इस सड़क को ही आधार मानकर पर्वतीय और गैर पर्वतीय क्षेत्रों को बांटा गया था. इसी आधार पर ही सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को भी पर्वतीय भत्ता दिया जाता था. (Kandi Road Garhwal-Kumaon)
कंडी रोड का निर्माण पिछले कई सालों से अटका हुआ है. हरिद्वार से कोटद्वार होते हुए कालागढ़ रामनगर को जोड़ने वाली कंडी रोड के निर्माण की मांग पिछले लंबे समय से की जा रही है. जिससे कुमाऊं और गढ़वाल की दूरी कम हो जाएगी. इसकी गढ़वाल और कुमाऊं की संस्कृति को जोड़ने में भी महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है. लेकिन इसे केवल दो मंडलों को जोड़ने वाली सड़क ही नहीं कहा जा सकता है, बल्कि इसका विस्तार कुछ पुराने लोग टनकपुर बनवसा से नेपाल की सीमा और कोटद्वार से हरिद्वार और हिमाचल के सिरमौर तक बताते हैं.
ब्रिटिश काल में बनाई गई कंडी रोड का उपयोग यातायात के लिए किया जाता था. कंडी का अर्थ कुछ लोग शिवालिक श्रेणी में पैदल चलने वाला मार्ग और कुछ लोग बैलगाड़ियों से लकड़ी की ढुलाई करने वाला मार्ग बताते हैं. इस ऐतिहासिक रोड के विस्तार के बारे में कुछ लोग इसे नेपाल सीमा टनपुर से कोटद्वार-हरिद्वार से हिमाचल बताते हैं. जबकि कुछ लोगों का मामना है कि कंडी मार्ग या पैदल चलने वाले मार्ग सभी पहाड़ी क्षेत्रों में होते थे. लेकिन हरिद्वार-कोटद्वार और कालागढ़ के बीच अभी भी यह पुराना मार्ग है. भारत की आजादी के बाद तराई क्षेत्र में पक्की सड़कों का निर्माण होने लगा. इसके साथ ही जंगल का रास्ता होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से भी यह मार्ग बंद होता गया. बाद में वन विभाग ने सुरक्षा की दृष्टि से इस मार्ग बंद करवा दिया. ब्रिटिश काल में सब माउंटेन रोड के नाम से जाने जानी वाली इस सड़क को ही आधार मानकर पर्वतीय और गैर पर्वतीय क्षेत्रों को बांटा गया था. इसी आधार पर ही सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को भी पर्वतीय भत्ता दिया जाता था. बाद में वर्ष 2000 में उत्तराखंड पृथक राज्य बना और इसकी राजधानी देहरादून बनाई गई. इसके बाद गढ़वाल से कुमाऊं जाने के लिए भी यूपी से होकर जाना पड़ा. जिससे टैक्स और अन्य दिक्कतों को देखते हुए कंडी रोड खोलने की मांग शुरू हुई. कार्बेट पार्क बनने के बाद और वन अधिनियमों के चलते भी कंडी रोड का पेंच फंसता गया. वर्तमान सरकारें भी कई बार इस रोड को बनाने के बारे में बोल चुकी हैं. लेकिन अभी कोटद्वार और हरिद्वार के बीच सड़क बन नहीं पाई. वहीं कोटद्वार और कालागढ़ के बीच छह माह जीएमओ की एक या दो बसें चलती थी. जो अभी नहीं चल पा रही हैं. कोटद्वार और कालागढ़ के बीच सड़क कच्ची है.
जन संघ काल के पुराने नेता दुगड्डा निवासी मोहन लाल बैठियाल ने बताया कि कंडी रोड अंग्रेजों के जमाने में टनकपुर पूर्णागिरी नेपाल की सीमा से कुमाऊं होते हुए कालागढ़-कोटद्वार और हरिद्वार से पांवटा साहिब होते हुए हिमाचल को जोड़ती थी. अस्सी के दशक में कोटद्वार से कंडी रोड का निर्माण कार्य शुरू हुआ. जो पक्की सड़क बन रही थी. कोटद्वार से पाखरौ तक पक्की सड़क बन गई थी. सड़क में कई स्थानों पर ह्यूम पाइप डल चुके थे. लेकिन अचानक वन कानून और वन्य जीव संरक्षण के नियम और लोगों की आपत्ति के कारण सड़क का कार्य रुक गया.आज भी कोटद्वार से पाखरौ तक ही पक्की सड़क है. इसके आगे वन क्षेत्र में कच्ची सड़क है. अस्सी के दशक में सड़क निर्माण में जो पेड़ कटे थे उनके बदले में यूपी क्षेत्र में वनीकरण भी हो चुका है. लेकिन उसके बाद से सड़क निर्माण का मामला आज तक लटका हुआ है. ऐतिहासिक ब्रिटिश कालीन सड़क न सिर्फ सड़क थी बल्कि व्यापार का मुख्य संसाधन, सीमाओं का विभाजन और संस्कृति और परंपराओं को भी जोड़ती थी.
आजादी के बाद भी साठ और सत्तर के दशक में रामनगर से कालागढ़, कोटद्वार और हरिद्वार के बीच इस मार्ग पर जीएमओयू की गंगा बस सर्विस चलती थी. मेटाडोर भी इस मार्ग पर चलती थी. मोहन लाल बैठियाल बताते हैं कि वन विभाग की ओर से कंडी रोड पर पाखरौ, सनेह और चिल्लरखाल के पास लालढांग में वाहनों से टैक्स लिया जाता था. अभी भी लालढांग में और पाखरौ में वन विभाग की चेक पोस्ट हैं.
कंडी रोड पर बैलगाड़ी में जंगल से लकड़ी काटकर ले जाई जाती थी. इसी लिए इस रोड का नाम कंडी रोड पड़ा. यह उस समय का सबसे लंबा कच्चा व्यापारिक मार्ग था. कुमाऊं से भी कई लोग लकड़ी काटने के लिए पैदल चले थे, जो बाद में कोटद्वार के मैदानी क्षेत्र भाबर में बस गए. आज में भाबर क्षेत्र में कुमाउंनी लोगों का एक विशाल समुदाय निवास करता है. बताया जाता है कि ये लोग उसी समय यहां बांस काटने आए थे, जो बाद में यहीं बस गए. कोटद्वार के किसान नेता आलोक रावत बताते हैं कि आजादी के बाद बिजनौर वन प्रभाग और लैंसडौन वन प्रभाग के तत्कालीन कई अफसर कोटद्वार में रहते थे.जिनका निधन हो चुका है.लेकिन वे बताते थे कि कंडी रोड का विस्तार गढ़वाल कुमाऊं से अधिक हिमाचल और नेपाल बॉर्डर तक था. जिनके प्रमाण वन विभाग के पास मिल जाएंगे.
कार्बेट पार्क भारत का पहला राष्ट्रीय पार्क है, जो 1936 में स्थापित हुआ. पहले इसका नाम हैली नेशनल पार्क था. 1957 में इसका नाम जिम कार्बेट के नाम पर कार्बेट पार्क रखा गया. इसकी दूरी नैनीताल से कालाढूंगी और कोटद्वार तक है. जिसमें वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए कड़े कानून बनाए गए. इसमें कालागढ़ वन प्रभाग और लैंसडौन वन प्रभाग का कुछ हिसा आता है. कार्बेट पार्क बाघों के लिए प्रसिद्ध है. वर्ष 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम और पार्क बनने के बाद कंडी रोड के निर्माण में भी अधिक रोडे आए. (Kandi Road Garhwal-Kumaon)
नोट: -ब्रिटिश कालीन ऐतिहासिक ‘सब माउंटेन रोड’ (कंडी रोड) का विस्तार और जानकारी कोटद्वार भावर क्षेत्र के पुराने लोगों से की गई पूछताछ पर आधारित है. कुछ लोगों का मानना है कि कंडी रोड का विस्तार टनकपुर नेपाल सीमा से कोटद्वार हरिद्वार और हिमाचल तक था. जबकि कुछ लोगों का मानना है कि कंडी रोड सभी क्षेत्रों में पैदल चलने वाली सड़कें होती थी. लेकिन यह पूरी एक ही सड़क थी , इस बारे में अभी कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिल पाए हैं.
–विजय भट्ट
पेशे से पत्रकार विजय भट्ट देहरादून में रहते हैं. इतिहास में गहरी दिलचस्पी के साथ घुमक्कड़ी का उनका शौक उनकी रिपोर्ट में ताजगी भरता है.
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