लोकगीतों से हमारा तात्पर्य लोक साहित्य के उन रूपों से है, जो प्रायः अलिखित रहकर जन-साधारण द्वारा निर्मित होते हुए एवं परंपरा से देश काल की विविध परिस्थितियों का चित्रण करते हुए उनके बीच प्रचलित हैं और गेय रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैले हुए हैं. लोक शब्द का तात्पर्य उस साधारण जन समाज से है, जिसमें भूभाग पर फैले हुए सभी प्रकार के मानव है. जो लोग गांवों, शहरों व में निवास करते हैं और व्यवहारिक ज्ञान व दैनिक अनुभव के लिए ज्ञान की पोथियों का सहारा नहीं लेते.
लोक शब्द वस्तुतः अंग्रेजी फोक शब्द का हिन्दी पर्याय मान लिया गया है जब कि भारतीय परिस्थितियों में इसका प्रयोग उस पर्याय में नहीं हो सकता. पाश्चात्य दृष्टि से ‘फोक’ शब्द मूलतः असंस्कृत मूढ़ समाज के लिए प्रयुक्त हुआ जो बाद में गांवों में रहने वाले अनपढ़ मूर्ख लोगों के अर्थ में व्यवहृत होने लगा. वहां के विद्वानों में प्रो.चाइल्ड किटरिज आदि ने इसे मनुष्य की आदिम अवस्था की अभिव्यक्ति समझा और असंस्कृत समाज का विषय माना. किन्तु हमारे मत में लोक शब्द ‘फोक’ के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए, कम से कम भारतीय लोक साहित्य का अध्ययन करते हुए तो बिल्कुल नहीं. क्योंकि नगर तथा गावों में यहां उस प्रकार का अन्तर नहीं रहा जैसा यूरोप में था और है. भारत तो ग्राम प्रधान देश है, यहां नगर जीवन के साथ-साथ ग्राम जीवन का भी महत्व रहा है. अतः लोक शब्द की व्याख्या व्यापक ही माननी चाहिए.
लोक गीतों में व्यक्ति विशेष तथा जन सामान्य दोनों की रचनायें सम्मिलित की जा सकती हैं. शिष्ट वर्ग के साहित्यिक गीतों से इन्हें पृथक करने वाला मुख्य तत्व यह है कि समाज की यथार्थ स्थिति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखते हुए इनकी रचना होती है, इसकी अभिव्यक्ति सामूहिक होती है. यदि व्यक्ति विशेष रचना करता भी है तो उस पर छाप समाज की लग जाती है. इसी अर्थ में कहा जाता है कि लोक गीत समाज की सम्पत्ति है.‘‘कामयानी’’ व्यक्ति विशेष की रचना है अतः लोक रचना की सीमा से बाहर है किन्तु ‘‘ढोला मारूरा दूहा’’ सामाजिक अर्थात लोक रचना है. संभव है अनेक व्यक्तियों ने एकाधिक बार उसके कलेवर में परिवर्तन किया हो, किन्तु उसे जन मानस की रचना माना जाता है.
व्यक्ति की रचनाएं शिष्ट वर्ग के अतिरिक्त जन-साधारण की भी हो सकती है. तब वे लोक रचनाओं में आ जाती है और कभी लोक रचना शिष्ट वर्ग के साहित्य में भी स्थान पा जाती है. उदाहरण के लिए जायसी का महाकाव्य पद्मावत जब ठेठ अवधी में लिखा गया तो उसकी मुख्य कथा लोक कथा ही थी. हीरामन सुए व पद्मिनी रानी की गाथा जोगी लोग सारंगी बजा कर ६ धर-धर गाया करते थे किन्तु अब वह साहित्यिक शिष्ट वर्ग की रचना है. कुमाऊंनी लोककाव्य ‘‘मालुशाही’’ भी कल व्यवस्थित व सम्पादित होकर अनेक उपलब्ध कथा भेदों के साथ साहित्य की स्थायी निधि बन सकता है.
कुमाउंनी लोक गीत उपर्युक्त तथ्यों के उपवाद नहीं है. कुमाऊं या मूल शब्द ‘‘कुर्मांचल’’ से इस समय उत्तरांचल के तीन पर्वतीय जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा और गढ़वाल का बोध होता है. भले ही कुछ लोग जातीय तथा सांस्कृतिक दृष्टि से गढ़वाल को पृथक इकाई मानने के पक्ष में हैं. उसका नाम भी प्राचीन काल से उत्तराखण्ड था.
कुमाऊं के लोक गीत यहां के जन-जीवन, विचार, आदर्शों व अनुभूतियों का यथार्थ चित्रण करते हैं. हिमालय की उपत्यकाओं में फैले हुए इस भूमि भाग की प्राचीन काल से लेकर आज तक की प्रायः सभी विशेषतायें यहां के लोक गीतों में दर्पण की भांति झलक उठी है. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि समाज सम्बद्ध लोक गीतों के सभी प्रकार, जन साधारण की झांकी दिखाने में उतने ही सफल हुए हैं, जितने अन्य प्रदेशों में. इनके द्वारा कुमाऊं निवासियों की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि अवस्थाओं पर भी प्रकार पड़ता है जिन्होंने निरन्तर उनका जीवन प्रभावित किया है. यह सामग्री मनोरंजन के साथ-साथ लोक समाज के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करती है. यहां लोक गीतों में अभिव्यक्त सामाजिक चित्रण पर ही प्रमुख ध्यान रखा गया है.
कुमाऊंनी समाज को प्रभावित करने वाला एवं साहित्य में प्रमुख स्थान प्राप्त करने वाला तत्व प्राकृतिक वातावरण का है. कुमाऊं उत्तरांचल के सभी पर्वतीय स्थानों सुन्दर है. हिमालय की सुरम्य घाटिया कलकल करते झरने, ऊंचे देवदार वृक्ष तथा लाल बुरूश के फल यहां के निवासियों को सदैव नई चेतना, नई स्फूर्ति प्रदान करते रहे हैं. साथ ही लोकगायक का मानस विस्मय और भय की भावना से भी अभिभूत हुआ है. उन्हों ने प्रकृति -सौंन्दर्य विषयक गीत गाये हैं, अंग-प्रत्यंग के लिए नए-नए प्राकृतिक उपमान दिए हैं. प्रसिद्ध ‘‘संजा’’ अर्थात सांध्यगीत इसका सुन्दर उदाहरण है जिसमें नीलकंठ हिमालय से लेकर आकाश, पाताल, नौखण्ड, कृष्ण द्वारिका, नंदन बैराठ, राम की आयोध्या, गेली समुद्र तक संध्या के फैंलते जाने का काव्यात्मक वर्णन हुआ है और जिसमें सम्पूर्ण देश की एकता का बोध होता है.
के संध्या झूली गे, छ, भगवाना
नील कंठा हिमाला
के संध्या झुली गेछ हो रामा
आकाश हैं पताला…
किन्तु विचारणीय है कि यह प्रकृति कुमाऊं निवासी के लिए शुद्ध रूप से वरदान कभी नहीं रही. निरन्तर जीवन संघर्ष, जातीय वर्गभेद, आर्थिक वैषम्य ने उनका प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण ही बदल दिया. समाज की सामंती व्यवस्था, विभिन्न जातीय संघर्षें ने भी उनके गीतों में करूणा, अवसाद के भाव लाने में योग दिया है. गीतों के स्वर भेद, संगीतात्मक अन्तर के लिए यह वातावरण-वैशिष्ट्य बहुत कुछ उत्तरदायी है. इनमें सीमांत प्रदेश तिब्बत नेपाल के प्रभाव से लेकर , हिन्दु पुराणों, महाकाव्यों और मुसलमानी युग तक की भावनाएॅं मिलती है, जब कि अंग्रेजी शासन और वर्तमान काल की विभिन्न परिस्थितियां उनका प्रिय विषय रही . भावनाओं की अभिव्यक्ति होने के अतिरिक्त ये लोक गीत जनता के ज्ञान भंडार भी हैं. आचार व्यवहार का इतना स्पष्ट किन्तु अप्रत्यक्ष संकेत अन्यत्र मिलना कठिन है.
विशेष समृद्ध होते हुए भी ये गीत अनेक कारणों से अभी तक कम प्रकाश में आ सके हैं. उपलब्ध सामग्री के आधार पर सामाजिक अभिव्यक्ति दो रूपों में प्रधानतः मिलती है – (1) परम्परागत गीतों के रूप में और (2) ऋतु , त्यौहार, उत्सव आदि सम्बन्धी गीतों में. पहले प्रकार के गीत पुत्रोत्सव, नामकरण, विवाह आदि संस्कारों के अवसरों पर मुख्य रूप से स्त्रियों द्वारा गाए जाते हैं. इनके संरक्षण का श्रेय कुमाऊंनी नारी समाज को ही है. जो समयानुकूल इनका निर्माण, सुधार कर भावी पीढ़ियों के हाथ सौंप देता है. उन्होंने इन संस्कार गीतों द्वारा हिन्दू संस्कार बनाए रखे हैं और ये उन्हीं की एकमात्र स्म्पत्ति है.
घर या समाज का प्रत्येक शुभ कार्य ‘‘शकुनाखर’’ से आरम्भ होता है जिसमें हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता आमंत्रित किये जाते हैं. गणेश, राम, कृष्ण, ब्रह्मा आदि देवताओं से कार्य सफल कराने की प्रार्थना की जाती है, तब घर के सभी निकट या दूरस्थ सम्बन्धियों को आमंत्रित किया जाता है. गीतें में पशुपक्षियों तक से भावात्मक साम्य स्थापित किया गया है. निम्न गीत में एक तोते के द्वारा संदेश भेजने में यही भावनाएं व्यक्त हुई हैं. गीत ‘सुआल पथाई’ के समय का है जब विवाह के पूर्व लड़की के घर तैयारी हो रही है, सब कन्याएं बुलाई जा रही हैं-
सुवा रे सुवा बनखण्डी सुवा
हरिया तेरा गात, पिड लो तेरो ढून
लला तेरी आंखी, नजर तेरी बांकी,
दे सुवा नगरी न्यूत़़…
तब तोता पूछता है, किस घर जाऊं? मैं न नाम जानता हूं ना गांव? तब उसे संबद्ध परिवार तथा व्यक्तियों का विस्तृत परिचय दिया जाता है. इसमें गीतकार का भाव तादात्मय केवल मानवता तक ही सीमित नहीं है अपितु सम्पूर्ण लधुमहत् जीवित प्राणियों से है. यह व्यापकता या भाव प्रसार हमें लोकगीतों में ही उपलब्ध होता है.
( जारी )
पुरवासी में स्व. डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय का लेख.
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