कला साहित्य

कहानी : भिटौली यानी मां उदास है

भिटौली का महीना शुरू हो चुका था. अगल-बगल की महिलाओं की भिटौली पहुँचने लगी थी. कागज की पुड़िया में मिठाई-बतासे आने लगे थे. मुझे भी अपनी बहनों को भिटौली देने के लिए जाना था. मां ने महीना शुरू होते ही भिटौली की रट लगाना शुरू कर दिया था, ‘इस महीने लड़कियां आस लगाये रहती हैं, देर मत कर, समय से चले जा !’ मैं मां को आश्वस्त कर चुका था कि वह चिन्ता न करे, मैं महीने के बीच में ही भिटौली दे आऊंगा ! पर पता नहीं क्यों मां को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा था. वह मेरे आश्वस्त करने के बावजूद कई बार बहनों को समय से भिटौली दे आने की बात दुहरा चुकी थी. मैं हमेशा की तरह व्यस्त था. (story Bhitauli Yani Maan Udas Hai)

‘तू चिन्ता मत कर ईजा, मैं समय से भिटौली दे आऊंगा !’ मां का उखड़ा हुआ चेहरा देखकर, मैंने अगले दिन उससे फिर कहा.

‘तब तक तो बहुत देर हो जाएगी. लोग क्या कहेंगे ?’

‘कहने वालों की चिंता मत कर, वो तो इन दिनों जाने में भी कुछ न कुछ कहेंगे !’

‘इन दिनों जाने में तो तारीफ ही करेंगे, देखो इनको अपनी बहन की कितनी चिन्ता है.’

‘तारीफ करने वाले तो बाद में भी तारीफ ही करेंगे, देखो इनको कोई जल्दबाजी नहीं है, आराम से मन बनाकर आए हैं. जिनको नुख्स निकालना होगा वो कहेंगे, देखो, इनको भिटौली देना कितना आफत का काम लग रहा है. आ गए फटाफट निपटने. बाद में जाने पर कहेंगे, अब आ रहे हैं, जबकि भिटौली का महीना गुजरने को है.’

‘तू तो जब देखो, अपनी बातों में उलझाकर पागल बना देता है… करेगा तो अपने ही मन की !’ मां ने गुस्से का इजहार करते हुए कहा.

मैं मां के बगल में बैठकर उसे मनाने की कोशिश करने लगा—‘ईजा, सवाल नीयत और भावना का है… आगे-पीछे जाने का नहीं !’

‘हां, बहुत बड़ा हो गया है ना… हर बात समझाकर मुंह बंद कर देता है !’ मां के चेहरे में अब वास्तविक नाराजगी जैसा कुछ था.

‘ऐसी बात नहीं है, जब खुद को ही फुर्सत नहीं है तो जल्दबाजी और हड़बड़ी में जाना क्या जरूरी है ? भिटौली हमारे लिए कोई आफत थोड़ा है !’

मां का चेहरा पहले की तरह उखड़ा हुआ था. मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा, ‘आजकल तू एकदम नाराज हो जाती है !’

‘तू भी तो पहले जैसा नहीं रहा ! मुंह पर जवाब रख देता है !’

‘जवाब तो मैं पहले भी देता था ! अब तुझे एकदम बुरा लग जाता है !’

तभी मैंने देखा, मां की आंखों में आंसू सा कुछ उमड़ने लगा था. मैंने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भींच लिया और तब तक भींचे रहा, जब तक उसने मुझे डांटना शुरू नहीं कर दिया.

‘चल हट, अब तू छोटा नहीं रहा !’

अचानक मेरी नजर मां के हाथ पर पड़ी. मैं गौर से मां को देखने लगा. लगा जैसे वर्षों बाद उसकी ओेर देख रहा हूं. मां के हाथ, काफी दुबले-पतले हो चुके थे. चमड़ी सूख चुकी थी. कभी यही गोरे हाथ, कितने सुंदर दिखते थे. आज की सूखी हुई चमड़ी तब चमका करती थी. गाल पिचक चुके थे और आंखें कटोरों के अंदर धंसी हुई थी. उन दिनों मां का चेहरा कितना दमका करता था. आज उसे देखकर कौन यकीन करेगा कि कभी उसके चेहरे की चमक से पूरा घर महका करता था. कैसे हर समय घर के चारों ओर भागते-दौड़ते रहती थी. तब उसे सांस लेने की फुरसत नहीं होती थी. वही मां, अब कैसी खाली-खाली सी हो गयी थी. घर के सभी काम बहुओं के पास चले गए थे. उसके हिस्से बचा था, आज की चीजों की अपने समय से तुलना करना और उनके मनमाफिक न होने पर उनकी आलोचना करना. बच्चों पर नजर रखना. उनकी षैतानियों से अजीज आकर उनको डांटना-फटकारना !

उस दिन मुझे लगा, मां वास्तव में बूढ़ी हो चुकी है. मां कैसे बूढ़ी हुई ? मां कब बूढ़ी हुई ? मैंने तो उसे कभी बुढ़ाते हुए नहीं देखा. लेकिन सच यही था. उसके साथ अपनी उम्र का भी एहसास हो रहा था. मेरे बच्चे बड़े हो चुके थे. सिर के बालों के बाद मूँछ और दाढ़ी के बाल भी सफेद होने लगे थे. लेकिन मेरी उम्र कितनी क्यों न हो जाए. मेरी लिए आज भी वह मेरी पहले वाली मां थी.

आज भी कहीं से आता हूं तो मां का पहला सवाल मेरे खाने के बारे में होता है. पत्नी जब उसे खाना देती है तो वह कहती है, ‘पहले उसे दे दे, उसे भूख लग रही होगी !’ कभी खाने की मेज से जल्दी उठ जाता हूं तो वह चौंक जाती है, ‘तेरी तबियत तो ठीक है बेटा !’

कई बार मां की इस तरह की टोका-टोकी से आजीज आ कर, ‘मां, सब ठीक है. तू चिन्ता मत किया कर !’ कह देता था तो बाद में अपने कहे पर कोफ्त होती थी. लगता था, मां को बुरा लगा होगा !

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बहरहाल, मैंने सारे जरूरी काम निपटाकर बहनों के घर जाने के लिए दो दिन की छुट्टी ले ली थी. यूं तो फोन और मोबाइल से कई बार बातचीत हो जाती थी. लेकिन पता नहीं क्यों फोन और मोबाइल की बातचीत के बाद एक अधूरापन सा घेर लेता था. लगता था, जैसे बहुत कुछ कहने से छूट गया है. वह छूटा हुआ इन मुलाकातों के जरिए पूरा होता. सालभर में एक बार तो यह दिन आता है. मैं यह पूरा समय बहन तथा उसके परिवार वालों के साथ बिताना चाहता था.

बहनों को भिटौली देकर लौटकर आने के बाद मैं काफी संतुष्ट सा था. घर में आयोजित प्रेस कांफ्रैंस में उनके वहां की खास-खास बातें मैंने खुद ही सब को बता दी थी. मां कुछ ही सवाल पूछकर, एक ओर बैठ गयी. वह मुझे पहले जैसी ही नजर आ रही थी. वैसी ही उदास… अपने में खोयी… अपने से नाराज सी.

‘क्या बात है मां… तबियत तो ठीक है !’ मैं एकाएक चिंतित हो उठा.

‘सब ठीक है रे !’

‘फिर तू उदास क्यों है !’ मुझे लगा, मां मुझसे कोई बात छुपा रही है.

‘‘मैं उदास कहां हूं ?’

तभी अचानक मुझे याद आया ‘मां, मिठाई खिला, अब तो तेरी भी भिटौली आ गई होगी ! जरा बता तो इस बार क्या आया ?’ मैंने चहकते हुए कहा था.

‘कोई नहीं आया रे ! किस को याद रहती है… रिश्ते नाते सब कहने की बातें हैं ! मां गुस्से में थी.

‘क्या फर्क पड़ता है मां ! हम लोग तो हैं. फिर वो लोग भी तो अपने नातियों-पोतियों में उलझे होंगे !’

‘मैं कोई रुपया-पैसा थोड़ा चाहती हूं रे ! सालभर का दिन होता है. आस लगी रहती है. बहनों के लिए भाई का क्या मतलब होता है, तू क्या समझेगा !’

‘मां उम्र का भी तो असर पड़ता है. वे लोग भी अब बूढ़े हो चुके हैं !’

‘उम्र हो जाने से रिश्ते-नाते खत्म हो जाते हैं क्या ? भावनाएं मर जाती हैं क्या ? तुम लोग हम बूढ़े लोगों के जीवन को समाप्त सा, क्यों मानने लगते हो !’ मां नाराज हो उठी थी.

‘मेरा ये मतलब नहीं था मां !’

‘तू मेरे भाइयों की ओर से सफाई क्यों दे रहा है ? क्या जब तू नाती-पोतों वाला हो जाएगा तो अपनी बहनों को भुला देगा !’

‘मां ! सच कहूं तो मैंने इस तरह से कभी सोचा ही नहीं !’

‘भाइयों को देखकर हम पीछे छूट गए अपने घर से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं. अपने घर को कोई लड़की कभी भूला नहीं पाती. हमारे लिए भी मां-बाप का वही अर्थ होता है, जो तुम्हारे लिए होता है. ठीक है हमारे माता-पिता नहीं रहे. लेकिन जब हमारे भाई लोग हमसे मिलने आते हैं तो हमें लगता है, जैसे हमारा वो घर खुद हमारे पास चलकर आ गया है. भूला दिए जाने की पीड़ा को तू क्या समझेगा रे ! इसे तो कोई लड़की ही समझ सकती है.’

मां कहती जा रही थी और मैंने अपना सिर झुका लिया था. मां सच कह रही थी. मैं जो कि इस मुगालते में रहता था कि हर बात को समझकर उसको उसके तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचा दूंगा, अब कुछ कहने की स्थिति में नहीं था.

नहीं, मैं मां को किसी प्रकार की सांत्वना नहीं दे सकता. उसे समझा नहीं सकता ! यह मेरे बस की बात नहीं है. अब मैं इस बात को समझ पा रहा था.

भिटौली का महीना परसों खत्म हो जाएगा. धीरे-धीरे मां इस दुःख को भूल जाएगी. किसी दिन मुलाकात होने पर उसकी भाभियां उसके हाथ में कुछ रुपये रख देंगी. मां मना करेगी. उसके मना करने को व्यर्थ की ना-नुकूर समझा जाएगा और परंपरा की दुहाई देकर मां को वह रुपये पकड़ने को मजबूर कर दिया जाएगा. रुपयों को हाथ में लेकर वह अपने भाइयों को याद करेगी और फिर उदास हो जाएगी.

अब समझ में आ रहा है, भिटौली के महीने में मां उदास क्यों हो जाती है ?

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भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित साहित्यकार हैं. नैनीताल के रानीबाग में रहते हैं और अब तक आपकी कहानी, उपन्यास, यात्रा व आलोचना की छह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. शिक्षा विमर्श पर केंद्रित सहकारी प्रयासों से निकल रही छमाही पत्रिका ‘शैक्षिक दख़ल’ का संपादन करते हैं.

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Sudhir Kumar

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  • भाई लोगो का मिलने आने से ऐसा लगना कि, जैसे हमारा वो घर खुद हमारे पास चलकर आ गया है ।
    लेखक द्वारा कहानी की ये पंक्तिया दिल को छू गयी । बूढ़े होने से रिश्ते नही भुलाये जा सकते । बहुत अच्छी कहानी ।

  • Sach boodhe hone se bhavnaye nahi badal jati.mayka to dil main basa hota hai.bahut achchi prastuti.

  • भिटौली की बातें सुनकर मुझे मेरी मां की याद आ गई जब मेरे मामा जी चैत के महीने में ईजा के लिए भिटौली लाते थे तो ईजा कितना खुश हो जाया करती थी, इस लेख ने बचपन के उन दिनों को एक बार फिर ताजा कर दिया है।
    धन्यवाद 🙏
    राजेन्द्र दुर्गापाल
    कोटद्वार

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