नाम-सोबन सिंह, रंग- गोरा, कद-औसत, आँखें-चमकदार, पीठ-सीधी, आवाज़–कड़क, उम्र-तिरासी साल. (Soban Singh Story Swati Melkani)
उम्र के अलावा और कुछ भी ऐसा नहीं है जो इस व्यक्ति को बूढ़ा कहलवाने की हिम्मत रखता हो. अपने पति जगत से मैंने कई बार एक ऐसे बूढ़े का जिक्र सुना था. न जाने कितनी बार वे कह चुके थे, “जब तुम आओगी तो मैं तुम्हें जंगल में ले चलूँगा, उस बूढ़े का बगीचा दिखाने.” और पिछली गर्मियों में मेरा जाना हुआ तो हम निकल पड़े उस आदमी से मिलने जिसकी उम्र में कोई भी आदमी बूढ़ा हो जाता है.
इस जगह का नाम भैंसोली है. रानीखेत से कोई बीस किलोमीटर आगे है. सड़क कच्ची है. बस सेवा नहीं है. कुछ निजी जीप हैं जिनका चलना न चलना मौसम और ड्राइवर की मर्ज़ी पर निर्भर है. दुकान सिर्फ एक है जिसमें सस्ते गल्ले का सामान मिलता है. (Soban Singh Story Swati Melkani)
अस्पताल, पोस्ट ऑफिस से महरूम इस इलाके में एक सरकारी स्कूल है जिसमें जगत सात साल से नियुक्त हैं. भैंसोली एक खूबसूरत जगह है. इसके सामने शीतलाखेत, बाईं ओर हिमालय और दाहिनी ओर रानीखेत का प्रसिद्ध चौबटिया गार्डन दिखता है. पहाड़ों की एक विस्तृत श्रेणी को यहाँ से देखा जा सकता है. इंसानी बसासत से थोड़ा ही आगे स्थित जंगल में प्रवेश करने पर हम पाते हैं की प्राकृतिक चीजें अभी तक अनछुई रह पाई हैं. जंगल घना और शांत है पर पेड़ सिर्फ चीड़ के हैं. इस इलाके में पानी की भारी कमी है. जिस स्कूल का ज़िक्र मैंने किया था उसके बच्चे सुबह और शाम के स्वर्णिम क्षणों को दूर दूर से पानी सारने में बिताते हैं| यही हाल महिलाओं का है. एक दो नौलों के भरोसे जीवन चल रहा है. उत्तराखंड के अधिकांश गांवों की तरह पेयजल योजना इंतज़ार है.
खैर, हम उस बूढ़े से मिलने निकले थे जो भैंसोली से आगे उरुली नाम की जगह में रहता है. चीड़ का जंगल एक गहरी शांति में ले जाता है. पेड़ो में लीसा एकत्र करने के पीपे लगे हैं. लीसा मिलता है इसलिए चीड़ उगे हैं. चीड़ है इसलिए दूसरे पेड़ नहीं है. नौले सूख रहे हैं. जैव विविधता ख़त्म हो रही है. हम जंगल से गुजर रहे हैं. जंगल चीड़ का है.
“ अरे, यह अचानक सेब का पेड़ कहाँ से आ गया ?” मैंने चौंक कर जगत से पूछा.
“यहीं से तो उस बूढ़े का बगीचा शुरू होता है” जगत ने जवाब दिया.
मैंने आश्चर्य से चारों और देखा. एक अदृश्य रेखा के भीतर चीड़ के पेड़ समाप्त होकर सेब, काफल, नाशपाती, खुमानी, गुड़हल, अखरोट और पुलम के पेड़ों में बदल गए थे. नीचे देखने पर आलू और मूली के पौंधे थे. रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह चीड़ के जंगल के बीचों बीच एक भरा-पूरा बगीचा था. इस खूबसूरत बगीचे को एक अकेले आदमी ने अथक परिश्रम और इच्छाशक्ति से उगाया है. बगीचे में नीचे उतरने पर एक झोपड़ी नज़र आती है. (Soban Singh Story Swati Melkani)
दो कमरों की झोपड़ी के दरवाज़े खुले हैं. मैं भीतर झांकती हूँ. एक कमरे में कुदाल, फावड़ा, टोकरी, कुल्हाड़ी, खाली कनस्तर और बाल्टी रखी है. दूसरे कमरे में कुल चार बर्तन और एक लपेटा हुआ बिस्तर. बाहर खुले में एक चूल्हा है जिसके ऊपर फूस की छत डली है. बूढ़ा कहीं नज़र नहीं आता. पुकारने पर भी कोई उत्तर नहीं मिलता. जगत इधर-उधर ढूंढते हैं. थोड़ी ही दूर एक नन्हे पौधे के चारों और दो वृद्ध हाथ बाड़ लगाते दिखते हैं. जगत मुझे इशारे से दिखाते हैं.
चमकीली आँखों और सधे हुए हाथों से एक फलदार पेड़ के चारों ओर बाड़ लगाता यह व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि अपने लगाये इस पेड़ के फल उसने नहीं चखने हैं. पर एक दुर्लभ लगन के साथ वह अपना काम कर रहा है. जगत बताते हैं की बूढ़े को कम सुनाई देता है. वे नजदीक जाकर मिलते हैं. दोनों का परिचय पहले से है. वह हाथ धोकर हमारे पास आ बैठते हैं.
पूछने पर पता चलता है कि सोबन सिंह कई सालों से इस जंगल में अकेले रहते हैं. उनका परिवार रानीखेत में रहता है. पत्नी जब तक जिन्दा थी तो कभी-कभार आ जाया करती थी. अब नहीं है तो नहीं आती. बेटे, बहुएं, नाती, पोते सब वहीं रहते हैं. वे वहां खुश हैं और ये यहाँ खुश हैं.
अकेलेपन का विलाप करने का समय इस बुजुर्ग के पास नहीं है. गधेरे से पानी लाते हैं और सब्जियां खुद उगाते हैं. अब तक खुद पानी ढोकर पेड़ों को सींचते हैं. कई राहगीरों को सोबन सिंह ने इस जंगल में पानी पिलाया है. कई लोग उन्हें जानते हैं. वे कई लोगों को अपनी ओर से ताज़ी सब्जियां देते हैं. अपने पिता के चौबटिया गार्डन में माली रहने के दौरान उन्होंने बागवानी की बारीकियां सीखी थी और अपना बगीचा बनाकर उस हुनर को अंजाम दिया है.
मैं पूछती हूँ, “इस जंगल में अकेले डर नहीं लगता?” मेरी धीमी आवाज़ वे सुन नहीं पाते. जगत के दोबारा जोर से पूछने पर कड़क आवाज़ में बताते हैं, “डर , किसका डर ? मुझे ऊपर वाले के सिवा किसी का डर नहीं है.”
वे बाहर लगे चूल्हे में आग जलाते हैं और केतली में चाय चढ़ाते हैं. राख के भीतर कोयले सुलगे हैं, बस फूंकने भर की देर है. “इन पेड़ों के फल आप तो खा नहीं पाओगे” जगत चुटकी लेते हैं.
“अरे कोई तो खायेगा मास्टर साहब. जिन पेड़ों के फल मैंने खाए उन्हें भी तो किसी लगाया था. मुझे हरियाली पसंद है तो बस काम करता हूँ. कौन खायेगा कौन नहीं, यह भी कोई सोचने की बात है. दुःख तो बस इस बात का है कि लोग काफल ,खुमानी खाने आते हैं और पेड़ नोंचकर चले जाते हैं. जो घेर-बाड़ लगाई है उसे तोड़ जाते हैं. यह नहीं सोचते की अगले साल दोबारा फल आएँगे. बस खुद का पेट भरा रहे चाहे बाकी धरती भूखी मरे. मुझे इस बात का बहुत बुरा लगता है.”
सोबन सिंह की आवाज़ में एक अजीब सी ऊर्जा है. इस जंगल में कुछ न्यूनतम चीज़ों के सहारे बिना कोई आवश्यकता बढ़ाये वे अपनी समस्त ऊर्जा के साथ लगातार काम कर रहे हैं. वह बस इस दुनिया को कुछ देकर जाना चाहते हैं. बदले में कुछ पाने की चाह नहीं है. चाय की चुस्की के साथ सोबन सिंह बताते हैं कि कान कमज़ोर होने के कारण रात में उन्हें जानवरों के आने का पता नहीं चल पाता. जंगली सुअर और भालू बगीचे में बहुत नुकसान कर जाते हैं. ऐसे में कई बार रात को टॉर्च लेकर निकलते हैं. टॉर्च चमकाने पर जानवरों की आँखें चमक उठती हैं. उन्हीं चमकती आँखों को देखकर वे उन्हें भगाते हैं. (Soban Singh Story Swati Melkani)
जगत ने पूछा, “ कोई कुत्ता क्यों नहीं पाल लिया ?”
“एक बार पाला था” सोबन सिंह बताते हैं “पर यहाँ रात को बाघ आता है. मैंने सोचा किसी दिन कुत्ता बाघ के हाथ लग गया तो बेकार में मारा जायेगा बेचारा. इसीलिए उसे अपने लड़के के यहां छोड़ आया. अब तो अकेला ही रहता हूँ.”
अपने भोजन के बारे में पूछने पर वे बताते हैं ,“सुबह तो बस चाय पीता हूँ. दिन में ढाई बजे के करीब भात पकाता हूँ. कभी शाम को रोटी भी बना लेता हूँ. ज़्यादातर एक ही टाइम खाता हूँ. अब तो ऐसी ही आदत पड़ गयी है. टाइम-बेटाइम भूख भी नहीं लगती. लड़के बीच बीच में आकर राशन दे जाते हैं.”
इन्हीं बातों के चलते अँधेरा होने लगता है. हमें वापस लौटना है. रास्ते में घना जंगल है. सोबन सिंह से विदा लेकर हम निकल पड़ते हैं. दिमाग में पहाड़ के बूढों की निर्मित छवि के बारे सोचते हुए मैं जगत से पूछती हूँ – “आने जाने वालों से शराब मंगाकर पीते होंगे क्या ?”
मुझे आश्चर्य से देखते हुए जगत कहते हैं, “ क्या कोई शराबी इतना उद्यम कर सकता है ?” प्रश्न के प्रतिप्रश्न में उत्तर मिल गया. मैं चुपचाप चलने लगती हूँ. उस बूढ़े का बगीचा खत्म हुआ. अब आगे चीड़ का जंगल पार करना है.
(यह लेख 2015 में लिखा गया था. सोबन सिंह इन दिनों अपने बेटे के पास रहते हैं )
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29 अप्रैल 1984 को नैनीताल के पटवाडांगर में जन्मीं स्वाति मेलकानी उत्तराखंड के एक छोटे से कस्बे लोहाघाट के स्वामी विवेकानंद राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में पढ़ाती हैं. भौतिकविज्ञान एवं शिक्षाशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर चुकी स्वाति का पहला कविता संग्रह ‘जब मैं जिंदा होती हूँ’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता में अनुशंसित एवं प्रकाशित हो चुका है. उनकी कविताएं देश की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छपती रही हैं और हिन्दी कविता के पाठकों के लिए वे एक परिचित नाम हैं.
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8 Comments
Sumit rawat
बहुत ही शानदार तरीके से इस सच्ची कहानी को पेश किया गया है पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानों मैं भी वही पे सब कुछ देख औऱ सुन रहा हु मंत्रमुग्ध
RS Manral
अत्यंत सुंदर रचना।?? आत्मीयता से लेखन दिल को छू जाता है।?? उत्तराखंड में आज भी ऐसे अनछुए स्थान हैं जहां बागबानी की प्रबल संभावना है।? जहां एक ओर गांव खाली हो रहे हैं वहीं जंगलों को आबाद करने की सोचने वाले सोबन सिंह जैसे विरले इंसान ही मिलेंंगे।? जय उत्तराखंड।??
RS Manral
अत्यंत सुंदर रचना।?? आत्मीयता से लेखन दिल को छू जाता है।?? उत्तराखंड में आज भी ऐसे अनछुए स्थान हैं जहां बागबानी की प्रबल संभावना है।? जहां एक ओर गांव खाली हो रहे हैं वहीं जंगलों को आबाद करने की सोचने वाले सोबन सिंह जैसे विरले इंसान ही मिलेंंगे।? जय उत्तराखंड।??
Devesh Tiwari
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This one | Hipster Tripster 🙂
ज्योति
सच में सोबन सिंह जैसे लोगो की वजह से ही उत्तराखंड देवभूमि कहलाता है।
मुकुल चंद्र पांडे
सुंदर रचना।
Jagdamba Bhatt
कलात्मक लेख एवं सुन्दर प्रस्तुति ।
मंजुला सक्सेना ।
बहुत ही सुंदर रचना और सोने में सुहागा ये कि कहानी सच है । एक कर्मठ वृद्ध की । काश कुछ वृद्ध तो और ऐसे होते । कम ख़ाना काम ज़्यादा की नीति ने भी उन्मे भरपूर ऊर्जा भर दी है मो वह ८० वर्ष की आयी में भी दिन भar काम करते हैं । शतायु हों ऐसी मेरी ईश्वर से प्रार्थना है ।