लगभग 2018 मीटर की ऊंचाई पर आज की रात हम मालपा में थे. 17 अगस्त 1998 की दुर्भाग्यशाली रात इस जगह के लिए बहुत कातिल थी, जिसके घाव आज भी यहां जिंदा हैं. रात में जब इस कैलाश यात्रा पड़ाव में लोग दिन भर की थकान के बाद गहरी नींद में सो रहे थे तो ऊपर की पहाड़ियां समूचे मालपा पर बरस गईं. भीषण भूस्खलन में तीन सौ से ज्यादा लोग जिन्दा दफ्न हो गये. वक्त बीता तो धीरे-धीरे यहाँ भी जीवन लौटा लेकिन अब लोग पहले की तरह यहां बसने में डरते हैं. दो-तीन झोपड़ियां ही यहां फिर से बनी हैं. सामने एक शिव की विशाल मूर्ति स्थापित है, शायद इसे इन्होने अपना सहारा मान लिया है कि आपदा आने पर उन्हें बचा लेंगे. इसका अहसास हमें ढाबा चला रहे जोड़े की आँखों में साफ दिखाई दिया. (Sin La Pass Trek 6)
आज हम बहुत थका हुआ महसूस कर रहे थे. ढाबा मालिक ने झोपड़ी में एक किनारे पर हमारे सोने की व्यवस्था की. बिछाने को गद्दे और ओढ़ने के लिए कंबल भी वहां थे. हमें अपना सामान खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. रुकसेक किनारे रख उनसे गपशप शुरू हुई तो खाने तक चलती रही. उन्होंने चटपट हमारे लिए पहले चाय बनाई और कुछ देर बाद अंडे की भुर्जी यह कहकर परोसी कि, “अभी खाना बनने में टाईम है. दिनभर चले हो… भूख लगी होगी. तब तक यह खालो न”. बातचीत से पता चला कि ये लोग जिप्ती गांव के हैं. पति जयमलसिंह और पत्नी हरीना देवी यहां मालपा में कुटिया बना पर्यटकों की आवभगत कर अपनी आजीविका चला रहे हैं.
भोजन कर बगल में ठहरे अन्य यात्री भी वहां पहुंच गये तो काफी देर तक बातचीत होती रही. वे बता रहे थे कि इसबार हम लोग बुढ़ानीपूजा के वक्त में आए हैं. बुढ़ानी पूजा में मुंडन आदि संस्कार किए जाते हैं. आटा गूंधते हुए अपनी लय में हरीना देवी बता रही थी, “पुरानी कहावतें हुई बेटा. किसी ज़माने में बताते थे कि पूजा के समय परिवार के बड़े लड़के की बलि चढ़ानी पड़ती थी. एक बार ऐसा हुआ कि एक परिवार में एकलौता लड़का था, तो उन्होंने बलि के लिए मना कर दिया. अजीब स्थिति हो गई. बुजुर्गों के राय-मसवरे के बाद फिर आदमी व बकरी का खून चखने को कहा गया. समानता पाकर बकरी की बलि को ही मान्यता दे दी गई. और परिवार का एकलौता लड़का भी बच गया.’ (Sin La Pass Trek 6)
दोनों आमा-बूबू फिर खाना बनाने में जुट गए. भाषा की भिन्नता की वजह से उनकी आपस की बातें हमारे पल्ले नहीं पड़ रही थी. हावभाव से लग रहा था वे अपनी परिवार संबंधी बातें कर रहे थे. बैठकी टेबल में रोटी, हरी सब्जी, चटनी और चावल प्लेटों में लगा तो हम सभी उस पर टूट पड़े. खाना बहुत स्वादिष्ट लगा. वो प्रेम से हमें खिलाते रहे. कुछ देर और गपशप चली और फिर वे दोनों भी खाना खा बगल में आराम करने चले गए.
सुबह बूबू ने चाय के गिलास पकड़ाते हुए हमें नित्यकर्म से निवृत होने के लिए पानी आदि के बारे में बताया. वह खुद मुंह अंधेरे ही नहा-धो और धूप-दीप करके तैयार हो चुके थे. हम तीनों भी अपना सामान समेटकर नित्यकर्म से निवृत्त हुए. चाय-बिस्किट का नाश्ता किया और आमा बूबू से फिर मिलने का वादा करते हुए मालपा से विदा ली.
![](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2020/02/CHAI-TO-P-K-JAO.jpg)
लगभग तीन साल का एक मासूम बच्चा रितिक भी अपने परिजनों के साथ पैदल चलने का अभ्यास कर रहा था. आज हमें गर्ब्यांग पहुँचना था. गर्ब्यांग में ही हमें अपने पीछे छूट गये साथियों का इंतजार भी करना था. नाभीगाँव जाने वाले यात्री हमसे पहले ही निकल चुके थे. थोड़ा आगे बढ़ने पर एक समतल से जगह में हमें कुछ और झोपड़ीनुमा ढाबे दिखाई दिये. उनमें ठहरे यात्री निकल चुके थे. रास्ते के किनारे खेतों में उगल, चौलाई की फसल लहलहा रही थी. आगे कुछ दूरी पर तक्तीथा नामका प्रख्यात झरना दिखाई दिया तो कुछ पल बैठकर उसे निहारते रहे. झरने की ठंडी फुहारें जब हमारे थके तमतमाए चेहरों पर पड़तीं तो स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती थी.
![](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2020/02/THAKTI-THA-JHARNA.jpg)
काली नदी के साथ ऊपर-नीचे चढ़ते-उतरते छक्कन से पहले हमें भारत तिब्बत सीमा पुलिस की एक चौकी दिखाई दी. एक दुकान में चाय पीने की मंशा से थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम आगे बढ़े और आधे घंटे बाद हम छक्कन पड़ाव में थे. यहाँ भी कुछ दुकानें थीं. पता चला कि बूंदी यहाँ से करीब चार किलोमीटर पर है. अब तक दोपहर हो गई थी और सूरज सर के ऊपर साफ़ आसमान में पूरी दुकान खोलके जैसे हमारी परिक्षा ले रहा था. चलते-चलते हम सब पसीने से तरबतर थे. बूंदी गांव से पहले एक गधेरा पार करना पड़ा जो आज पूरे उफान में था.
बूंदी पहुंचे तो नाभीगाँव जाने वाले कुछ और यात्री भी हमें मिल गये. इनमें एक मेरे परिचित निकल आए- नाभी के ही गोपाल सिंह नबियाल. वह तब बागेश्वर में खादी ग्रामोद्योग भंडार में कर्मचारी थे. महेशदा उनसे गपियाने में लग गए. नबियालजी से मालूम पड़ा कि धारचूला से आगे का क्षेत्र तीन प्रमुख घाटियों में बंटा है. बूंदी, ब्यास घाटी की पहली ग्रामसभा है. जिप्ती, गाला, मालपा, लमारी, छंगनरे ये सभी बूंदी के अन्तर्गत ही आते हैं. इसमें दो वनपंचायती इलाके हैं- जिप्ती से गर्बाधार तक का इलाका तथा छियालेख से गर्ब्यांग तक का इलाका.
गोपालदा बड़े ही उत्साह से बता रहे थे और महेशदा उतनी ही शिद्दत से अपनी डायरी लिख रहे थे, “यहां पानी को ‘ती’, लकड़ी को ‘सिन’, चाँद को ‘ल्हा’, पत्थर को ‘उं’, सूरज को ‘मी’, घी को ‘मर’ और दूध को ‘नू’ कहते हैं. “इतने में गोपालदा के साथियों ने सामान सहित अपनी कमर कसी तो वह भी आगे मिलने का वादा कर दौड़ते हुए अपने सांथियों के साथ हो लिए. (Sin La Pass Trek 6)
बिस्कुट-चाय के बाद प्लेटों में सजी मैगी को भी हमने पल भर में निपटा लिया. भूख शांत हुई तो हमने भी अपने पिट्ठू पीठ पर लाद लिए. रास्ते के नीचे की ओर और आगे सामने पहाड़ी में झूलता हुआ बूंदी गांव खासा आबाद था. लोगों की मेहनत खेतों में दिखाई दे रही थी. गेहूं, फाफर, चौलाई, मूली के साथ-साथ नीचे खेतों में सेव के पड़ों में फल लदे हुए थे. काली नदी के पार नेपाल के आबाद गाँव भी दिख रहे थे. काली नदी यहां संकरे गौर्ज के बजाय काफी फैली हुई बहती है. अब छियालेख की इम्तेहान लेने वाली खतरनाक चढ़ाई सामने थी. रुक-बैठकर धीरे-धीरे हम आगे बढ़ रहे थे. एक जगह चाय का खोमचा मिला तो राहत सी मिली. चाय पीने के बहाने कुछ देर पीठ को बोझे से आराम मिल गया.
![](https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2020/02/IMG_0248.jpg)
अनगितन सीढ़ियों वाले इस घुमावदार मगर खड़े रास्ते का जैसे ही अंत हुआ तो अचानक एक अद्भुत दृश्य ने हमारी सारी थकान दूर कर दी. दरअसल इस चढ़ाई का अंत दो विशाल चट्टानों के बीच गुफानुमा दरवाजे पर होता है. इससे बाहर आते ही छियालेख का मखमली बुग्याल बांहे फैलाए आपका स्वागत करता है. सामने बर्फ से लदी नेपाल के आपी और नाम्फा शिखर आपको जैसे मुस्कराते हुए देख रहे होते हैं. हमारे आगे चल रहे गोपालदा तो बुग्याल में बच्चों की तरह गुलटियां मारकर अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे. (Sin La Pass Trek 6)
(जारी…)
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: जिन चट्टानों को देख कमजोर दिल सहम जाते हैं वहां पहाड़ की महिलायें घास काटती हैं
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
![](https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://cdn.shortpixel.ai/client/q_lossless,ret_img,w_104/https://kafaltree.com/wp-content/uploads/2018/10/kb-104x150.jpg)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें