रूपकुंड यहां से करीब तीन किलोमीटर दूर है. लेकिन उंचाई ज्यादा होने से रास्ता बहुत लंबा और थकान भरा महसूस होता है. रूपकुंड पहुंचने तक आठ बज चुके थे. मौसम की बेरुखी के कारण इस बार रूपकुंड में झील का नामोनिशान नहीं था. झील का पानी जम कर ठोस बर्फ में तब्दील हो चुका था. कहीं-कहीं नर कंकाल बिखरे हुए थे, जो अब बहुत कम दिख रहे थे. एक जगह पर कुछेक कंकालों के साथ चप्पल, कंघा जूते सजाकर रखे गए थे.
(Stories about Roopkund Trek Travelog)
इन कंकालों की वजह से रूपकुंड को रहस्यमय माना जाता है. इस पर ढेरों कहानियां गढ़ी-लिखी गई हैं, लेकिन सच क्या है यह अब तक रहस्य बना हुआ है. प्रचलित कथाओं में से एक के अनुसार हिमालय पुत्री देवी नंदा उर्फ पार्वती जब मायके से विदा हो शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी. नंदा के सूखे होंठ देखकर शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था, इस पर उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का फव्वारा फूट पड़ा और नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था, इस पर वो चौंक पड़ी. नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है. तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अर्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए. और यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा.
एक कहानी और है. उत्तर प्रदेश वन विभाग के एक अधिकारी ने 1955 में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया और कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुएं एकत्रित कर उन्हें परीक्षण के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के मानवशास्त्र विभाग के निदेशक डॉ. डीएन मजूमदार को सौंप दिया. बाद में डॉ. मजूमदार स्वयं भी यहां से अस्थियां आदि सामग्री एकत्रकर अपने साथ ले गए. उन्होंने इस सामग्री को 400 साल से कहीं अधिक पुराना माना और बताया कि ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं. डॉ. मजूमदार ने 1957 में यहां मिले मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी विशेषज्ञ डॉ. गिफन को भेजे. जिन्होंने रेडियो कॉर्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 से 600 साल पुराना बताया.
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वहीं ब्रिटिश व अमेरिकी वैज्ञानिकों ने पाया कि अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊन से बने बूट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, रिंगाल की टूटी छंतोलियां और चटाइयों के टुकड़े शामिल हैं. याक के अवशेष भी यहां मिले, जिनकी पीठ पर तिब्बती सामान लादकर यात्रा करते हैं. अवशेषों में खास वस्तु बड़े-बड़े दानों की हमेल है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं. वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया और उसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी 30 से ज्यादा नरकंकालों के नमूने इंग्लैंड ले गए. बावजूद इसके रूपकुंड का रहस्य आज भी बरकरार है.
कुछेक इतिहासकारों का यह भी मानना है कि ये कंकाल कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उनकी फौज के हैं. 1841 का साल जब जनरल जोरावर तिब्बत युद्ध के बाद वापस लौट रहे थे. माना जाता है कि इसी बीच जोरावर की टुकड़ी रास्ता भटक गई. इस पर और भी ज़्यादा बुरा तब हुआ जब मौसम भी ख़राब हो गया और बड़े-बड़े ओले बरसने लगे. जिसकी वजह से राजा और रानी समेत पूरा जत्था रूपकुंड झील में समा गया.
बहरहाल! रूपकुंड रहस्य पर कहानियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है.
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(जारी)
केशव भट्ट
पिछली कड़ी : बगुवावासा: रूपकुंड यात्रा का एक पड़ाव जहां से आगे पानी बहना भूल जाता है
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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