते नहीं थे, जबकि सीधा चलनेवाला यह अजीब जानवर काट और खरोंच सकता था.

दोपहर बाद उसे बिखरी हुई हड्डियाँ दिखाई दीं. यह भेड़ियों का काम था. यह मलबा आधा घण्टा पहले रेण्डियर का बच्चा था, उछलता-कूदता, किकियाता हुआ. उसने हड्डियों को गौर से देखा. वे चाटकर साफ़ की जा चुकी थीं; अभी वे सूखी नहीं थीं और गुलाबी-सी दिख रही थीं. उनकी कोशिकाएँ अभी जिन्दा थीं. क्या पता दिन खत्म होने से पहले उसका भी यही हश्र हो जाये! जिन्दगी ऐसी ही है, प्यारे! कोई भरोसा नहीं! दर्द तो जिन्दगी ही देती है. मौत में कोई तकलीफ़ नहीं होती. मरना ऐसे ही है जैसे सो जाना. इसका मतलब था विराम. पूरा आराम. फि़र वह मरना क्यों नहीं चाहता था?

लेकिन वह ज्यादा देर तक नैतिक प्रश्नों में नहीं उलझा. वह काई में उकडूँ बैठा था और एक हड्डी को मुँह में लिये जीवन के उन रेशों को चूस रहा था जिनसे उसमें गुलाबी रंगत थी. उसे कुछ मीठा, मांस-जैसा स्वाद मिला; हल्का-सा, बस एक याद जैसा, और वह पागल हो उठा. उसने जबड़ों से जोर से चबाने की कोशिश की. कभी हड्डी टूटी, कभी उसके दाँत. फि़र उसने हड्डियों को पत्थरों से कुचला, पीट-पीटकर उनका मलीदा-सा बनाया और निगल गया. हड़बड़ी में उसने अपनी उँगलियाँ भी कुचल लीं. बस एक पल के लिए उसका ध्यान इस ओर गया कि पत्थर के नीचे आने पर भी उसकी उँगलियों में दर्द नहीं हुआ.

बर्फ़ और बारिश के डरावने दिन आ गये थे. उसे पता नहीं चलता था कि कब वह रुकता था और कब चल पड़ता था. वह रात में भी उतना ही सफ़र करता था, जितना दिन में. वह जहाँ भी गिर पड़ता, वहीं सुस्ता लेता था और जब भी उसके भीतर मर रहे जीवन की लौ फ़ड़फ़ड़ाकर जल उठती, वह रेंगना शुरू कर देता था. वह इनसान के तौर पर कोशिश नहीं कर रहा था. यह तो उसके भीतर का जीवन था, जो मरने को तैयार नहीं था और उसे हाँके लिये जा रहा था. उसे कोई पीड़ा नहीं हो रही थी. उसके स्नायु भोथरे और सुन्न हो गये थे, और उसका दिमाग अजीबोगरीब मंजरों और लजीज सपनों से भरा हुआ था.

वह रेण्डियर की हड्डियों का बचा हुआ हिस्सा अपने साथ ले आया था और बीच-बीच में उन्हें चबाता और चूसता रहता था. अब वह पहाड़ियों या खड़ी चट्टानों को पार नहीं कर रहा था बल्कि यंत्रवत एक चौड़ी धारा के साथ-साथ चल रहा था जो एक छिछली और विस्तृत घाटी से होकर बह रही थी. उसे न यह धारा दिख रही थी, और न ही घाटी. वह विचित्र दिवास्वप्नों के सिवा कुछ नहीं देख रहा था. उसकी आत्मा और शरीर साथ-साथ चल या रेंग रहे थे, पर वे एक-दूसरे से अलग भी थे. उन्हें जोड़नेवाला धागा बहुत बारीक रह गया था.

वह उठा तो दिमाग ठिकाने पर था. वह एक सपाट चट्टान पर चित लेटा हुआ था. सूरज गर्म और चमकदार किरणें बिखरे रहा था. दूर से उसे रेण्डियर के बच्चों के किकियाने की आवाज सुनाई दे रही थी. उसे बारिश और तेज हवा और बर्फ़ की धुँधली-सी याद थी, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि वह दो दिनों तक तूफ़ान के थपेड़े झेलता रहा है या दो हफ्तों तक.

कुछ देर तक वह बिना हिले-डुले पड़ा रहा. सुखद धूप उसके बेहाल शरीर को गर्माहट से भर रही थी. उसने सोचा, आज का दिन अच्छा है. शायद वह पता कर सकेगा कि वह कहाँ है. बड़ी तकलीफ़ के साथ उसने करवट बदली. नीचे एक चौड़ी नदी मन्थर गति से बह रही थी. वह एकदम अपरिचित थी जिससे वह उलझन में पड़ गया. उसने धीरे-धीरे इसके बहाव के साथ-साथ नजरें फि़राईं. दूर तक नीची और उजाड़ पहाड़ियाँ थीं. ऐसी नीची और उजाड़ पहाड़ियाँ उसके रास्ते में अब तक नहीं आयी थीं. धीरे-धीरे, कोशिश करके, बिना उत्तेजित हुए उसने नजरों को इस विचित्र धारा के साथ-साथ क्षितिज तक जाने दिया और देखा कि वह एक चमकदार, झिलमिलाते सागर में मिल रही है. वह अब भी उत्तेजित नहीं हुआ. उसने सोचा, यह एक अजीब सपना है, नजरों का धोखा है. उसके परेशान दिमाग का छलावाभर है. चमकते समुद्र के बीच में लंगर डाले एक जहाज को देखकर उसका ख्याल और पुख्ता हो गया. उसने कुछ देर तक आँखें मूँद लीं, फि़र खोलीं. अजीब बात थी! वह छलावा अब भी नजरों के सामने था. नहीं, इसमें कुछ अजीब नहीं था. वह जानता था कि उजाड़ इलाकों के बीच में कोई समुद्र या जहाज नहीं हो सकता, वैसे ही, जैसे उसे मालूम था कि खाली राइफ़ल के चैम्बर में कोई कारतूस नहीं था.

उसने अपने पीछे एक आवाज सुनी-दबी-दबी सी खाँसी या छींक की आवाज. बेहद कमजोरी और जकड़न की वजह से उसने बहुत धीरे से दूसरी ओर करवट ली. उसे अपने करीब कुछ दिखाई नहीं दिया, लेकिन वह धीरज से इन्तजार करता रहा. खाँसी और सूँ-सूँ की आवाज फि़र आयी, और उसने करीब बीस फ़ीट दूर, दो नुकीले पत्थरों के बीच एक भेड़िये का सिर देखा. उसके नुकीले कान उस तरह खड़े नहीं थे जैसे उसने दूसरे भेड़ियों के देखे थे; आँखें धुँधलाई और सुर्ख लाल थीं और सिर उदासी से ढुलका हुआ-सा था. जानवर बार-बार धूप में आँखें मिचमिचा रहा था. वह बीमार लग रहा था. आदमी को अपनी ओर देखता देखकर वह एक बार खाँसा और उसके नथुनों से सूँ-सूँ की आवाज आयी.

उसने सोचा, कम से कम यह तो सच है, और फि़र दूसरी ओर मुड़ा ताकि उस दुनिया की सच्चाई देख सके जिसे उस छलावे ने ढँक दिया था. लेकिन दूरी पर समुद्र अब भी झिलमिला रहा था और जहाज साफ़ पहचाना जा सकता था. क्या वाकई यह सच था? वह आँखें मूँदकर देर तक सोचता रहा, और फि़र एकाएक उसे समझ आ गया. वह उत्तर-पूर्व की ओर चलता रहा था, डीज नदी से दूर कॉपरमाइन की घाटी में. यह चौड़ी और मन्थर नदी कॉपरमाइन थी. वह झिलमिलाता समुद्र आर्कटिक सागर था. वह जहाज व्हेल के शिकारियों का था जो मैकेंजी के मुहाने से पूरब, बहुत पूरब में चला आया था और कोरोनेशन खाड़ी में लंगर डाले खड़ा था. उसे बहुत पहले देखा हुआ हडसन बे कम्पनी का चार्ट याद हो आया, और अब उसे सब साफ़-साफ़ समझ आने लगा.

वह उठ बैठा और फ़ौरी मामलों पर ध्यान दिया. कम्बलों की पट्टियाँ पूरी तरह घिस चुकी थीं और उसके पैर मांस के लोथड़े भर रह गये थे. उसका आखिरी कम्बल भी जा चुका था. राइफ़ल और चाकू भी गायब थे. उसका टोप कहीं गिर गया था जिसके भीतर के फ़ीते में माचिस की तीलियाँ थीं, लेकिन उसकी कमीज के अन्दर और तम्बाकू की थैली में मोमिया कागज में लिपटी तीलियाँ सुरक्षित थीं. उसने घड़ी पर नजर डाली. उसमें ग्यारह बजे थे, और वह अब भी चल रही थी. जाहिर है, वह इसमें चाभी भरता रहा था.

वह शान्त और स्थिरचित्त था. वह बेहद कमजोर हो गया था पर उसे दर्द का जरा भी अहसास नहीं था. वह भूखा भी नहीं था. खाने का ख्याल अब उसे अच्छा भी नहीं लगता था और वह जो कुछ भी करता था बस दिमाग के निर्देश पर. उसने अपनी पतलून घुटनों तक फ़ाड़ डाली और उसे पैरों पर लपेट लिया. टीन की बाल्टी किसी तरह अब भी उसके पास बची रह गयी थी. जहाज तक का सफ़र शुरू करने से पहले वह थोड़ा गर्म पानी पियेगा. वह जानता था कि यह एक भयानक सफ़र होगा.

उसकी हरकतें बहुत धीमी थीं. वह मिर्गी के दौरे की तरह काँपने लगा. जब उसने सूखी काई बटोरना शुरू किया तो उसने पाया कि वह अपने पाँवों पर खड़ा नहीं हो पा रहा है. एक बार वह बीमार भेड़िये के पास तक रेंगकर गया. जानवर घिसटकर उसके रास्ते से हट गया. उसने अपने जबड़ों पर मुश्किल से जुबान फि़राई. आदमी ने देखा कि जुबान पर स्वास्थ्य की लाली नहीं थी. वह पीलापन लिये भूरे रंग की थी और उस पर आधे सूखे बलगम की परत चढ़ी थी.

करीब एक लीटर गर्म पानी पीने के बाद आदमी ने पाया कि वह खड़ा हो सकता है और उस तरह चल भी सकता है, जैसे किसी मरते आदमी से चलने की उम्मीद की जा सकती है. हर एकाध मिनट पर उसे सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था. उसके कदम कमजोर और अस्थिर थे, वैसे ही जैसे उसका पीछा कर रहे भेड़िये के कदम कमजोर और अस्थिर थे; और उस रात, जब झिलमिलाते समुद्र को अँधेरे ने ढँक लिया, तो उसने हिसाब लगाया कि दिनभर में उसकी दूरी बस चार मील कम हुई है.

सारी रात वह बीमार भेड़िये की खाँसी और बीच-बीच में रेण्डियर के बच्चों का किकियाना सुनता रहा. उसके चारों ओर जीवन था, लेकिन वह ताकत से भरपूर जीवन था, पूरी तरह जीवन्त और सक्रिय, जबकि वह जानता था कि बीमार भेड़िया बीमार आदमी के पीछे इसी उम्मीद में लगा हुआ था कि आदमी पहले मरेगा. सुबह, आँखें खोलने पर उसने भेड़िये को अपनी ओर लालसाभरी, भूखी नजर से घूरते देखा. वह एक भटके हुए बेचारे कुत्ते की तरह अपनी दुम टाँगों के बीच दबाये दुबका खड़ा था. सुबह की सर्द हवा में वह काँप रहा था और जब भर्राई हुई फ़ुसफ़ुसाहट की आवाज में आदमी ने उससे कुछ कहा तो उसने बेजान तरीके से खींसें निपोर दीं.

खुली धूप थी और सारी सुबह वह आदमी उठता-गिरता झिलमिलाते समुद्र में खड़े जहाज की ओर चलता रहा. मौसम एकदम खुशगवार था. यह ‘इण्डियन समर’ (ध्रुवीय प्रदेश का कुछ ही दिन चलनेवाला गर्मियों का मौसम-अनु.) था. यह एक हफ्ते तक रह सकता था; या फि़र हो सकता था कि कल, या उसके अगले दिन यह खत्म हो जाये.

दोपहर में आदमी को किसी और के पदचिह्न दिखाई दिये. यह किसी आदमी के थे जो चलकर नहीं बल्कि घुटनों के बल रेंगकर गया था. उसने सोचा कि ये बिल के पदचिह्न हो सकते हैं, पर उसे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं महसूस हुई. उसे कोई उत्सुकता नहीं हुई. दरअसल, उसमें भावना और संवेदना मर चुकी थी. उसे अब पीड़ा की अनुभूति नहीं होती थी. उसका पेट और स्नायु सो चुके थे. पर उसके भीतर शेष जीवन उसे हाँके जा रहा था. वह थक चुका था पर उसके भीतर प्राण मरने को राजी नहीं था. वह मरने को राजी नहीं था, इसलिए वह अब भी मस्केग बेरियाँ और नन्ही मछलियाँ खाता था, गर्म पानी पीता था और बीमार भेड़िये पर सतर्क दृष्टि रखता था.

वह रेंगकर चलनेवाले दूसरे आदमी की लीक के पीछे चलता रहा और जल्दी ही वहाँ पहुँचा जहाँ यह खत्म हो गयी थी-हाल ही में चबाई गयी हड्डियों का एक ढेर, जिसके इर्द-गिर्द की गीली काई पर कई भेड़ियों के पंजों के निशान थे. उसने बारहसिंगे के चमड़े की एक मोटी थैली देखी, अपनीवाली जैसी ही. नुकीले दाँतों ने उसे फ़ाड़ दिया था. उसने थैली को उठाया, हालाँकि उसका वजन उसकी कमजोर उँगलियों के लिए बहुत ज्यादा था. तो बिल इसे आखिर तक ले आया था. हा! हा! अब वह बिल पर हँस सकता था. आखिर जीत उसकी हुई. वह जिन्दा रहेगा और झिलमिलाते समुद्र में खड़े जहाज तक इसे ले जायेगा. उसकी हँसी भयावह और कर्कश थी, कौवे की काँव-काँव जैसी, और बीमार भेड़िया भी उसके साथ कारुणिक स्वर में हुआने लगा. आदमी अचानक रुक गया. भला वह बिल से बदला कैसे ले सकता था, अगर बिल यह था; अगर ये गुलाबी-सफ़ेद, सफ़ाचट हड्डियाँ बिल थीं?

उसने मुँह घुमा लिया. ठीक है, बिल उसे मुसीबत में अकेला छोड़ गया था; पर वह इस सोने को नहीं लेगा, न ही बिल की हड्डियाँ चूसेगा. हालाँकि, अगर उसकी जगह बिल होता तो जरूर ऐसा करता; चलते-चलते उसके मन में यह ख्याल उभरा. वह एक गड्ढे में भरे साफ़ पानी के पास पहुँचा. मछलियों की तलाश में झुकते ही उसने एकदम से सिर पीछे हटाया, जैसे डंक लगा हो. उसने पानी में अपनी परछाईं देख ली थी. वह चेहरा इतना भयानक था कि मरी हुई संवेदना भी पलभर के लिए चौंककर जाग गयी. कुण्ड में तीन मछलियाँ थीं. उसे खाली करना नामुमकिन था और बाल्टी से उन्हें पकड़ने की कई नाकाम कोशिशों के बाद उसने हार मान ली. उसे डर था कि कमजोरी की वजह से वह कहीं गड्ढे में गिरकर डूब न जाये. इसी डर से वह नदी के किनारे पड़े तमाम लकड़ी के कुन्दों में से किसी पर सवार होकर जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

उस दिन उसने अपने और जहाज के बीच की दूरी तीन मील और कम की; और अगले दिन दो मील-क्योंकि अब वह बिल की तरह रेंग रहा था; और पाँचवाँ दिन खत्म हुआ तो जहाज अब भी सात मील दूर था और वह दिनभर में एक मील तय करने लायक भी नहीं रह गया था. लेकिन इण्डियन समर अब भी जारी था और वह रेंगते, फि़र गश खाते, फि़र रेंगते, फि़र लुढ़कते हुए आगे बढ़ता रहा, और बीमार भेड़िया खाँसते और झींकते उसके पीछे लगा रहा. उसके घुटने भी पैरों की तरह मांस के लोथड़े बन गये थे, और हालाँकि उसने कमीज फ़ाड़कर उन पर लपेट ली थी लेकिन रेंगते हुए वह पत्थरों और काई पर लाल लकीर छोड़ता जा रहा था. एक बार, उसने पीछे नजर घुमाई तो देखा कि भेड़िया उसके खून की लकीर को चाट रहा है, और उसे एकदम से अपना अन्त अपनी आँखों के सामने दिखाई दे गया. इससे बचने का एक ही तरीका था-कि वह खुद भेड़िये को खत्म कर दे. फि़र जीवन की एक भयावह दुखान्तिकी शुरू हुई-एक रेंगता हुआ बीमार इनसान, एक लँगड़ाता हुआ बीमार भेड़िया, अपने मरते शवों को वीराने के पार घसीटकर ले जाते दो प्राणी जो एक-दूसरे की जान के प्यासे थे.

अगर वह कोई तगड़ा भेड़िया होता तो शायद उस आदमी को ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता; लेकिन उस घृणित और लगभग मृत चीज के पेट में समाने का विचार ही वितृष्णा पैदा कर रहा था. उसका मन फि़र भटकने और विचित्र दिवास्वप्नों में खोने लगा था जबकि ऐसे दौर लगातार छोटे होते जा रहे थे जब वह साफ़-साफ़ सोच सकता था.

एक बार उसकी बेहोशी कान के पास सिसकारी की आवाज से टूटी. भेड़िया उछलकर पीछे हटा और कमजोरी की वजह से लड़खड़ाकर गिर गया. यह दृश्य मजाकिया था पर उसे मजा नहीं आया. उसे डर भी नहीं लगा. वह इस सबसे परे जा चुका था. लेकिन कुछ देर के लिए उसका दिमाग साफ़ हो गया और वह लेटे-लेटे सोचने लगा. जहाज अब चार मील से ज्यादा दूर नहीं था. आँखों को रगड़कर कुहासा छाँट देने के बाद वह उसे साफ़ देख सकता था और झिलमिलाते समुद्र के पानी पर चलती एक छोटी नाव का सफ़ेद पाल भी उसे दिख रहा था. लेकिन वह चार मील तक कभी रेंग नहीं पायेगा. वह यह बात जानता था कि वह आधा मील भी नहीं रेंग सकता था. पर फि़र भी वह जीना चाहता था. यह ठीक नहीं था कि इतना सब कुछ सहने के बाद वह मर जाये. किस्मत उससे बहुत ज्यादा तकाजा कर रही थी. और, मरते हुए भी, उसने मरने से इनकार कर दिया. शायद यह निरा पागलपन था, लेकिन मौत के पंजे में जकड़े हुए भी उसने मौत को धता बता दी और मरना नामंजूर कर दिया.

उसने आँखें बन्द कर लीं और भरपूर सावधानी से ध्यान केन्द्रित कर लिया. उसने जी कड़ा कर लिया और उस दमघोंटू शिथिलता को खुद पर हावी नहीं होने दिया जो उसके पूरे बदन में ज्वार की तरह उठ रही थी. यह घातक शिथिलता समुद्र जैसी ही थी, जो धीरे-धीरे उसकी चेतना को डुबो देना चाहती थी. कभी-कभी वह लगभग डूब ही जाता था; पर विस्मृति के सागर में हाथ-पैर फ़ेंकते हुए अचानक आत्मा की किसी अजीब कीमियागिरी की बदौलत इच्छाशक्ति का कोई तिनका उसके हाथ लग जाता था और वह सधे ढंग से हाथ चलाने लगता था.

वह बिना हिले-डुले चित लेटा रहा. वह बीमार भेड़िये की साँसों की घरघराहट को पास आता सुन सकता था. वह पास आया, और पास; इतना धीरे-धीरे कि उसे लगा समय बीत ही नहीं रहा है.

आदमी ने कोई हरकत नहीं की. भेड़िये की साँसें अब उसके कान पर थीं. खुरदुरी, सूखी जुबान ने रेगमाल की तरह उसके गाल को रगड़ा. उसके हाथ गोली की तरह झपटे-कम से कम उसने चाहा कि वे गोली की तरह झपटें. उसकी उँगलियाँ नुकीले पंजों की तरह मुड़ी हुई थीं, लेकिन वे हवा पकड़कर रह गयीं. फ़ुर्ती और सटीकपन के लिए ताकत चाहिए थी, पर आदमी में इतनी ताकत नहीं थी.

भेड़िये में गजब का धीरज था. आदमी का धीरज भी कम नहीं था. आधे दिन तक वह बेहरकत पड़ा रहा, बेहोशी से लड़ते और उस चीज का इन्तजार करते हुए जो उसका शिकार करना चाहती थी और वह खुद जिसका शिकार करना चाहता था. कभी-कभी वह शान्त समुद्र उस पर हावी हो जाता और वह लम्बे सपनों में डूब जाता, लेकिन इस सबके बीच वह उस घुरघुराती साँस और खुरदुरी जुबान की छुअन का इन्तजार करता रहा.

उसने साँस की आवाज नहीं सुनी और हाथ पर जुबान के स्पर्श से वह एक स्वप्न से धीरे-धीरे जागा. वह इन्तजार करता रहा. भेड़िये के दाँत उसके हाथ पर धीरे से गड़े; दबाव बढ़ने लगा; भेड़िया उस भोजन में दाँत गड़ाने के लिए अपनी सारी ताकत लगा रहा था, जिसके लिए उसने इतना लम्बा इन्तजार किया था. लेकिन आदमी काफ़ी इन्तजार कर चुका था और छिदे हुए हाथ ने जबड़ा पकड़ लिया. धीरे से. भेड़िया छुड़ाने की कमजोर कोशिश कर रहा था और आदमी की पकड़ भी कमजोर थी. फि़र उसके दूसरे हाथ ने भी आकर जबड़े को पकड़ लिया. पाँच मिनट बाद आदमी के शरीर का पूरा वजन भेड़िये के ऊपर था. हाथों में इतनी ताकत नहीं थी कि भेड़िये का गला घोंट सकें, लेकिन आदमी का चेहरा भेड़िये की गर्दन के पास था और उसका मुँह बालों से भरा था. आधे घण्टे बाद आदमी को अपने गले में एक गर्म धार का अहसास हुआ. यह सुखद नहीं था. यह ऐसा था जैसे उसके पेट में जबर्दस्ती पिघला सीसा धकेला जा रहा हो, और सिर्फ़ उसकी इच्छाशक्ति ही थी जो इसे धकेल रही थी. इसके बाद आदमी लुढ़ककर पीठ के बल लेटा और सो गया.

व्हेल का शिकार करनेवाले जहाज बेडफ़ोर्ड पर एक वैज्ञानिक अभियान दल के कुछ सदस्य भी थे. जहाज के डेक से उन्होंने तट पर एक अजीब सी चीज देखी. वह रेतीले तट को पार करती हुई पानी की ओर आ रही थी. वे इसका वर्गीकरण नहीं कर पा रहे थे, और चूँकि वे वैज्ञानिक लोग थे, इसलिए उसे देखने के लिए जहाज के साथ लगी व्हेल-बोट में सवार होकर तट पर गये. उन्होंने एक ऐसी चीज देखी जो जिन्दा थी पर जिसे इनसान कहना मुश्किल था. वह दृष्टिहीन थी, और चेतनाविहीन भी. वह किसी विशाल कीड़े की तरह जमीन पर रेंगती हुई चल रही थी. उसकी ज्यादातर कोशिशें निष्प्रभावी थीं, लेकिन वह अनवरत ऐंठते, बल खाते हुए शायद बीस फ़ीट प्रति घण्टे की रफ्तार से आगे ही बढ़ रही थी.

इसके तीन हफ्ते बाद वह आदमी बेडफ़ोर्ड के एक केबिन में लेटा था. उसके सूखे गालों पर आँसू ढुलक रहे थे और वह बता रहा था कि वह कौन है और उस पर क्या बीती है. वह अपनी माँ, धूपभरे दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया और सन्तरे के बगीचों और फ़ूलों से घिरे एक घर के बारे में भी बहकी-बहकी बातें कर रहा था.

इसके कुछ दिन बाद वह वैज्ञानिकों और जहाज के अफ़सरों के साथ खाने की मेज पर बैठा था. इतने सारे खाने को देखकर उसकी आँखें फ़टी पड़ रही थीं और इसे औरों के मुँह में जाते देखकर वह बेचैन हो रहा था. हर निवाले के मुँह में जाते ही उसकी आँखों में गहरे पछतावे का भाव आ जाता था. उसका दिमाग एकदम दुरुस्त था, फि़र भी खाने के समय वह उन लोगों से नफ़रत करता था. उसे यह डर सताता रहता था कि यह खाना खत्म हो जायेगा. वह खाने के भण्डार के बारे में केबिन ब्वॉय और रसोइये से लेकर जहाज के कैप्टन तक से पूछता रहता था. वे अनगिनत बार उसे आश्वस्त कर चुके थे, पर वह उन पर यकीन नहीं करता था, और खुद अपनी आँखों से देखने के लिए भण्डारखाने में चुपचाप जाकर छानबीन करता रहता था.

लोगों ने देखा कि वह आदमी मोटा हो रहा है. हर बीतते दिन के साथ उसका मोटापा बढ़ता जा रहा था. वैज्ञानिक अचरज से सिर हिलाते और तरह-तरह के सिद्धान्त पेश करते थे. उन्होंने उसका खाना कम कर दिया, फि़र भी उसका पेट निकलता ही गया.

जहाजी यह सब देखकर हँसते थे. वे इसका राज जानते थे. और जब वैज्ञानिकों ने आदमी पर नजर रखनी शुरू की तो वे भी जान गये. उन्होंने देखा कि नाश्ते के बाद वह अपनी बेढंगी चाल से किसी जहाजी के पास जाता था और भिखारी की तरह उसके सामने हाथ फ़ैला देता था. जहाजी हँसते हुए उसे बिस्कुट का एक टुकड़ा पकड़ा देता था. वह लालची निगाह से उसे देखता था, जैसे कोई कंजूस सोने को देखता है, और फि़र उसे अपनी कमीज के अन्दर डाल लेता था. दूसरे जहाजी भी हँसते हुए ऐसा दान करते रहते थे.

वैज्ञानिक समझदार थे. उन्होंने उसे अकेला छोड़ दिया. लेकिन उन्होंने चुपके से उसका बिस्तर देखा. उसके किनारे-किनारे सख्त जहाजी बिस्कुट की ढेरियाँ थीं. उसके गद्दे में बिस्कुट भरा था; हर कोना-अँतरा बिस्कुट से भरा था. फि़र भी उसका दिमाग एकदम दुरुस्त था. वह किसी और सम्भावित संकट से बचाव के उपाय कर रहा था-बस इतनी सी बात थी. वैज्ञानिकों ने कहा कि वह इससे उबर जायेगा; और सैन फ्रांसिस्को की खाड़ी में बेडफ़ोर्ड के लंगर डालने से पहले वह उबर गया.

एक तीली आग : जैक लंडन की कालजयी कहानी

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Sudhir Kumar

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